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होली माने मस्ती, हुड़दंग और रंग में सराबोर सब संग-संग। ब्रज के इस प्रमुख त्योहार की तरंग आज भारत ही नहीं दुनिया के कोने-कोने तक पहंुच चुकी है। राधा-कृष्ण के बीच फाग के आनंद ने आज वैश्विक रूप ले लिया है। बरसाने की गोपियों और नंदगांव के रसियाओं के बीच अबीर-गुलाल की धमाचौकड़ी के साथ एकाकार होने को आतुर होली के रसिक देश-दुनिया से जब बरसाने की रंगीली गली में इकट्ठे होते हैं तो समां देखते ही बनता है। वृन्दावन की कुंज गलियों, मथुरा के घाटों और गोवर्धन की दान घाटी से ग्रीस, रोम और अमरीका, दुबई तक गुलाल की फागुनी महक सबको अपने अंक में समेट लेती है। उत्सव को मनाने के तरीके भले अलग हों, सुविधा के अनुसार आयोजन होते हों, पर सबके पीछे आनंद और उमंग का भाव एक सा रहता है।
प्रस्तुत है देश-विदेश में होली की ठिठोली और विशेष पकवानों के स्वाद में गुंथा पाञ्चजन्य का यह विशेष आयोजन।
प्रस्तुति – अजय विद्युत/ प्रशांत वाजपेई
प्रेम-रंग में रंगी दुनिया
म्यूनिख के एक चहल-पहल भरे पिकनिक स्थल पर सैकड़ों युवाओं का जमघट है। गुलाल लगे रंग बिरंगे चेहरे सब तरफ हैं। प्राकृतिक विधि से बनाए गए रंग एक दूसरे पर उड़ेले जा रहे हैं। खाने-पीने के स्टॉल लगे हैं। शराब और नशीले पदार्थ यहां प्रतिबंधित हैं। होली का उत्सव मनाती इस भीड़ में इक्का-दुक्का भारतीय भी हैं। शेष सब जर्मन हैं, कुछ यूरोप और दुनिया के दूसरे भागों से आए पर्यटक भी हैं। 21 वर्षीय फ्रीडा म्यूनिख से है। वह खुशी से चहकते हुए कह रही है -'ये सब सुंदर है, बहुत सुंदर है। मैं ऐसी ही जिंदगी की कल्पना करती हूं जहां सब कुछ रंगीन है। यह ऐसा पल है जिसके बारे में मैं अपने पोते-पोतियों को बताऊंगी। ये मेरे जीवन का शिखर है। ये भव्य है और शांत है। ये रोमांच पैदा करता है।' उसकी साथी मार्ला बोल पड़ती है 'जिस क्षण सैकड़ों लोगों ने एक साथ रंग उछाले वह बहुत ही अद्भुत था। एक पल के लिए सब कुछ रंगीन हो गया। उसके बाद कुछ भी देखना असंभव था हर कोई खुश था और नाच
रहा था।'
वॉल स्ट्रीट जरनल लिखता है 'बसंत में मनाया जाने वाला भारत का त्योहार होली यूरोप तक पहुंचा और यहां के जीवन में ढल गया। ये अलग बात है कि ये बसंत नहीं पतझड़ का समय है।' वास्तव में होली सारी धरती को स्पर्श कर चुकी है। यूरोप, कनाड़ा, अमरीका, ब्राजील या ऑस्ट्रेलिया कहीं भी जाएं, होली सब जगह मन रही है। इसका समय जरूर संबंधित देशों के मौसम के हिसाब से स्थान-स्थान पर बदलता जाता है। भारत में शीत के बाद जब हिमालय की बर्फ पिघलने लगती है और बसंती पवन बहने लगती है, तब होली आती है। परंतु विविधताओं से भरी इस धरती में बसंत सब जगह एक साथ नहीं आता। निरंतर परिवर्तनशील इस सृष्टि में मौसम अपने-अपने रंग लिए सारी पृथ्वी पर मानो धीरे-धीरे सरकते रहते हैं। प्रकृति बारह महीने होली खेलती है। मानव समूह प्रकृति जितना मुक्त नहीं है, उसे उचित समय की प्रतीक्षा करनी पड़ती है। पृथ्वी के उत्तरी गोलार्द्ध में