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प्रसिद्घ सामाजिक-बौद्घिक एक्टिविस्ट नंदिता हक्सर ने फ्रांसीसी अखबार 'शार्ली एब्दो' के बारह पत्रकारों को इस्लामी हमलावरों द्वारा मार डालने को सही ठहराया है। इधर प्रकाशित उनके लेख के अनुसार, 'इसके अलावा और कोई चारा नहीं बचा था।' हम नहीं जानते कि भारत में कितने बुद्घिजीवी इससे सहमत हैं, किन्तु इसकी भर्त्सना भी करने में अधिकांश की रुचि नहीं है। अस्तु।
नंदिता की बात से दो निष्कर्ष निकलते हैं। पहला, वे इस्लाम के पक्ष में हिंसा, हत्या को सहज मान्यता देती हैं। दूसरा, इस्लाम वैचारिक रूप से इतनी दिवालिया विचारधारा है कि उसके पास शब्दों, रेखाचित्रों, विचारों, आदि किसी भी चीज का उत्तर नहीं है। उसके पास अपने अंधविश्वासों के पक्ष में उन अंधविश्वासों को न मानने वालों को मार डालने और इस प्रकार शेष दुनिया को धमकाने, डराने के सिवा कोई उपाय नहीं है। यह आरंभ से ही इस्लाम का दिवालियापन है, कोई नई कमजोरी नहीं, इस पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए।
भारतीय समाज की समझ नंदिता जैसी नहीं है। न ही होनी चाहिए। इसी में हमारी और मुसलमानों की भी भलाई है। यह सहज बुद्घि की बात है कि जो इस्लामी सिद्घांत की वर्जना है, वह गैर-इस्लामी समाजों की भी होना जरूरी नहीं। अत: उसे सब पर थोपना जबर्दस्ती, इसलिए अन्याय है। इसको मान्यता देना सारी दुनिया पर इस्लामी तानाशाही सिद्घांतत: स्वीकार करना ही है। फिर, यह केवल समय की बात रह जाएगी कि कोई इस्लामी स्टेट, तालिबान या सिमी कब उसे लागू कर डालता है।
यह समझने की बात है कि यदि अरब देशों में हर चीज इस्लामी नजरिए से चलती है, तब यूरोप में लोकतांत्रिक, सेक्यूलर यानी मजहब-निरपेक्ष दृष्टि से सब कुछ चलना उतना ही सामान्य मानना चाहिए। इस पर बल न देकर नंदिता जैसे बुद्घिजीवियों ने मोहम्मद के कार्टून-प्रकाशन को गलत माना है। इसमें किसी सिद्घांत के बजाय भय का कारक अधिक है।
ऐसा नहीं कि कार्टून अपमानजनक थे। बल्कि इस्लामियों को मोहम्मद के चित्रांकन मात्र पर आपत्ति है, चाहे वह प्रशंसात्मक भी क्यों न हो। अत: 'शार्ली एब्दो' के पक्ष में खड़े होने से बचना हिंसा के तर्क को स्वीकृति है। तब कहीं भी संविधान, कानून, मानवाधिकार, विचार स्वतंत्रता या समानता का क्या बचेगा?
अच्छा हो, लोकतांत्रिक विश्व इस्लाम के वैचारिक खालीपन पर उंगली रखना शुरू करे कि उसके पास शब्दों का उत्तर शब्दों में कभी नहीं रहा। हिंसा या धमकी के सिवा उसके झोले में आरंभ से ही कुछ नहीं है। इस सवाल को उठाने पर ही समस्या अपने सही रूप में दिखेगी। तभी मुसलमान भी उसका समाधान खोजने पर विवश होंगे।
इस्लामी पक्ष का दोहरापन भी विचारणीय है। शासकों समेत बड़े-बड़े मुसलमान नेता यहूदी समुदाय के विरुद्घ गालियों और भड़कावे भरे शब्दों का खुले-आम प्रयोग करते हैं। इस्रायल को दुनिया के नक्शे से मिटा देने के खुले फतवे जारी होते हैं। उसी तरह, अफगानिस्तान में इस्लामी शासक गौतम बुद्घ की ऐतिहासिक प्रतिमाओं को उड़ा चुके हैं। तब क्या किसी बौद्घ ने किसी का अपमान किया था? मगर ऐसे घृणित, हिंसक कदमों से यहूदियों, बौद्धों, हिंदुओं को कितना ही दु:ख पहुंचे, यह सब इस्लामी समुदाय को सहज लगता है। किंतु उनके लिए अमान्य रेखा-चित्र भी कोई खींचे तो उनके रोष का ठिकाना नहीं रहता। यह दोहरापन कब तक चलेगा?
