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रांची राजमार्ग से तीन किलोमीटर की दूरी पर इटकी प्रखंड है। इटकी में प्रवेश करते समय बायीं तरफ लड़कियों का एक मदरसा है। इस मदरसे को देखकर लगता है कि यह स्त्रियों के अधिकार को लेकर जागरूक प्रखंड होगा। इसी में एक घर है परवेज आलम (काल्पनिक नाम) का। परवेज विवाहित पुरुष हैं, लेकिन विवाह उन्होंने एक नहीं तीन बार किया है। इनके घर में पत्नी के तौर पर तीन महिलाएं रहती हैं। पहली शकीना खातून (काल्पनिक नाम)। दूसरी रंजना टोप्पो (काल्पनिक नाम) और तीसरी मीनाक्षी लाकड़ा (काल्पनिक नाम)। इटकी के आसपास के लोगों से बातचीत करते हुए यह अनुमान लगाना आसान था कि परवेज का मामला अकेला नहीं है। इस तरह के अनेक मामले हैं, जहां लोगों ने एक से अधिक विवाह किए हुए हैं और गैर वनवासी समाज से आने वाले पुरुषों ने एक से अधिक विवाह में कम से कम एक पत्नी वनवासी महिला को बनाया है। जांच करने पर यह बात साफतौर पर दिखाई दी कि दूसरी और तीसरी वनवासी पत्नी चुनते हुए गैर वनवासी पुरुषों ने इस बात को प्राथमिकता दी है कि वनवासी लड़की कामकाजी होनी चाहिए। ऐसे में वनवासी युवती यदि नर्स या शिक्षिका हो तो वह गैर आदिवासी पुरुष की पहली पसंद होती है।
झारखंड में सामाजिक कार्यकर्ता वासवी कीरो लम्बे समय से वनवासी मुद्दों पर काम कर रही हैं। वे बताती हैं कि इस तरह की कामकाजी वनवासी लड़कियों के लिए गैर वनवासी युवकों के बीच एक शब्द इस्तेमाल होता है, 'बियरर चेक'। वास्तव में कामकाजी महिलाएं उनके लिए 'बियरर चेक' ही होती हैं, जो दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर उनकी यौन पिपासा शांत करती हैं और साथ-साथ हर महीने पैसे देकर उनका पेट भी भरती हैं।
वासवी अपने एक पुराने अध्ययन का जिक्र करते हुए कहती हैं कि 15 वर्ष पहले उन्होंने एक अध्ययन किया था, लेकिन चीजें अब भी प्रासंगिक हैं। जिन परिवारों में वनवासी लड़की दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर रह रही थी, उन परिवारों में वनवासी लड़की को वह सम्मान नहीं मिल रहा था, जो परिवार में मौजूद गैर वनवासी पत्नी को दिया जा रहा था। वासवी के अनुसार सीमडेगा, लोहरदगा और गुमला में बड़ी संख्या में इस तरह के मामले उन्हें देखने को मिले। आम तौर पर इन वनवासी लड़कियों की स्थिति परिवार में दोयम दर्जे की होती है।
इटकी प्रखंड के नफीस मानते हैं कि इटकी में इस तरह की शादियां बड़ी संख्या में हुई हैं। वे इस तरह की शादियों को सही नहीं ठहराते। नफीस के मित्र अभय पांडेय के अनुसार गैर वनवासी युवकों द्वारा वनवासी लड़कियों को दूसरी या तीसरी पत्नी बनाने के मामले बढ़े हैं, लेकिन इस मामले में इटकी में कोई भी बात करने को तैयार नहीं होता। जब उनसे इसका कारण पूछा तो तो पांडेय ने इशारों ही इशारों में बताया कि संबंधित मोहल्ला मुस्लिम बहुल और संवेदनशील है।
यदि एक पुरुष और एक महिला पंथ, जाति की परवाह किए बिना आपस में प्रेम विवाह का निर्णय लेते हैं तो समाज उसे स्वीकार करता ही है,लेकिन यदि यही प्रेम एक से अधिक महिलाओं के साथ हो और इन सभी महिलाओं को कोई एक व्यक्ति पत्नी बनाने की इच्छा रखे तो क्या इसे प्रेम माना जाएगा?
यह केवल यौन दोहन की इच्छा ही दर्शाता है और एक गोरखधंधा है। मुस्लिम कहते हैं कि इस्लाम में एक से अधिक शादी की अनुमति है, लेकिन इसकी अनुमति के साथ-साथ जिन शतार्ें का जिक्र है, उस पर कभी समाज में चर्चा नहीं की जाती। न ही उस पर एक से अधिक शादी करने वाला पति कभी अमल करता है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि फिर इस तरह के कानून की समाज में जरूरत ही क्या है? एक-एक पुरुष को शादी के लिए एक से अधिक महिला क्यों चाहिए? अमिता मुंडा 'आदिम जाति सेवा मंडल' से जुड़ी हुई हैं। उनके अनुसार समाज में कोई भी मत हो, लेकिन दो पत्नियां रखना उचित नहीं है। दो पत्नियों के साथ बराबर का रिश्ता नहीं रखा जा सकता। यदि तीन पत्नियां रखने वालों की तीनों पत्नियां दो-दो पति और रखने की इजाजत मांगंे तो क्या तीन पत्नियां रखने वाला पति तैयार होगा?
