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.राजस्थान के भरतपुर में एक कार्यक्रम में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत ने कहा कि मदर टेरेसा की सेवा जरूर अच्छी रही होगी, मगर उनका सेवा भाव एक खास उद्देश्य से प्रेरित था। वे सेवा के बदले गरीबों, बीमारों को ईसाई बनाने का काम करती रहीं। यहां सवाल सिर्फ मत बदलने का नहीं है,लेकिन यह कन्वर्जन सेवा के नाम पर किया जाता है, तो इससे सेवा का मूल्य ही समाप्त हो जाता है। सरसंघचालक का यह कहना यों ही नहीं है, बल्कि इसके कुछ मायने नजर आते हैं। इससे पहले कि हम मदर टेरेसा के सेवाकर्म पर चर्चा करें, एक बार उनके जीवन के इतिहास पर नजर डाल लेते हैं। मदर टेरेसा का जन्म यूरोप के मैसेडोनिया में 1910 में हुआ था। कम उम्र में टेरेसा का नाम एंन्जेज हुआ करता था। कुछ समय बाद वे रोमन कैथोलिक संगठन की सक्रिय सदस्या एवं प्रचारक बन गई थीं। तमाम किताबों एवं दस्तावेजों के हवाले से यह जानकारी निकलकर सामने आती है कि वर्ष 1925 में यूगोस्लाविया का एक ईसाई मिशनरी सेवा दल भारत में सेवा कायोंर् के नाम पर आया था। हालांकि ये बात किसी से छुपी नहीं है कि इन मिशनरियों की सेवा का उद्देश्य सेवाकर्म तक सीमित न होकर ईसाइयत का प्रचार करना ही रहा है। भारत आये उस सेवा दल ने अपने देश को पत्र लिखकर बड़ी आर्थिक मदद की मांग की। ईसाई मिशनरियों के पत्र के बाद वहां के कैथोलिक चर्च से जुड़ी संस्थाओं ने तब तक तैयार हो चुकीं एंन्जेज को ईसाई मिशनरी सेवा दल की मदद के लिए भारत भेज दिया। वर्ष 1929 में एंन्जेज (टेरेसा) भारत आईं और ईसाई पंथ के अनुसार दार्जिलिंग में दो वर्षीय प्रशिक्षण प्राप्त किया। इस प्रकार भारत में ईसाई पंथ के कायोंर् के लिए उनको स्वीकार भी कर लिया गया। ईसाई पंथ के अनुकूल सेवा प्रशिक्षण प्राप्त करने के बाद उनका नामकरण 'सेंट टेरेसा' के रूप में हुआ। इस प्रशिक्षण के बाद एंन्जेज से 'सेंट टेरेसा' बनकर प्रशिक्षण के अनुरूप मुहिम पर आगे बढ़ चलीं। बाद में वे स्वयं ही अपना नाम 'मदर टेरेसा' बताने लगीं। मदर टेरेसा बन चुकी एंन्जेज ने अपने सेवाकर्म को चलाने के लिए 'मिशनरीज ऑफ चैरिटी' नाम से एक संस्था स्थापित की, जिसे 1950 में वेटिकन से मान्यता भी प्राप्त हो गयी। वेटिकन से मान्यता मिलने के बाद मदर टेरेसा की संस्था में लगातार विस्तार होता गया और लोग जुड़ते गए। धीरे-धीरे टेरेसा के साथ जुड़ने वाले लोगों में बहुतायत ईसाई पंथ स्वीकार करते गए। वैसे भी मदर टेरेसा के साथ यूरोप से ईसाई ज्यादा संख्या में नहीं आये थे, लेकिन यहां पर उनकी संस्था में ईसाइयों का वर्चस्व रहा। अब इन्हीं सभी चीजों को ध्यान में रखकर सवाल उठता कि कहीं ये ईसाई क्या 'कन्वर्टेड' हिन्दुस्थानी तो नही थे ?