कभी आकलन करें कि दुनिया भर के मुस्लिम मीडिया में यहूदियों, ईसाइयों के पांथिक प्रतीकों तथा उनके पूरे समुदायों के विरुद्घ कितने वीभत्स, कुत्सापूर्ण कार्टून छपते रहे हैं? जिसमें 'सलीब वाले सारे लोगों को जिंदा गाड़ देने' या यहूदी समुदाय को 'अपराधी' आदि कहा जाता है। जिस किसी नेता, लेखक, आदि की कटी गर्दन, या फांसी से लटका शरीर, जैसे रेखाचित्र छपे मिलते हैं। ऐसे सैकड़ों चित्रांकन दुनिया भर की मुस्लिम प्रेस से सालाना एकत्र किए जा सकते हैं। यह सब मुसलमानों को गलत नहीं लगता! किंतु यूरोपीय मीडिया में मोहम्मद का सहज चित्रण भी उन्हें नागवार है।
अर्थात, उनका दावा है कि गैर-मुस्लिम समाज को इस्लामी विषयों पर सम्मान-अपमान के वही मानदंड अपनाने होंगे, जो मुसलमान रखते हैं।
तब ईसाई, यूहूदी, बौद्घ या हिंदू विषयों पर मान-अपमान का वही तर्क मुस्लिम समाज क्यों नहीं अपनाता? उसे मुस्लिम देशों में बुद्घ-मूर्तियां, मंदिर तोड़ने या देवी-देवताओं की तस्वीर नष्ट करने, हिंदू पर्व-त्योहार मनाने पर सजा देने का क्या अधिकार है? किंतु बौद्घ, यहूदी, ईसाई पांथिक-प्रतीकों का अपमान करने पर हिंसा नहीं भड़कती, तो इस्लामी पक्ष ने दूसरों का अपमान करना, उन्हें मारना, जलील करना अपना अधिकार समझ लिया है। उन्हें यह दोहरापन दिखाना और इसे हर हाल में खत्म करना मानवता का असली कर्तव्य है। जब तक यह नहीं होता, खुद मुसलमान भी इस्लामी रूढि़यों, वर्जनाओं और आतंक की कैद में रहेंगे। यह उन्हें समझना ही होगा।
ऑक्सफोर्ड के प्रोफेसर तारिक रमादान ने माना है कि यह सब बहस का विषय नहीं, बल्कि 'पावर-स्ट्रगल' है। यदि आपके पास संगठित ताकत है, बात-बात में आग लगा देने वाले और फिदायीन दस्ते हैं तो आपके अंधविश्वासों, ऊल-जुलूल को भी आदर मिलेगा। आपके द्वारा बनाए गए हिंसक, वीभत्स रेखा-चित्रों को भी विचार-स्वातंत्र्य या भावना मान कर स्वीकार कर लिया जाएगा। इसी भरोसे गैर-मुस्लिम समाजों, देशों में इस्लामी धौंस चल रही है। मगर क्या यह इस्लाम का घोर वैचारिक, दार्शनिक दिवालियापन नहीं है कि उसके पास किसी असहमति, आलोचना का उत्तर नहीं। किंतु कोई कितनी भी हिंसा करे, उससे यह सहज न्याय की बात, जो निपट अनपढ़ भी समझ सकता है, नहीं छिप सकती कि संवेदनाओं का सम्मान एकतरफा नहीं हो सकता। यदि मोहम्मद का पैगंबर होना इस्लामी विश्वास है, तो यहूदियों का इस्रायल, भगवान बुद्घ, पवन-पुत्र हनुमान, सरस्वती-प्रतिमा की पूजा और राम जन्म-भूमि उससे भी सदियों पुराने और अतिपवित्र विश्वास हैं।
क्या अरब में और दूसरे मुस्लिम देशों में इन विश्वासों का सम्मान होता है? यदि नहीं, तो 'शार्ली एब्दो' पर हमले की निंदा करने में हीला-हवाला करने का सीधा अर्थ है: दुनिया को मुस्लिम अभिव्यक्ति का हर रूप स्वीकार करना होगा। चाहे वह कितनी भी अमानवीय, तर्कहीन, हिंसक क्यों न हो! जबकि दूसरों की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता मुसलमानों की इच्छा के अधीन रहेगी। इस खुले वैचारिक साम्राज्यवाद की अनदेखी कर लोकतांत्रिक विश्व के नेता, बुद्घिजीवी अपने लिए खाई खोद रहे हैं। नंदिता जी को इसी तरह लिखने-बोलने की आजादी इस्लामी स्टेट में नहीं होगी, जिसका अभी वह पक्ष-मंडन कर रही हैं!
