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उधर चार पांच दिनों से उनसे भेंट नहीं हुई थी। उस दिन भी वे मिले थे पर सुबह की सैर के लिए रोज की तरह साथ नहीं आये। मैंने पूछा 'क्या दिल्ली के चुनाव में मोदी जी के लिए प्रचार कार्य में व्यस्त हो गए हैं' तो बोले 'अरे अब प्रचार करने के लिए बचा ही क्या है। मोदी की सुनामी ने सारे देश को झकझोर कर रख दिया है। दिल्ली देश का दिल है और इसे वह पहले ही से जीते बैठे हैं तभी तो देश पर राज कर रहे हैं। और अब तो सोने में सुहागा मिल गया है। केंद्र में समर्पित मंत्रियों की जरुरत को उन्होंने दिल्ली से डॉक्टर हर्षवर्धन, सुषमा स्वराज और स्मृति ईरानी जैसे योग्य व्यक्तियों को लेकर पूरा किया। अब दिल्ली को जरूरत थी एक कुशल प्रशासक की। भाजपा सरकार के आने पर आआपा वाले फिर से धरना प्रदर्शन की राजनीति में जुटेंगे। उन्हें संभालने के लिए किरण बेदी जैसी मजबूत प्रशासक की ही जरूरत थी। उन्हें तिहाड़ जेल में एक से बढ़कर एक दबंगों को फिट करने का अनुभव है। एक क्रेन तो वे केवल इस कार्य पर लगा देंगी कि जंतर-मंतर जैसी धरने प्रदर्शन वाली जगहों से उस बदनाम नीली वैगन-आर को दूर रखें। अब देखना सुशासन और प्रशासन मिलकर क्या रंग लाते हैं।'
मैंने कहा छोडि़ये, जब आप को चुनाव प्रचार में नहीं लगना है तो आइये हमारे साथ सैर पर चलिए़' बोले ' नहीं भाई, बड़े दिनों से एक मोदी जैकेट सिलवाने की सोच रहा था। अब उसे और टाल नहीं सकता। किरण बेदी के शपथग्रहण समारोह पर वही पहनकर जाऊंगा। कहते-कहते उनके हाथ खुद ब खुद उठकर उनकी दाढ़ी पर फिरने लगे। दाढ़ी भी उन्होंने हाल में ही उगाई थी। जीवन भर तो उन्हें 'क्लीनशेव' ही देखा था पर नरेंद्र मोदी की प्रतिछाया बनने के लिए अब दाढ़ी बढ़ाना आवश्यक हो गया था। सीना भी उनका कुल अड़तीस इंच का ही है। क्या पता उसे छप्पन इंच का करने के लिए किसी अखाड़े या जिम में भी जाने लगे हों। बहरहाल वे अपनी धुन में मस्त रहे और हम सैर पर उनके बिना ही चले गए।
आज पूरे पांच दिनों के बाद वे सुबह सैर पर हमारा साथ पाने के लिए अपने घर के सामने मुस्तैद खड़े थे पर बहुत पास आकर ही हम उन्हें पहचान पाए। गले से सर तक मफलर ऐसे लपेट रखा था उनकी शक्ल ही नहीं दिख रही थी। पास आये तो हमने कहा 'अब तो सर्दी लगभग चली गई है तो फिर ये मफलर क्यूं लपेट रखा है?' तो उन्होंने मफलर चेहरे से हटा दिया। पर ये क्या। पिछले कई महीनों से जो दाढ़ी उनके चेहरे की रौनकबढ़ा रही थी वह गायब थी। स्वाभाविक था कि हमारा अगला सवाल उसी के बारे में होता। पर उन्होंने पहले ही सफाई दे डाली। बोले 'भाई इस कदर बुराई सुन रहा हूं उनकी वेशभूषा की कि अब मैं किसी कोण से उनके जैसा नहीं दिखना चाहता।' ये भी एक आश्चर्य की बात थी। कुछ दिन पहले ही राष्ट्रपति ओबामा की अगवानी में प्रधानमंत्री जिन परिधानों में दिखाई पड़े थे उसकी ये सज्जन प्रशंसा करते नहीं अघाते थे। कहते थे बाजारवादी अमरीकियों को प्रभावित करने के लिए जरूरी है कि आदमी हमेशा चुस्त-दुरुस्त मनभावन वस्त्रों में दिखाई पड़े। राष्ट्रपति ओबामा के काले स्लेटी रंग के परिधान की एकरसता से अमरीकी नागरिक भी ऊब गए होंगे।' मैंने पूछ लिया पर आप को तो मोदी जी का वेश-विन्यास बहुत पसंद था। अब तक आपकी मोदी जैकेट भी तैयार हो गयी होगी।' बोले 'भले की याद दिलाई तुमने,आज दर्जी के यहां से उसे लेना था। अब सोचता हूं। उसे वहीं पड़ा रहने दूं। कम से कम सिलाई के पैसे तो बेकार नहीं जायेंगे। भले मुफ्त में किसी प्रशंसक से मिला हो, लाखों रुपयों का सूट बदलता है रंग आसमां कैसे कैसे सबकी नजरों में गड़ता है। फिर क्या फायदा
महंगे कपड़े पहनने से।
मेरी जिज्ञासा और बढ़ गयी। पूछा 'आप सिर्फ वेश- भूषा, शकल सूरत से मोदी जी से अलग हो रहे हैं या उनकी विचारधारा और योजनाओं से भी दूर हो गए हैं। बोले 'भाई, जहां किरण बेदी की पूछ हो वहंा मेरी क्या जरूरत। मैं तो कब से कह रहा हंू दिल्ली डंडा चलाने वाले पुलिसकर्मियों को नहीं विनम्र लोगों को चाहती है। पर मेरी किसी ने न सुनी। पर सच पूछो तो अभी दुविधा में हूं। बड़े-बड़े 'इल्मी' भी जल्दबाजी करने से नुकसान उठा जाते हैं। राजनीति में तुरत निर्णय लेना और कोई निर्णय जल्दी न लेना दोनों ही उचित होते हैं। बस वक्त-वक्त की बात होती है। तुम्हारे सवाल का जवाब तुरंत देना ठीक नहीं होगा। जरा देख लूं बिहार में ऊंट किस करवट बैठता है। स्थिति स्पष्ट होने दो फिर बताता हूं मेरे क्या विचार हैं।' -अरुणेन्द्र नाथ वर्मा
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