मदर टेरेसा का इतिहास जानने के बाद इस निष्कर्ष पर पहुंचा जा सकता है कि एक ईसाई मिशनरी संस्था को विदेशी कैथोलिक चर्च के सहयोग से संचालित करने एवं सेवा के बदले कन्वर्जन कराने की जो बात आज मदर टेरेसा के लिए कही जा रही है, वह गलत नहीं है। आखिर यूरोप की एंन्जेज (मदर टेरेसा) की भारत के गरीबों में क्या रुचि थी? क्या यूरोप में गरीबी अथवा बीमारी नहीं थी जो उन्हें यहां पर सेवाकर्म करने के लिए आगे आना पड़ा? चूंकि मदर टेरेसा के समर्थन में कहा जाता है कि उनकी सेवा का ज्यादातर समय कुष्ठ रोगियों के बीच गुजरा है। ये एक आधी बात है,जो केवल मदर टेरेसा को जबरन महान बनाने की कोशिश भर है। कुष्ठ रोगियों के बीच अगर नि:स्वार्थ निरुद्देश्य सेवाकर्म का उदाहरण रखना है तो हमारा ये प्रगतिशील समाज डॉ. मुरलीधर देवीदास आम्टे यानी बाबा आम्टे को क्यों भुला देता है? मदर टेरेसा और बाबा आम्टे का जन्म कमोबेश एक ही कालखंड में हुआ था। बाबा आम्टे पेशे से वकील थे। वे महात्मा गांधी के साथ भी रहे। बेहद संपन्न परिवार से होने के बावजूद बाबा आम्टे का सेवा भाव उन्हें जंगलों में वनवासियों के बीच ले गया और वे कुष्ठ रोगियों की सेवा के प्रति खुद को समर्पित करने की दिशा में आगे बढ़ते गये। बाबा आम्टे ने इस सेवा समर्पण में न सिर्फ स्वयं को बल्कि अपनी पत्नी और बच्चों को भी लगा दिया। वे अपनी पत्नी और दो बच्चों के साथ मिलकर वरोरा के पास स्थित जंगल में कुष्ठ रोगियों की सेवा के लिए 'आनंदवन' आश्रम की स्थापना कर रोगियों की सेवा में लग गये। इस सेवा के लिए आम्टे ने आनंदवन के अलावा भी कई अन्य आश्रमों की स्थापना की, जहां आज भी हजारों कुष्ठ रोगियों की सेवा होती है।
यहां बाबा आम्टे का जिक्र इस लिहाज से जरूरी था क्योंकि बाबा आम्टे के सेवाकर्म और मदर टेरेसा के सेवाकर्म में एक बड़ा और बुनियादी फर्क है। उसी फर्क की तरफ श्री मोहनराव भागवत ने अपने भरतपुर में दिए भाषण में इशारा किया है। चूंकि सेवाकर्म एक ऐसा कर्म है,जिसमंे सिवाय सेवा के कोई और उद्देश्य नहीं होना चाहिए। सेवा के मूल्यों की जब हम बात करते हैं तो स्वार्थ और हितों का ख्याल वर्जित होता है। लेकिन जिस पृष्ठभूमि से भारत आकर एग्नेशा से मदर टेरेसा बनी हैं, वह एक संदिग्ध पृष्ठभूमि है। इस संदेह को भला क्यों खारिज किया जाए कि ईसाइयत के प्रचार-प्रसार और भारत में कन्वर्जन के लिए मदर टेरेसा द्वारा सेवाकर्म को एक उपकरण के तौर पर इस्तेमाल किया गया है। किसी की सेवा करने के एवज में अगर उसका कन्वर्जन किया गया हो, तो उस सेवा का भाव मर जाता है और वह सेवा, सेवा नहीं बल्कि एक षड्यंत्रपूर्ण अपराध हो जाता है। भारत में वेटिकन सहयोग से जो सेवाकर्म मदर टेरेसा द्वारा स्थापित संस्थाओं के माध्यम से आज भी संचालित हैं, उनकी पृष्ठभूमि एवं उनकी आस्था की पड़ताल अवश्य होनी चाहिए। एक खास एजेंडे और षड्यंत्रपूर्ण तरीके या कथित सेवा की आड़ में मदर टेरेसा भारतरत्न हासिल कर लेती हैं, लेकिन वहीं काम या यूं कहें उनसे कई गुना बढ़कर अपने समाज के लिए सबकुछ भुलाकर जो व्यक्ति कार्य करता है उसके सेवा कार्यों पर पुरस्कार तो दूर की बात उसे लगभग भुला ही दिया जाता है। दरअसल मदर टेरेसा के बारे में किताबों में उनके विषय में जो पढ़ाया गया या आज भी पढ़ाया जा रहा है वह एक आधी-अधूरी जानकारी है।
