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बंगालियों पर उर्दू थोपने सेबंटा था पाकिस्तान

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Feb 21, 2015, 12:00 am IST
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दिंनाक: 21 Feb 2015 15:22:58

अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) पर विशेष

पद्मा नदी से 1952 से लेकर अब तक बहुत सा पानी बह चुका है, पर आज भी अपनी मातृभाषा को चाहने वाले उन बलिदानियों का तज्ञता भाव से स्मरण करते हैं, जिन्होंने अपनी मातृभाषा को उसका सही हक दिलवाने के लिए प्राणोत्सर्ग किया था। 21 फरवरी,1952 के दिन पूर्वी पाकिस्तान( अब बंगलादेश) में बंगला भाषियों पर उर्दू थोपने के विरोध में आंदोलनरत छात्रों पर अकारण की गई पाकिस्तानी पुलिस की अंधाधुंध गोलीबारी में दर्जनों छात्रों की जानें चली गई थीं। यह घटना बार-बार याद दिलाती है कि किसी खास समुदाय पर किसी अन्य भाषा को थोपने के कितने गम्भीर परिणाम निकल सकते हैं। छात्रों पर गोलीबारी की उस घटना ने इस्लाम के नाम पर बने देश पाकिस्तान को दो फाड़ करने के रास्ते की नींव रखी।
हमारे अपने देश में भाषा को लेकर कई आंदोलन चल चुके हैं। निर्विवाद रूप से भाषा बेहद भावनात्मक मुद्दा है, जिसे किसी व्यक्ति से लेकर सरकार को विवाद की स्थिति में बहुत सोच-समझकर सुलझाना चाहिए। कहने की जरूरत नहीं है कि भाषा का सम्बंध जाति, धर्म या पद से नहीं है। पूर्व में देखा गया है कि राजनीतिक कारणों के चलते जब भी इस विषय के साथ खिलवाड़ हुआ तो हालात बद से बदतर हो गए। हो सकता है कि वर्तमान में स्कूल-ॉलेजों में पढ़ने वाली पीढ़ी को मालूम न हो कि खालिस्तान आंदोलन के मूल में भी कहीं न कहीं भाषा का ही सवाल था।
दरअसल पंजाब के हिन्दू संगठनों के आह्वान के चलते वहां के हिन्दुओं ने 1951 तथा 1961 की जनगणना में अपनी मातृभाषा पंजाबी के स्थान पर हिन्दी बताई थी। जाहिर तौर पर जो बिल्कुल गलत था। इसके चलते पंजाब के हिन्दुओं और सिखों के बीच दूरियां बढ़ीं जिसकी परिणति पंजाब में 80 और 90 के दशक में चले खूनी खालिस्तान आंदोलन के दौरान देश ने देखी। पंजाबी सूबे की मांग खारिज होने के चलते पंजाब में हिन्दुओं तथा सिखों के बीच गहरी खाई हो गई। आगे चलकर जो कुछ प्रदेश में हुआ वह खून और आंसुओं से लिखा है।
उधर असम में 80 के दशक में बंगलादेशियों की प्रदेश में घुसपैठ के विरोध में चले लंबे आंदोलन के पीछे भी आंदोलनकारियों की एक चिंता यह थी कि उनके प्रदेश में बाहरी तत्व इतने बढ़ जाएंगे कि उनकी मिट्टी की भाषा के सामने विलुप्त होने का खतरा पैदा हो जाएगा।
दुर्भाग्यवश तत्कालीन प्रधानमंत्री डॉ़ मनमोहन सिंह की बंगलादेश की यात्रा के दौरान उनके कार्यक्रम में शहीद मीनार के लिए जगह नहीं रखी गई। काश, वे शहीद मीनार जाते तो अच्छा होता। यह मीनार याद दिलाती है उन मातृभाषा के चाहने वालों की जिन पर 21 फरवरी,1952 को पाकिस्तान की पुलिस ने अंधाधुंध गोलियां चलाई थीं। उस गोलीबारी में ढाका विश्वविद्यालय के दर्जनों छात्र शहीद हो गए थे।