नवंबर-दिसंबर में जाड़ा शुरू होता है। उसी के अनुसार जाड़े और ग्रीष्म की संधि पर बसंत आता है। हम उत्तरी गोलार्द्धवासी हैं। चूंकि पृथ्वी अपने अक्ष पर थोड़ा झुकी हुई है इसलिए दक्षिणी गोलार्द्धवासियों जैसे ब्राजील, अर्जेंटीना और ऑस्ट्रेलिया आदि में जाड़ा जून में आता है। इसलिए जब वहां होली मनती है तो वह प्राय: सितंबर का माह होता है। जब हम शीत में ठिठुर रहे थे तब ऑस्ट्रेलिया की धरती तप रही थी। इतनी विभिन्नताएं भी हिंदू संस्कृति के विस्तार को रोक नहीं सकीं। ये रंग सब ओर फैल रहा है गूगल पर जाइये और सर्च कीजिए, आपको सिडनी से लेकर साओ पाउलो तक तथा न्यूयॉर्क से लेकर बर्लिन तक मनाए जाने वाले अथवा मनाए गए होली के उत्सवों की जानकारी मिल जाएगी।
ये कुछ ऐसा है जिसे टाला नहीं जा सकता था। पश्चिम में होली का पहुंचना तय था। भारत में जब ये परंपराएं विकसित हुई तब भारत समृद्धि के शिखर पर था। जीवन को संपूर्णता से स्वीकार करने वाली जीवनशैली थी। प्रकृति से एकरस हुआ समाज था। ऐसे में होली तो मनाई ही जानी थी। जीवन के उल्लास का रंगों और हुडदंगों के रूप में प्रकट होना एक सहज स्वाभाविक बात थी। इन परंपराओं ने हमारे समाज को कभी हताश नहीं होने दिया। काल का पहिया घूमता गया। आज पश्चिम समृद्धि के शिखर पर है। पिछले एक हजार साल उसकी मानसिक यंत्रणाओं और संघर्षों का समय रहा है। विज्ञान और तर्क का युग उन्हें धीरे-धीरे जीवन के नकार से निकाल कर स्वीकार की ओर ले आया है। अब वे प्रकृति को शैतान मानने को तैयार नहीं हैं। अब वहां होली का प्रवेश रोका नहीं जा सकता। जीवन का एक नियम है। स्थूल आवश्यकताओं की पूर्ति से सूक्ष्म आवश्यक्ताएं पैदा होती हैं। पशु की देह की आवश्यक्ताएं पूर्ण हो जाने पर वह संतृप्त हो जाता है। मानव चेतना के अगले पायदान पर है और इसीलिए जब मानव के तन की आवश्यकताएं पूरी हो जाती हैं तो उसका विचार और भाव जगत उद्वेलित होने लगता है। पश्चिम इसी संक्रमण अवस्था में है और इसी लिए प्राचीन हिन्दू संस्कृति के रंग उसके जीवन में प्रवेश कर रहे हैं। यह जीवन का संतुलन है। यह संतुलन भारत में बिगड़ा या। उसे ही समझाते हुए स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि भारत में धर्म बहुत है, भारत की प्रधान आवश्यकता है रोटी। इसीलिए युवाओं से वे कहते थे कि गीतापाठ के स्थान पर फुटबॉल का मैदान तुम्हें ईश्वर के अधिक निकट ले जाएगा। विवेकानंद का आशय यही था कि व्यक्ति जब भी अपने पूरे मन से रमता है तो वहीं ईश्वर के दर्शन और साक्षात्कार कर सकता है। सब खेल ही है। दुनिया भी, रंग भी। ईश्वर रस में, प्रसन्नता में, खुशी में, रंगों में और उमंगों में बसता है। रंग उमंग पैदा करते हैं जो कि पृथ्वी पर मनुष्य के लिए प्राणवायु जितना ही जरूरी है। आइए, जब सारी दुनिया प्रेम के रंगों में रंगने को तैयार है, तब आप क्यों घर के भीतर रहें। अरे, भई यार निकल घर से… ईश्वर ही इन रंगों में अभिव्यक्त हो
रहा है।
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