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होली को लेकर आज भी इतना सम्मोहन क्यों है?
होली हमारी सांस्कृतिक परंपरा की देन है। सबको मिलाकर एक कर दे, ऐसी ताकत है इसमें। होली पूरे हिन्दुस्थान में मनाई जाती है और दुनिया के तमाम देशों में भी, जहां भारत के लोग रहते हैं। गायन की बात करें तो राधा-कृष्ण की होली बहुत लोग गाते हैं, जैसे वृंदावन की होली।
…और काशी की होली!
हमारी काशी में भी खूब होली मनाई जाती थी। परंपरा ऐसी थी कि महिलाएं घर में पकवान बनाती थीं, और गाना-बजाना भी चलता रहता था। पुरुष लोग सुबह से ही खूब रंग खेलते थे। और फिर शाम को शहनाई बजाते हुए पचासों की तादाद में इकट्ठे होकर दूसरे मोहल्ले में जाते थे होली मिलने। लोग अबीर लगाते थे, गले मिलते थे, हिन्दू-मुसलमान सभी। होली के रंग सबको ऐसा मिला देते थे कि हिन्दू-मुसलमान के बीच फर्क मालूम ही नहीं पड़ता था।
देखिए, काशी की हवा में ही ऐसी सुवास और मिठास है कि यहां होली, दीवाली, ईद…सभी त्योहार खूब जोश के साथ सब मिलकर मनाते थे। ईद में हिन्दू-मुसलमानों से ऐसे गले मिलते हैं जैसे सगे भाई हों। दीवाली पर मुसलमान भी अपने घरों को सजाते थे और हिन्दुओं के घर मिलने, शुभकामनाएं देने जाते थे। ऐसी सजती थी काशी कि पहचानना मुश्किल होता था कि कौन घर हिन्दू का है, कौन मुसलमान का।
शायद इसी को कहते हैं-ढंग निराला काशी का?
ये थी हमारी परंपरा। लेकिन अब कुछ ऐसी बात हो गई है कि यह सब मेलजोल, मिलकर उसी जोश-जज्बे से त्योहार मनाना कम हो गया है। कुछ तो वातावरण बदला है और कुछ लोगों के पास समय कम है, काम ज्यादा। सबको घर चलाने के लिए पैसे की जरूरत है। उसी के जुगाड़ में लोग खटते रहते हैं। फुर्सत बची ही नहीं। तो इस तरह काशी की जो होली पूरी दुनिया में मशहूर हुआ करती थी, उसमें अब बहुत कमी आ गई है।
बदलाव क्या आया है होली मनाने में?
अब बड़े लोग अपने घरों में ही होली खेलते हैं, या फिर अपने दोस्तों-रिश्तेदारों के यहां चले जाते हैं होली खेलने। लेकिन उस समय तो हलवाई, कहार, तमाम छोटे-मोटे काम-धंधों में लगे लोग भी समाज के जाने-माने, बड़े और ओहदेदार लोगों के साथ होली खेलते थे। छोटे-बड़े का कोई फर्क नहीं होता था। कौन पैसे वाला है, कौन नहीं, कौन बड़े पद पर है, कौन कम पढ़ा-लिखा, सफाई या धोबी का काम करने वाला… सब एक-दूसरे को होली के रंग में ऐसा रंगते थे कि पूछिए मत। ऐसा खुशी और जोश का माहौल होता था होली पर। तब ओहदे, जात-बिरादरी का कोई फासला नहीं था। लेकिन पिछले कई सालों से कम होते-होते अब तो होली का वैसा माहौल न के बराबर हो गया है।
समय भी अब नहीं रहा किसी के पास। क्या बच्चे, क्या बड़े। बच्चों पर भी पढ़ाई का बहुत बोझ है। हर कोई इंजीनियर, मैनेजर बनने के लिए बेचैन है। वे भी क्या करें। ढंग की नौकरी नहीं मिली तो जिंदगी कैसे काट पाएंगे आज के जमाने में। घर चलाना मुश्किल हो गया है।
काशी के संगीतज्ञों और कलाकारों की होली भी मशहूर रही है।
संगीतज्ञों की भी होली ऐसी ही होती थी। वे सबसे मिलते-जुलते थे। रंग चलता रहता था। खूब गाना-बजाना होता था। पर वे बाहर नहीं गाते थे होली। बनारस तो गलियों का ही शहर है। यहां लगभग हर गली में किसी न किसी संगीतज्ञ का घर है। वहीं वे खूब गाते थे और लोग भी उनसे मिलने आते-जाते रहते थे। क्या महफिल सजती थी। एक से एक बड़े कलाकार। आज तो आपको सिर्फ याद ही दिला सकती हूं लेकिन मेरी आंखों के आगे तो वह पूरा दृश्य खिंचा हुआ है, जब काशी में गली-गली होली गाई जाती थी।
हां, हमारी काशी में होलिका जलने के बाद से ही महिलाओं का घर से बाहर निकलना बंद हो जाता था। बाहर पुरुष लोग ही होली गाते थे, फाग खेलते थे।
आप तो भारतीय संगीत की धरोहर के तौर पर जानी जाती हैं। कजरी, चैती जैसी तमाम विधाओं में होली गायन की क्या खासियत है?