उसी मातृभाषा के प्रति श्रद्धा, प्रेम और प्राणों की आहुति देने के जज्बे को 21 फरवरी को 62 वर्ष पूरे हो रहे हैं। इस दिन को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस के रूप में सारी दुनिया मनाती है। दरअसल बंगला बनाम उर्दू के बीच के संघर्ष का चरम था 21 फरवरी, 1952 का मनहूस दिन। ढाका विश्वविद्यालय परिसर के ठीक बाहर बड़ी संख्या में छात्र प्रदर्शन करने के लिए एकत्र हुए थे। उसी दौरान न जाने क्यों,हथियारों से लैस सुरक्षाकर्मियों ने उन निहत्थे छात्रों पर गोलियां बरसानी चालू कर दीं, जिसमें दर्जनों छात्रों की मौत हो गई। इस नृशंस सामूहिक हत्याकांड से दुनिया सन्न रह गई, पर पाकिस्तानी सरकार ने किसी तरह के अपराधबोध का प्रदर्शन नहीं किया। अपनी मातृभाषा को लेकर इस तरह के प्रेम और जज्बे की दूसरी मिसाल मिलना मुश्किल है। बंगलाभाषा के चाहने वालों में मारे गए छात्रों की स्मृति में घटनास्थल पर स्मारक बनाया तो उसे ध्वस्त कर दिया गया। इस घटना के बाद पाकिस्तान के शासक पूर्वी पाकिस्तान से हर स्तर पर भेदभाव करने लगे। उसकी जब प्रतिक्रिया हुई तो जिन्ना और मुस्लिम लीग की टू नेशन थ्योरी धूल में मिल गई।
हालांकि पूर्वी पाकिस्तान (अब बंगलादेश) और देश के शेष भागों की आबादी लगभग समान थी, पर पाकिस्तान के शासकों ने पूर्वी पाकिस्तान के साथ हर स्तर पर भेदभाव करना शुरू कर दिया था। इस भेदभाव का चरम तब सामने आया जब मोहम्मद अली जिन्ना ने अपने ढाका दौरे के दौरान बार-बार घोषणा की कि नए देश की राष्ट्रभाषा उर्दू होगी। जिन्ना 19 मार्च,1948 को ढाका पहुंचे, उनका वहां पर गर्मजोशी के साथ स्वागत हुआ। पूर्वी पाकिस्तान के अवाम को उम्मीद थी कि वे उनके और उनके क्षेत्र के हक में कुछ अहम घोषणाएं करेंगे। जिन्ना ने 21 मार्च को ढाका के खचाखच भरे रेसकोर्स मैदान में एक सार्वजनिक सभा को संबोधित किया। वहां पर पाकिस्तान के गवर्नर जनरल जिन्ना ने घोषणा कर दी कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा उर्दू ही रहेगी। उन्होंने अपने चिर-परिचित आदेशात्मक स्वर में कहा कि ' सिर्फ उर्दू ही पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा रहेगी। जो इससे अलग तरीक से सोचते हैं, वे मुसलमानों के लिए बने देश के शत्रु हैं।' पाकिस्तान के पूर्वी हिस्से में उर्दू को थोपे जाने का विरोध हो ही रहा था, इस घोषणा के कारण जनता में निराशा और गुस्से की लहर दौड़ गई। वे जिनकी मातृभाषा बंगला थी, ठगा सा महसूस करने लगे और असहाय थे। जाहिर तौर पर उन्होंने अलग मुस्लिम राष्ट्र का हिस्सा बनने का तो फैसला किया था, पर वे अपनी बंगला संस्कृति और भाषा से दूर जाने के लिए भी किसी भी कीमत पर तैयार नहीं थे।
