|
..विश्वास केशव डांगे
संभाजी के संघर्ष एवं बलिदान की गाथा, उनके पिता छत्रपति शिवाजी की मृत्यु (अप्रैल 1680) पश्चात की है। संभाजी द्वारा किए कुछ कृत्यों के कारण उन्हें राजा बनाने या न बनाने पर मंत्रिमंडल में मतभेद थे, तब संभाजी की आयु करीब 22 वर्ष थी और उनके सौतेले भाई राजाराम की आयु 10 वर्ष थी। संभाजी के शैशवकाल में ही उनकी माता की मृत्यु हो चुकी थी। राजाराम की मां सोयराबाई महत्वाकांक्षी महिला थीं परन्तु उनमें प्रशासनिक योग्यता व दूरदृष्टि का अभाव था। शिवाजी की मृत्यु के समय संभाजी पन्हाला के किले में कैद थे।
यह मराठा इतिहास की शोकांतिका ही थी कि शिवाजी अपने उत्तराधिकारी का चयन करने में अत्यंत असमंजस की स्थिति में थे-आखिर रायगढ़ में सोयराबाई ने राजाराम का राज्याभिषेक (अप्रैल 1680) करवा दिया। यह समाचार संभाजी को मिलते ही उन्होंने पन्हाला के किलेदार की हत्या कर दी और कैद से छूटकर, रायगढ़ पर काबिज हो गए। राजाराम व सोयराबाई को बंदी बनाकर स्वयं का (10 जनवरी 1681) राज्याभिषेक करवा दिया। औरंगजेब का विद्रोही पुत्र अकबर संभाजी के पास पहुंचा, ये दोनों ही औरंगजेब के विरोधी थे, लेकिन इनमें तालमेल का अभाव था। इस वजह से मिल-जुलकर औरंगजेब के विरुद्ध युद्ध करने के प्रयत्न शून्य हो गए। अंतत: अकबर ईरान गया और वहीं मृत्यु को प्राप्त हुआ।
वहीं शिवाजी के कुछ मंत्रियों ने संभाजी को विष देकर मारने का प्रयत्न किया, परन्तु यह योजना असफल रही। संभाजी ने स्वयं को संकट में जान, इन मंत्रियों को हाथी के पांव के नीचे कुचलवाकर हत्या करवा दी। कहा जाता है कि संभाजी ने सोयराबाई की भी हत्या की। एक मत है कि उन्होंने आत्महत्या की (घटनाकाल अगस्त 1681 से अक्तूबर 1681)।
शिवाजी के समय के अधिकांश महत्वपूर्ण दरबारियों के विरुद्ध होने पर संभाजी को, कवि कलश अथवा केशवभट्ट को, जो प्रयाग में लंबे समय तक भोंसले परिवार के पुरोहित थे, उन्हें अपना निकटस्थ सलाहकार बनाना पड़ा। वह संस्कृत व हिन्दी के विद्वान थे, स्वतंत्र रचना करते थे, उनकी वाणी प्रभावी व मधुर थी। संभाजी ने उन्हें 'छंदोगामात्य' अर्थात वेदज्ञ की उपाधि दी।
संभाजी ने अकबर के साथ मिलकर विशाल योजनाएं बनाईं परन्तु वे अमल में न आ सकीं। हां, इतना अवश्य हुआ कि जब औरंगजेब को पता लगा कि संभाजी व अकबर की संयुक्त सेना उत्तर की ओर आक्रमण करेगी तो उसने शहाबुद्दीन खां को दलपत बुंदेला के साथ भेजा, जिसने नासिक से 7 मील दूर, रामसेज गढ़ को घेर लिया। मराठा किलेदार ने उसका दृढ़तापूर्वक विरोध किया। यह जानकर कि रूपाजी भोंसले व मानाजी मोरे, उसकी ओर बढ़ रहे हैं, वह क्षतिग्रस्त होकर पीछे हटा। दलपत बुंदेला पत्थर से घायल हो गया। इस पराजय पर कु्रद्ध होकर बादशाह ने अपनी पगड़ी उतार फेंकी व प्रतिज्ञा की कि वह शत्रु को पराजित करके ही पगड़ी फिर पहनेगा।