जहां तक मौन महानुभाव लोगों की बात है, तो उन्हें याद रखना चाहिए कि वैचारिक स्वतंत्रता का दायरा कोई स्थाई चीज नहीं होती। निर्मल वर्मा ने कहा था 'यह आपकी जागरूकता, निष्ठा, चेष्टा या आलस्य, भय, आदि से बढ़ती-घटती रहती है।' आखिर क्या कारण है कि अमरीकी, यूरोपीय देशों ने सलमान रुश्दी की सटैनिक वर्सेस पर प्रतिबंध नहीं लगाया, तो वहां कोई आग-जनी, उपद्रव नहीं हुए? तसलीमा नसरीन जब तक चाहे पेरिस में रहीं, तो वहां मुसलमानों ने कोई आंदोलन नहीं किया? जबकि भारत में सटैनिक वर्सेस प्रतिबंधित होने, और कोलकाता से तसलीमा को निकाल बाहर करने के बाद भी, मुसलमान नेताओं ने किसी को 'थैंक्यू' कहा हो, ऐसा सुनने में नहीं आया। उल्टे, रोज-रोज नई-नई मांग पेश हो जाती हैं, जो अमरीका में नहीं होती। इसलिए 'शार्ली एब्दो' को दोषी मानने वाले अपने अज्ञान, भय या आरामपसंदगी को सिद्घांत का नाम न दें। जो चुप रहेंगे, उनके चुप रहने की विषय-सूची लंबी होती जाएगी। बेल्जियायी विद्वान डॉ. कोएनराड एल्स्ट के शब्दों में, 'यदि आप आतंकवाद से नहीं निपटते और बचते रहते हैं, तब कुछ समय बाद आतंकवाद खुद आपके पास पहुंचकर आपसे निपट लेगा।'
अत: मूल मुद्दा कार्टून बनाना या किताबें प्रतिबंधित करना है ही नहीं। वह है कि मजहबी मान-सम्मान के सवाल को सभी धमोंर् की समानता नहीं, वरन् किसी की जबर्दस्ती और उस के विशेषाधिकार के रूप में तय करने की जिद। मुस्लिम समुदाय अपने लिए 'वीटो' का-सा दावा चाहता है, कि जो उसे नामंजूर, वह कोई न करे। किंतु जिसमें दूसरों का अपमान, हानि होती हो, वह करने से मुसलमानों को रोका नहीं जा सकता!
बामियान की बुद्घ प्रतिमाओं के विध्वंस को उचित ठहराना, इस्रायल या अमरीका को मिटा देने का फतवा जारी करना, मुस्लिम प्रदर्शनों में ईसाई-यहूदी श्रद्घा-प्रतीकों को जलाना, बड़े-बड़े ईमामों द्वारा 'अकारण भी काफिरों की हत्या करने' के फतवे गैर-इस्लामी देशों में मुसलमानों के लिए अलग कानून, अदालतों, बैंक आदि की मांग, तथा मुसलमानों के देशों में गैर-मुसलमानों को कानूनी तौर पर नीचा दर्जा देना, आदि इस अनुचित मनोवृत्ति के कुछ बड़े उदाहरण हैं। सभी प्रसंग दिखाते हैं कि इस्लाम को विशेषाधिकार चाहिए।
न केवल अरब में, वरन् यूरोप, अमरीका, अफ्रीका और एशिया, सभी जगह। इसके लिए उसके पास कोई तर्क नहीं, केवल हिंसा, हत्या और आगजनी है। यही बुनियादी और एकमात्र समस्या है, अखबारों की अभिव्यक्ति स्वतंत्रता असली सवाल नहीं है।