जिन्ना ने देश की राष्ट्रभाषा को लेकर जिस प्रकार की राय जाहिर की थी, उन्होंने ठीक वही राय अगले दिन यानी 22 मार्च,1948 को भी ढाका विश्वविद्यालय में हुए एक समारोह में जाहिर की। महत्वपूर्ण यह है कि जिन्ना की घोषणाओं का तीखा विरोध उनकी मौजदूगी में हुआ। उन्होंने अपने जीवनकाल में कभी इस तरह की कल्पना नहीं की होगी। और ढाका से जाते-जाते उन्होंने अपने एक रेडियो साक्षात्कार में 28 मार्च,1948 को फिर कहा कि पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा तो उर्दू ही होगी और रहेगी। इस विषय पर किसी भी तरह की बहस या संवाद की कोई जगह नहीं है। पाकिस्तान के हुक्मरानों के गैर-बंगलाभाषियों पर उर्दू को थोपने का विरोध हो ही रहा था, उस पर आग में घी डालने का काम जिन्ना ने कर दिया। जिन्ना के ढाका से कराची के लिए रवाना होने के फौरन बाद से पूर्वी पाकिस्तान में उर्दू को थोपने की कथित कोशिशों के विरोध में प्रदर्शन होने लगे। आहत बंगलाभाषियों को राहत देने के इरादे से एक प्रस्ताव यह आया कि वे चाहें तो बांग्ला को अरबी लिपि में लिख सकते हंै। जैसे कि उम्मीद थी, इस प्रस्ताव को स्वाभिमानी बांग्ला भाषियों ने एक सिरे से खारिज कर दिया।
पाकिस्तान और उसके लिए संघर्ष करने वाली मुस्लिम लीग के इतिहास के खंगालने पर साफ हो जाएगा कि पार्टी के भीतर प्रस्तावित इस्लामिक राष्ट्र में भाषा के मसले पर खींचतान शुरू हो गई थी मुस्लिम लीग के लखनऊ में 1937 में हुए सम्मेलन में। तब पार्टी के बंगलाभाषी सदस्यों ने अलग मुस्लिम राष्ट्र में गैर-उर्दू भाषियों पर उर्दू थोपे जाने की किसी भी चेष्टा का विरोध किया था। पर जाहिर तौर पर किसी ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि भाषा को थोपना पाकिस्तान के दो फाड़ का अंत: बड़ा कारण बनेगा। बंगलाभाषियों के अपनी मातृभाषा से प्रेम और उसके लिए किसी भी प्रकार की कुर्बानी देने के जज्बे को सम्मान देते हुए संयुक्त राष्ट्र ने नवंबर 1999 में दुनिया की उन भाषाओं के संरक्षण और संवर्धन की ओर दुनिया का ध्यान आकर्षित करने के लिए साल 2000 से प्रति वर्ष 21 फरवरी को अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का निश्चय किया जो कहीं न कहीं संकट में हैं। जाहिर है, यह ढाका विश्वविद्यालय के बाहर मारे गए शहीदों को विनम्र नमन है।
किसी भी राष्ट्र या समाज के लिए अपनी मातृभाषा अपनी पहचान की तरह होती है। इसे बचाकर रखना बेहद आवश्यक होता है। अगर हम भारत की बात करें तो यहां हर कुछ कदम पर हमें बोलियां बदलती नजर आएंगी। हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा जरूर है, लेकिन इसके साथ ही हर क्षेत्र की अपनी कुछ भाषा भी है जिसे बचाकर रखना बेहद जरूरी है। इस लिहाज से 21 फरवरी का दिन अपने आप में विशेष महत्व रखता है और यह भी याद दिलाता है कि किसी वर्ग या समूह पर किसी भाषा को थोपे जाने के कितने भयावह परिणाम सामने आ सकते हैं।  -पाञ्चजन्य ब्यूरो

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