औरंगजेब बुरहानपुर पहुंचा (13 नवंबर 1681) और औरंगाबाद उसने में उसने छावनी बनाई (22 मार्च 1682)। उसकी सेना मराठों से भयभीत थी। बादशाह को अपने बड़े बेटे शाहआलम की राजनिष्ठा पर संदेह था। इस संदेह से उसने पुराने सेनापति दिलेर खां को पदमुक्त किया, इसके बाद उसने आत्महत्या कर ली। बादशाह ने संभाजी व उनके सहायक पुर्तगाली के विरुद्ध मोर्चा खोल दिया। कुछ सफलता भी मिली, लेकिन अभियान स्थगित करना पड़ा। विरोधियों से निपटने के बाद संभाजी ने जंजीरा के सिद्दी व चौल के पुर्तगालियों के विरुद्ध युद्ध किया क्योंकि ये दोनों मुगलों के समर्थक थे। सिद्दी मुगलों का सेनापति था। 1681 के अंत में उसने मराठा प्रदेश पर भयानक आक्रमण किया, जिसका उत्तर संभाजी ने 150 पोतों व 5000 नाविकों से सुसज्जित अपनी सेना से दिया। 1682 में वीर सेनानी दादाजी प्रभु महाड़कर ने सिद्दी को हानि पहुंचाई, परन्तु सिद्दी कासिम ने वीरता से स्वस्थान की रक्षा की। दक्षिण में औरंगजेब के आगमन से संभाजी को जंजीरा का घेरा उठाना पड़ा। बादशाह के दबाव से अंग्रेजों, पुर्तगालियों व डचों ने संभाजी के विरुद्ध युद्ध किया, घिरने के बाद भी संभाजी ने वीरता से युद्ध कर अहमदनगर व औरंगाबाद में बने मुगल आधार को ध्वस्त किया। कूटनीतिक अंग्रेजों ने कुशलता से स्वयं को मुगलों व मराठों से दूर रखकर अपनों को बचाए रखा।
1683 में संभाजी ने पुर्तगालियों पर हमला किया। पुर्तगाली गवर्नर टैबोरा, मुगल व मराठा, इन दो पाटों के बीच फंस गया। 1683 के अक्तूबर व नवंबर माह में पुर्तगाली गोवा को समर्पण करने वाले थे। संकटपूर्ण स्थिति जानकर उन्होंने संत जेवियर के शव को कब्र से बाहर निकालकर कृपा हेतु याचना की। संयोग ऐसा रहा कि औरंगजेब के पुत्र शाहआलम के आक्रमण की सूचना पाकर संभाजी को पीछे हटना पड़ा।
1685 के प्रारंभ में संभाजी ने भरूच (गुजरात) पर आक्रमण किया, उन्होंने उस मुगल सेना को काट डाला जो नासिक के पास उनसे लड़ने आई थी। औरंगजेब ने शहाबुद्दीन फिरोजजंग व उसके पुत्र चिनकिलीज खान (भविष्य में नाम, निजाम-उल- मुल्क, आसिफजाह प्रथम) को संभाजी के विरुद्ध उत्तरी कोंकण व बागलाण में भेजा, संभाजी ने भी उतनी ही शक्ति से उसका विरोध किया। 1685 के आरंभ में उन्होंने औरंगाबाद से बुरहानपुर का प्रदेश जीतकर कुल 17 नगरों को लूटा। बीजापुर व गोलकुंडा पर विजय से मुगल शक्ति बढ़ी, जबकि संभाजी के साथियों को धन व सेना की कमी होने लगी।