उनके अनुसार रांची स्थित हिन्द पीढ़ी में इस तरह के बहुत से मामले देखने को मिलते हैं। एक से अधिक विवाह के संबंध में अपने अध्ययन के दौरान 'इंडिया फाउंडेशन फॉर रूरल डेवलपमेंट स्टडीज' ने पाया कि रांची के आसपास के जिलों को मिलाकर ऐसे एक हजार से अधिक मामले इस क्षेत्र में हैं।
यहां वनवासी लडि़कयों को दूसरी या तीसरी पत्नी बनाकर घर में रखा गया है। परिवार में साथ रहने के बावजूद उन्हें पत्नी का दर्जा प्राप्त नहीं है। समाज इन्हें पत्नी के तौर पर जानता है, लेकिन उन्हें पत्नी का कानूनी अधिकार नहीं मिला है। कई मामलों में उन्हें मां बनने से भी रोका गया। वनवासी लड़की, गैर वनवासी परिवार में केवल यौनेच्छा तृप्त करने वाली की हैसियत से रह रही है। यदि एक पुरुष एक महिला के साथ बिना शादी किए एक घर में रहता है और उसके साथ शारीरिक संबंध भी बनाता है तो उसे 'लिव इन रिलेशनशिप' कहा जाता है, लेकिन दो शादियों के बाद घर में तीसरी महिला को रखना और उसे पत्नी का कानूनी अधिकार भी न देना न्यायसंगत नहीं है। आखिर इस संबंध को कुछ नाम तो दिया ही जाना चाहिए।
झारखंड के वनवासी समाज में लंबे समय से कार्य कर रहे अशोक भगत की संस्था विकास भारती वनवासियों के बीच एक चर्चित नाम है। अशोक भगत शोषण की बात स्वीकार करते हुए कहते हैं कि मुसलमानों को एक से अधिक पत्नियां रखने की छूट है। इन लोगों ने अपने मजहब की इस कमजोरी का लाभ उठाकर एक-एक पुरुष ने झारखंड में कई-कई शादियां की हैं। आमतौर पर ये लोग झारखंड के बाहर से आए हैं और वनवासी लड़कियों को दूसरी, तीसरी पत्नी बनाने के पीछे इनकी मंशा झारखंड के संसाधनों पर कब्जा करने और इनके माध्यम से झारखंड में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करना भी है। पंचायत से लेकर जिला परिषद तक के चुनावों में आरक्षित सीटों पर इस तरह वे वनवासी लड़कियों को आगे करके अपने हित साधते हैं। वास्तव में वनवासी समाज की लड़कियों का इस तरह शोषण इस समाज के खिलाफ अन्याय है। अशोक भगत ने बताया कि रांची के मांडर से लेकर लोहरदगा तक और बंगलादेशी घुसपैठियों ने पाकुर और साहबगंज में बड़ी संख्या में इस तरह की शादियां की हैं।
वे इस बात पर आश्चर्य व्यक्त करते हैं कि इतनी बड़ी संख्या में ईसाई वनवासी लड़कियां दूसरी और तीसरी पत्नियां बनकर गैर वनवासियों के साथ रह रही हैं, लेकिन कभी चर्च ने या फिर कार्डिनल ने इस तरह की अवैध शादी के विरुद्ध एक शब्द नहीं बोला। श्री भगत उम्मीद जताते हैं कि वनवासी समाज 'बेगम-जमात' की चालाकियों को समझ रहा है। उन्हंे यकीन है कि वनवासी समाज इन मुद्दों पर जागेगा। आने वाले दिनों में विरोध का स्वर उनके बीच से ही मुखर होगा।
गैर वनवासी पति के नाम को छुपाने का मामला भी झारखंड में छुप नहीं सका है। ऐसी वनवासी महिलाएं जिनका इस्तेमाल आरक्षित सीटों पर चुनाव लड़ाने में गैर वनवासी करते हैं, काफी बहुल संख्या में हैं। इन महिलाओं से चुनाव का फॉर्म भरवाते समय इस बात का विशेष ध्यान रखा जाता है कि वे अपने पति का नाम फॉर्म में न भरें। इस तरह अपने पिता का नाम ही आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ने वाली ये वनवासी महिलाएं लिखती हैं। ऐसा ही एक मामला इन दिनों रांची में खासी चर्चा में है। एक प्रत्याशी ने आरक्षित सीट पर चुनाव लड़ा, जबकि उसका पति मुस्लिम है। वनवासी विषय के अध्ययेता रांची विश्वविद्यालय के प्रो. दिवाकर मिंज कहते हैं कि दूसरी या तीसरी पत्नी बनकर शादी करने वाली वनवासी लड़कियां आमतौर पर, पढ़ी-लिखी, कामकाजी और ईसाई होती हैं। झारखंड में एक दर्जन से अधिक सामाजिक संगठनों ने माना है कि इस तरह की घटनाएं झारखंड में हो रही हैं। इस तरह की शादियों में वनवासी लड़कियों का शोषण हो रहा है। सभी सामाजिक संगठनों ने इस तरह की शादियों को सामाजिक बुराई माना है। एक से अधिक शादियों को समाज चाहे जो भी नाम दे, लेकिन इस तरह की शादियों को आप प्रेम विवाह नहीं कह सकते। अब समय आ गया है जब इस तरह की शादियों पर प्रतिबंध की मांग समाज से उठे और एक से अधिक शादियों पर कानूनी तौर पर पूरी तरह प्रतिबंध लगे। पंथ, जाति और क्षेत्र की परवाह किए बिना। यह सही समय है, जब हम सभी मिलकर समाज से इस बुराई को खत्म करने के लिए आवाज बुलंद करें। -आशीष कुमार 'अंशु'
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