पूरी जानकारी ये नहीं है कि वे एक समाजसेवी महिला थीं। उनके बारे में पूरी जानकारी ये है कि वे एक ईसाई महिला थीं, जो वाकायदा एक षड्यंत्रपूर्ण तरीके से भारत में हिन्दुओं को कन्वर्ट करने के लिए भेजी गई थीं। बाबा आम्टे और मदर टेरेसा के संदर्भ में ये कहना उचित होगा कि मदर टेरेसा का उद्देश्य पंथ-प्रचार करना था और इसके लिए उन्होंने इस काम के लिए कुष्ठ रोगियों की कथित सेवा के माध्यम को चुना। वहीं बाबा आम्टे का उद्देश्य कुष्ठ रोगियों की सेवा करना था और इसके लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर किया।
मदर टेरेसा को भारतरत्न मिला, जबकि बाबा आम्टे को हम याद भी न रख पाए। एक की निष्ठा सेवा में थी, तो दूसरे की निष्ठा सेवा की राह पर चलकर ईसाइयत के प्रसार को बढ़ाने की थी। यहां गौर करना उचित है कि भारतरत्न मिलने के दो वर्ष पहले जब 1978 में जनता दल के सांसद ओमप्रकाश पुरुषार्थी संसद में विधेयक लाकर कन्वर्जन पर रोक लगाने की मांग कर रहे थे, तब यही मदर टेरेसा उस विधेयक का जमकर विरोध कर रहीं थीं। अगर वाकई मदर टेरेसा का उद्देश्य सेवा करना ही था तो उन्हें उस कन्वर्जन विरोधी कानून से भला क्यों दिक्कत महसूस हुई थी? कन्वर्जन के खिलाफ कानून की जब-जब बात हुई है,तब-तब उन्हीं लोगों को दिक्कत हुई है, जो कथित सेवा कायोंर् की आड़ में इस घृणित काम को अंजाम दे रहे होते हैं। मदर टेरेसा की सेवा का सच भी इससे इतर नहीं है।
भारतभूमि की सेवा व संस्कृति अद्वितीय है, जहां सेवा का भाव किसी भी किस्म के उद्देश्य से इतर रहा है। गोस्वामी तुलसीदास जी सैकड़ों साल पहले ही रामचरितमानस में लिखते हैं,'सब ते सेवक धरम कठोरा'। भारत की सेवाकर्म की संपदा इतनी समृद्ध है कि इसे किसी कैथोलिक चर्च के प्रशिक्षित शिक्षक की सेवा से सीखने और प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं है। जब मदर टेरेसा भारत में फल-फूल रही थीं तब सही मायनों में ईसाइयत फल-फूल रही थी। यह एक कड़वी सचाई है जिसे हमारे देश ने भारत का रत्न घोषित कर दिया वह भारत की मूल सांस्कृतिक प्रणाली पर सेवा का मरहम लगाने की बजाए मिर्च की मालिश कर रही थीं। सेवा की शर्त पर देश में कन्वर्जन की जो जड़ मदर टेरेसा ने रखी, वह अब पेड़ बन चुका है। उसकी शाखाएं देश के कोने-कोने में विस्तार कर चुकी हैं। अकादमिक रूप से इन सेवाकमार्ें के आधे-अधूरे पाठों को कुछ यूं पढ़ा दिया गया है, कि सचमुच आम्टे छोटे नजर आने लगें और मदर टेरेसा बड़ी नजर आने लगीं। आज अगर यह विमर्श उठा है तो इस विमर्श की जड़ तक जाने की जरूरत है।
शिवानन्द द्विवेदी
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