होली जो है, वह धमार को बोलते हंै- ध्रुपद धमार। धमार में होली के ही शब्द रहते हैं सब। वह लयकारी और तबले-मृदंग के साथ होती है। उसमें तिहाइयां बहुत बड़ी-बड़ी बनती हैं।
लेकिन अब होली के कई और रंग आए हैं। वृंदावन में जो लोग गाते हैं उसे डफ की होली कहते हैं क्योंकि वे उसे डफ बजाकर गाते हैं। कीर्तन में होली हो गयी है। ठुमरी होली है। चैती होली गाते हैं बनारस में। बनारस में कुछ अनूठा, अलग ही रंग होता है होली में।
होली गायन की परंपरा में बंदिशों की संरचना में कोई फर्क आया है या अब भी पुरानी बंदिशें ही प्रचलन में हैं?
नहीं। उनमें कोई बदलाव नहीं आया है। हम पुरानी रवायत ही निभा रहे हैं। उन्हीं बोलों से कुछ नयी बंदिशें बन जाती हैं। पर हां, कुछ लोगों ने बदलाव किये भी हैं। आज तो ऐसा है कि लोग जल्दी मशहूर होने, पैसा कमाने के लिए कुछ भी करने को राजी हो जाते हैं। कुछ कवियों ने नयी होली, नयी चैती वगैरह तमाम चीजें बनाई हैं और कुछ गानेवाले गा भी रहे हैं। लेकिन जो समझने वाले हैं, वे सब जानते हैं। ये एक बड़ी लम्बी और कठिन शास्त्रीय साधना है। इसे बिगाड़ना ठीक नहीं। पुरानी बंदिशों की बात ही और है। उन्हें हमारे पूर्वज गाते-बजाते रहे। लेकिन कुछ नए लोगों द्वारा आज दिन, समय का ध्यान रखे बगैर कजरी के मौसम में चैती गाई जा रही है। ये लोग होली सर्दी में मैसम में गाते हैं और कजरी बरसात आने से पहले ही गा देते हैं। अब क्या कीजिएगा! हम तो जितनी भी अच्छी साहित्यिक रचनाएं हैं वे सभी गाते-बजाते हैं। राधा-कृष्ण, शिव-पार्वती की होली का जिक्र साहित्य में ज्यादा है। जैसे- 'होली खेलो मोसे नंदलाला।' इसमें राधा और उनकी सखियां कृष्ण से होली खेलने की मनुहार कर रही हैं। 'वो तो संग लिए सारे ग्वाल बाल।' कृष्ण ग्वाल-बाल को अपने साथ लिए हैं, तब भी उन्हें बुला रही हैं। या एक और बंदिश 'तुम तो करत बरजोरी रे नंदलाल, तुमसे को खेले होली।' या 'आये अनोखे खिलाड़ी होली खेलना ना जाने।' इन बंदिशों में माधुर्य भी है, चंचलता भी और शालीनता भी।
समय के साथ क्या कुछ बदला है?
अब समय नहीं रहा किसी के पास कि फुर्सत से सुन सके। तो बस आधे घंटे में जैसे-तैसे निपटाना पड़ता है। इन विधाओं को बचाने के लिए कुछ किया जाना चाहिए।
सरकार इसमें क्या कर सकती है?
मैं हर बात के लिए सरकार पर निर्भर रहना नहीं चाहती। सब काम सरकार थोड़े ही करेगी। कुछ तो हम सबकी भी जिम्मेदारी है। संगीत के गुणी लोग और संगीतप्रेमी आगे आएं, छोटी-छोटी कमेटियां बनें, फिर उनकी एक बड़ी कमेटी हो। इस तरह से संगीत की तमाम विधाओं को, जो सैकड़ों साल से हमारी परंपरा रही हैं, बचाया जा सकता है।
ल्ल आज इसकी क्या उपयोगिता है?
आज ही तो इसकी सबसे ज्यादा उपयोगिता है। लोग जितने तनाव में हैं, निराशा में हैं, उन्हें हिन्दुस्थानी संगीत ही मिटा सकता है। परिवार खुशहाल हो सकते हैं, लोग अपना काम और अच्छे से कर सकते हैं। बीमारी कम सताएगी। सब तरफ आनंद ही आनंद होगा।
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