यह निपट जबरदस्ती है कि मोहम्मद के चित्र बनाना इस्लाम का अपमान है। खुद मुसलमानों ने बीती सदियों में मोहम्मद के अनेक चित्रांकन किए हैं। वह फारस (ईरान), अफगानिस्तान जैसे देशों के संग्रहालयों में सदियों तक लगे रहे। कई मुसलमान शासकों ने मोहम्मद की पेंटिंगें बनवाई थीं। एडिनबर्ग विश्वविद्यालय पुस्तकालय में 14 वीं सदी की ईरानी पेंटिंग है जिसमें मोहम्मद हैं।
15वीं सदी में अफगानिस्तान के तैमूरी शासक शाहरुख (बाबर के पूर्वज) ने हफीज-ए-अबरू से एक विश्व-इतिहास लिखवाया। उस में एक चित्र में मोहम्मद हैं। ऑटोमन साम्राज्य के बाद शाह मुराद ने 'सियर-ए-नबी' के लिए मोहम्मद के कई चित्रांकन करवाए। उन्हें आज भी इस्तांबुल, डबलिन, न्यूयार्क के संग्रहालयों में पाया जा सकता है। उनकी अनुकृतियां इंटरनेट पर हैं। विकीपीडिया पर यह सब पूरी तफसील के साथ (ँ३३स्र://ील्ल.६्र'्रस्री्रिं.ङ्म१ॅ/६्र'्र/िीस्र्रू३्रङ्मल्ल२_ङ्मा_ े४ँंेेंि) उपलब्ध है।
तब आज क्या बदल गया? मामला भावनाओं या सिद्घांत का है ही नहीं, विशुद्घ राजनीति का है। मुस्लिम समुदाय अपने संगठन, धन और जुझारूपन के बल पर मनमाने दावे करता है। जो वह दूसरे समुदायों को कहीं देने के लिए तैयार नहीं। पर्याप्त संख्या हो तो वह गैर-इस्लामी देशों में भी दावे करेगा। वहां के संविधान, कानून का मजाक उड़ाते हुए इस्लामी आदेशों को सब पर लागू करने की जिद ठानेगा। जैसे, उत्तर प्रदेश सरकार के पिछले मंत्री हाजी याकूब कुरैशी, आजम खान, ओवैसी, आदि मुसलमानों ने बड़ी ढिठाई से बार-बार किया है। ये लोग कोई जिहादी तो नहीं, इसलिए यह कोई उग्रवादी मानसिकता नहीं, बल्कि आम इस्लामी मानसिकता है, जिसे कठघरे में खड़ा करना जरूरी है।
डॉ़ अंबेडकर ने इसी को 'ग्रावामिन पॉलिटिक्स' कहा था, जिसमें 'मुख्य रणनीति यह होती है कि शिकायतें पैदा करके सत्ता हथियायी जाए।' उनके अनुसार मुस्लिम राजनीति निरंतर शिकायतें करते हुए कपटपूर्वक एक दबाव बनाती है। यह दुर्बल की चिंता का स्वांग करते हुए सब पर और सब कुछ पर अपना एकाधिकार बनाने का लक्ष्य रखती है। यदि इस मोटी सी बात देखने से भी गैर-मुस्लिम दुनिया संकोच करती है, तो आगे और भी संकट आमंत्रित कर रही है। यही शार्ली का सबक है।
वस्तुत: इसी संकोच के कारण मुसलमानों में भी सुधारवादियों को बढ़ने का अवसर नहीं मिलता। उनके बीच भी हिंसकों का वर्चस्व रहता है, क्योंकि गैर-मुस्लिम विश्व उन्हीं को आदर देता रहता है। पर यह ध्यान देना चाहिए, कि इस्लामी दस्ते न केवल गैर-मुस्लिम दुनिया को प्रताडि़त करते हैं, बल्कि खुद मुसलमानों को भी। इन सबसे अंतत: इस्लाम वही साबित होता है जो उन डेनिश या फ्रांसीसी कार्टूनों का मंतव्य था। आखिर किसी भी विचार, घटना, व्यक्ति आदि के विरोध में सदैव 'सिर काटने' या 'मौत' की मांग करने वाले मजहब के प्रति दूसरों में क्या भाव पैदा होगा?