शर्जाखां नामक चतुरबीजापुरी सरदार ने संभाजी पर आक्रमण किया। उसका सामना संभाजी के एकमात्र समर्थक सेनापति हबीर राव मोहिते ने किया, वह 1687 में वाई गांव के निकट तोप के गोले से मारा गया। इस तरह संभाजी का एकमात्र समर्थक भी न रहा। कोल्हापुर-सतारा क्षेत्रीय शिर्के परिवार की संभाजी के साथ पुरानी शत्रुता थी, वे भी औरंगजेब से मिल गए थे। हबीर राव की मृत्यु पश्चात करीब एक वर्ष तक संभाजी व कवि कलश औरंगजेब से संघर्ष करते रहे। कवि कलश ने भाग कर विशालगढ़ में शरण ली। रायगढ़ में यह समाचार सुनकर संभाजी ने तुरंत आक्रमण कर शिर्के परिवार को हरा दिया और विशालगढ़ कलश के साथ हो गया, लेकिन तब तक उसके सहायक उसे छोड़ चुके थे।
जनवरी 1689 में संभाजी व कलश विशालगढ़ से रायगढ़, अंबाघाट होते हुए संगमेश्वर में कुछ समय के लिए ठहरे। यह सूचना मिलते ही शेख निजाम ने उन पर आक्रमण किया और दोनों को पकड़ लिया। इस दौरान संभाजी के काफी सैनिक मारे गए, शेष रायगढ़ भाग गए। संभाजी व कलश संगमेश्वर में कुछ समय के लिए ही ठहरे थे और उनकी सेना आगे बढ़ चुकी थी, इसलिए यह दुखद घटना हुई। सेना से अलग होना, दोनों की भयानक भूल थी। परिणामस्वरूप क्रूर औरंगजेब द्वारा दोनों की हत्या करवा दी गई।
औरंगजेब ने दोनों को मसखरों की पोशाक पहनाकर घुमाया व ऊपर वाले को इस उपलब्धि के लिए धन्यवाद दिया। दूसरे दिन औरंगजेब ने अपने निजी सेवक रहउल्ला खां को संभाजी के पास भेज, इन शतार्ें पर प्राण रक्षा का प्रस्ताव दिया- पहला ये कि वे अपने सभी किलों को समर्पित कर दें, दूसरा- समस्त गुप्त कोषों की जानकारी दें और तीसरा-उन मुगल अधिकारियों के नाम बता दें, जो संभाजी से मिले हुए थे। लेकिन परिणाम की चिंता किए बिना संभाजी ने तीनों प्रस्तावों को ठुकरा दिया, बल्कि औरंगजेब को बुरा-भला भी कहा। शिवाजी के आदर्शों पर चलकर संभाजी ने औरंगजेब का डटकर सामना किया व अपनी गलतियों का प्रायश्चित किया।
संभाजी के न झुकने पर औरंगजेब अपमान झेल न सका, संभाजी की आंखें निकाल ली गईं व कवि कलश की जिह्वा दूसरे दिन काट दी गई। दोनों को 15 दिन तक भयानक यातनाएं दी गईं। उन्हें बहादुरगढ़ से कोडे गांव लाकर, अति कष्ट देकर, 11 मार्च, 1689 (फाल्गुनी अमावस्या) को मार दिया गया। उनका शव दक्षिण के नगरों में घुमाया गया। फिर भीमा-इंद्रायणी नदियों के संगम पर तुलापुर में उनका अंतिम संस्कार हुआ। औरंगजेब ने संभाजी को प्राणदान देने हेतु जो शर्तें रखी थीं उनका कुछ अर्थ न था। संभाजी के पास सेना व सम्पत्ति दोनों ही नहीं थी, ऐसी स्थिति में किलों की सुरक्षा असंभव थी। उनके सेवक/अनुयायी औरंगजेब के पास जाकर उसका स्वामित्व स्वीकार कर रहे थे। ऐसी स्थिति में संभाजी व कवि कलश की हत्या क्यों हुई ? उसका प्रमुख कारण जो सामने आया है, वह यह कि औरंगजेब ने संभाजी व कलश पर कन्वर्जन के लिए दबाव बनाया। दोनों ने कन्वर्जन का विरोध किया और औरंगजेब को क्रोध में आकर काफी कुछ कहा। तीखे जवाब सुनकर औरंगजेब ने अनेक यातनाएं देकर उन्हें मरवा दिया। मुगल इतिहासकारों ने संभवत: उपरोक्त तथ्यों को छिपाया, अन्यथा संभाजी ने किसी पंथ या समुदाय के विरुद्ध कभी कुछ नहीं कहा।
संभाजी के साथ उनकी सौतेली मां व शिवाजी के मंत्रियों ने अन्याय किया, यह अब स्पष्ट हो गया है। पहला अन्याय तब हुआ, जब स्वयं उनके पद का निर्णय, उनके पिता असमंजस के कारण नहीं कर पाए। दूसरा अन्याय तब हुआ कि जब शिवाजी की मृत्यु के समय उन्हें दूर रखा गया क्योंकि यदि वह मृत्यु के समय उपस्थित होते तो 'भूलो व क्षमा करो' की नीति के अंतर्गत संभाजी को राजा बनाकर उन पर जिम्मेदारियों का बौझ डालकर राज्य कार्य में व्यस्त कर देते, जिससे उनके उग्र स्वभाव का दमन स्वयं हो जाता। तीसरा अन्याय तब हुआ कि जब सौतेली मां सोयराबाई के इशारे व दबाव में मंत्रिमंडल के सदस्यों ने उन्हें सहयोग नहीं दिया। यदि वे तटस्थ रहते तो भी संभाजी के संदेह का शिकार न बनते। परन्तु जब संभाजी विष से बचे तो उनकी कठोर प्रतिक्रिया स्वाभाविक थी। फिर भी संभाजी ने मंत्रियों को दण्डित करने में यह उदारता बरती कि उनके पुत्रों को मंत्री पद दिया। इसमें से एक खण्डो बल्लाल ने (हाथी से कुचलवाए बालाजी आवजी के पुत्र), संभाजी व स्वयं के अंतिम क्षण तक मराठा राज्य की सेवा की। उनकी स्वामिभक्ति व त्याग सदा याद रहेगा। संभाजी की हत्या औरंगजेब की तात्कालिक सफलता थी। इस हत्या के परिणाम उसकी अपेक्षा से ठीक विपरीत हुए। मृत संभाजी, औरंगजेब के लिए, जीवित संभाजी से अधिक विनाषक सिद्ध हुए। उनकी क्रूर हत्या ने मराठों में घोर प्रतिशोध व एकता का भाव भर दिया, जिसके कारण वे अगले 18 वर्ष तक औरंगजेब से संघर्ष करते रहे। अंतत: मुगल सेना मराठों से संघर्ष में थक के हार गई। औरंगजेब स्वयं की मृत्यु से चार वर्ष पूर्व जान चुका था कि वह हारा हुआ है परन्तु वह अपने मजहब का वीर कहलाना चाहता था। अंतत: रोगी स्थिति में वह 89 वर्ष की आयु में अहमदनगर के पास भिंगार गांव में काल का ग्रास बना (20 फरवरी, 1707)। औरंगजेब के विरुद्ध 26 वर्षीय संघर्ष (1681-1707) में मराठा पक्ष से कई महिलाओं व पुरुषों ने असामान्य शौर्य व सूझ-बूझ का परिचय देकर बताया कि मराठों का सामर्थ्य कुछ महापुरुषों में न होकर, उनके विचारों व स्थापित आदर्शों में है। यह संघर्ष भारत ही नहीं विश्व इतिहास में अद्वितीय है जिसने बताया कि सिद्धांत को समर्पित एक समाज किस तरह संघर्ष में, तिगुने सामर्थ्य के शत्रु को पराजित कर सकता है।
टिप्पणियाँ