मुसलमानों को समझना ही होगा कि दुनिया में मान-सम्मान के मानदंड एक समुदाय की जिद से नहीं तय हो सकते।
दो ही विकल्प हैं। प्रथम-अपने-अपने समाज में अपने-अपने मानदण्ड। तब किसी को अपने और अपने विश्वासों, प्रतीकों आदि के बारे में दूसरे समाज में क्या कहा जा रहा है, इससे नितांत उदासीन रहना चाहिए। ताकि वह भी दूसरे समाज के विश्वास-प्रतीकों के प्रति मनचाहा रवैया रख सके। अर्थात, आलोचनाओं के प्रति परस्पर सहिष्णुता।
दूसरा विकल्प यह है कि सभी समुदाय कुछ ऐसे नियम स्वीकार करें जो सभी मजहबों से ऊपर माने जाएं। तब किसी को स्वयं को 'एक-मात्र सच्चा' और दूसरे को 'काफिर' या 'शैतानी', 'झूठा' बताने, दूसरों का कन्वर्जन कराने, तथा दुनिया के हर कोने में अपने मजहब अनुसार सब कुछ तय करवाने का अधिकार छोड़ना होगा। तब किसी देश का संविधान सभी मजहबी, पांथिक किताबों, आदेशों से ऊपर माना जाएगा। अर्थात, सभी धर्म-मजहबों की ऐसी बातें त्यागना, जो दूसरे विश्वासों से टकराते हैं। सभी पंथों की वैधता, समानता, परस्पर आदर को घोषित नीति बनानी पड़ेगी।
इन दो विकल्पों के अतिरिक्त कोई रास्ता नहीं। यह नहीं हो सकता कि चित भी मेरी, और पट भी। हम तो दूसरों को काफिर कहें, जिहाद छेड़ें, हिंसा करें, जिस किसी को मारने-मिटाने का फतवा जारी करते फिरें और दूसरा हमारा कार्टून भी न बनाए! यदि वे इस्लामी देशों में हिन्दुओं, बौद्घों, ईसाइयों, यहूदियों को पांथिक विश्वासों का बराबर अधिकार नहीं दे सकते, तो उन्हें यूरोपीय, अमरीकी, एशियाई ईसाई, हिन्दू, बौद्घ देशों में अपने लिए इस्लामी तौर-तरीकों, मस्जिदों-मदरसों आदि बनाने की मांग करने का नैतिक अधिकार नहीं है।
यूरोपीय देश अपनी उदारता व सेक्यूलर शासनतंत्र के तहत मुसलमानों को यह सब देते रहे हैं तो यह मुस्लिम समुदाय का हक तब तक नहीं हो सकता, जब तक अरब देशों में ईसाई, यहूदी या हिंदू निवासियों को वही अधिकार न हों। यह अंदाज राजनीतिक पैंतरा है कि इस्लामी वर्जनाओं में कभी, कोई संशोधन नहीं किया जा सकता। अनेक इस्लामी निर्देश छोड़े जा चुके हैं। कुरान के अनुवाद की भी मनाही थी। अब तो वह छोड़ी जा चुकी। शरीयत और कुरान के कई नियम कई मुस्लिम देशों में छोड़े जा चुके हैं। इसलिए इस्लाम में सुधार की मांग को सवार्ेच्च एजेंडे पर लाने की जरूरत है। यही मुसलमानों के भी हित में है। पूरी दुनिया में कट्टरपंथी जिहादी सबसे अधिक संहार मुसलमानों का ही कर रहे हैं। इसलिए सभी मुसलमानों को सीरियाई मूल की प्रसिद्घ लेखिका डॉ़ वफा सुल्तान की एक सलाह पर खुले दिमाग से विचार करना चाहिए। यह मुस्लिम जगत की दुर्दशा का मूल कारण और उसके निदान, दोनों समझने के लिए अपरिहार्य है। वफा कहती हैं, यदि विद्वान मुसलमान उस घृणा की भारी मात्रा को हमारी मजहबी और गैर-मजहबी दोनों प्रकार की स्कूली किताबों से निकालकर फेंक सकें और उसके बदले ऐसे पाठ ला सकें जो लोगों को बिना उनके मजहब, नस्ल या राष्ट्रीयता की परवाह किए प्यार करने पर केंद्रित हों-तो वे पूरे मुस्लिम विश्व को उसके पिछड़ेपन, भूख, गरीबी और जहालत से निकालकर बचाने में सहायक होंगे। वह घृणा हमारे 'दुश्मनों' को खत्म करने से पहले शायद हमको ही खत्म कर देगी, क्योंकि घृणा ऐसे 'एसिड' की तरह है, जो उस बर्तन को अधिक हानि पहुंचाता है, जिसमें वह रखा होता है। लंबे अनुभव और अवलोकन से कही गई ये बातें क्या आइने की तरह साफ-साफ नहीं दिखातीं कि स्वयं मुस्लिम दुनिया अपनी हिंसक, घृणा से भरी विचारधारा की कैदी है?
समय आ गया है कि उन्हें अंधविश्वास से निकलकर स्वतंत्र विवेक की दुनिया में आने का आग्रह किया जाए। खुला निमंत्रण दिया जाए। वे इस्लाम की मध्ययुगीन, बंद कोठरी से निकलकर मानवता की उन्मुक्त फुलवारी में आ जाएं, जहां रंग-बिरंगे फूल खिले हैं। उस घर वापस आ जाएं, जहां सबको अपने-अपने आदर्श, विचार, देवता, ईश्वर और पैगंबर को मानने, या ठुकराने की पूरी स्वतंत्रता रही है। ऐसे घर में सभी मनुष्य स्वतंत्र-प्रसन्न हैं और कोई कैद नहीं है। इस धरती पर यही मनुष्य का सुखद निवास है।
-शंकर शरण
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