पुस्तक समीक्षा - बुद्ध और हमारी सभ्यता
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पुस्तक समीक्षा – बुद्ध और हमारी सभ्यता

by
Feb 16, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 16 Feb 2015 14:43:38

कुछ वर्ष पहले यूरोप के आणविक शोध संस्थान (सर्न) में किए गए कथित 'गॉड पार्टिकल' के महाप्रयोग की सफलता की सुर्खियां छाई थीं, इस दौरान भगवान और विज्ञान को मिला सकने की इंसानी सफलता पर वैज्ञानिकों और आध्यात्मिक गुरुओं ने अपने-अपने विचार भी रखे थे। ईश्वरीय भाव और विज्ञान धारा कितनी एक है, आज के विज्ञान में इस पर गाहे-बगाहे बात होनी शुरू हो चुकी है। बेशक रिचर्ड डॉकिन्स जैसे कुछ वैज्ञानिक आज भी ईश्वर के न होने की बात ठोकते फिर रहे हों, लेकिन इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि मनुष्य को हमेशा से एक आदि शक्ति की तलाश रही है, जिसे वह सृष्टि निर्माता की संज्ञा दे सके। इसका कारण मात्र यह है कि मनुष्य अपनी सोच के स्तर पर विशालकाय होने के बावजूद इतना छोटा है कि उस निराकार सृष्टि निर्माता को साकार रूप में सोचना चाहता है।
प्रस्तुत पुस्तक 'देवतुल्य नास्तिक' में इन्हीं कुछ विचारों, धर्म-दर्शन और विज्ञान जैसे विषयों को परखने का प्रयास किया गया है। लेखन में आधारभूत तौर पर भगवान बुुद्ध और उनके शान्ति संदेशों से बात शुरू की गई है। वे कहते हैं कि आज वह समय है जब बुद्ध के संदेश जनमानस की जरूरतों पर खरे उतरने शुरू हो गए हैं और उनके जरिए सामाजिक सौहार्द की धाराएं समाज में बहनी शुरू हुई हैं। इस संदर्भ में लेखक बुद्ध के जीवन-दर्शन और कुछ चिरस्थायी प्रश्नों पर उनके विचारों को भी परखते हैं। औपनिषदिक विचार भूमि से पे्ररणा लेकर बुद्ध ने अपने विचारों से उस चिंतनधारा को समृद्ध किया जिसे 'भारतीय मनीषा' कहा गया है। लेखक लिखते हैं कि बुद्ध अपनी सीमाओं को जानते थे और कई बार अत्यंत जटिल प्रश्नों का उत्तर देने के स्थान पर वे अपने अनुयायियों और आमजन को सीधे-सीधे ध्यान लगाने को कहते थे। पुस्तक में गौतम बुद्ध के शान्ति संदेशों के विपरीत में कुछ विदेशी विचारधाराओं को भी रखा गया है,जिसकी आहट पुस्तक को सभ्यता विमर्श का प्रारूप प्रदान करती है। यहां विदेशी विचारभूमियों से मतलब यहूदी,ईसाइयत और इस्लाम मत से है, जहां बात उनके उत्थान से लेकर शुरू होती है। लेखक इन विचारभूमियों की चिंतनधाराओं के बीहड़ से गुजरता है। इस मार्ग में सभ्यता के उत्थान-पतन की कहानी भी चलती है और विज्ञान भी अपने आदिकालीन और आधुनिक रूप में प्रकट होता है। इन प्रयासों से लेखक की ऐसी छटपटाहट नजर आती है,जिसमें वह समूची मानव जाति की खूबियों-खामियों और ज्ञान-विज्ञान में उसके प्रयासों को एक ही मंच से कह डालने का प्रयास नजर आता है। बेशक, यह प्रयास बेमानी नहीं, क्योंकि इस दायरे में लेखक जिन संदर्भों का हवाला दे रहा है वहां वैज्ञानिक तर्क और आध्यात्मिक अनुभूतियों के अद्भुत संगम नजर आते हैं।
एक स्थान पर लेखक कहता है कि विज्ञान के कई महानुभाव प्राचीन मिथकों के प्रति बहुत ग्रहणशील रहे हैं। फिर भी विज्ञान की सीमित पहंुच और अनंत जगत को पाटने वाली आध्यात्मिक अनुभूतियों के बीच के सेतु को समझते हुए भी न समझने की धृष्टता यदि मानवीय है तो उसे पूर्णतया आत्मसात करना भी मानवीय सीमा को दर्शाता है। देकार्त का कथन है 'उस विराट ज्ञानवृक्ष की जड़ आदिभौतिक अध्यात्म है,भौतिक विज्ञान उसका धड़ तथा अन्य सभी विषय उसके डाल-पात हैं।' तो कहना न होगा कि विज्ञान के आदि रूप के बारे में सोचने पर एक अलौकिक दृष्टिकोण भी उभरता है। हालांकि इसे बिना हिचक अपना लेना किसी भी विज्ञानी मस्तिष्क के लिए कड़ी चुनौती होती है, लेकिन पौराणिक संदर्भों की नए सिरे से हो रही विवेचना से एक ओर जहां कई मिथक टूटते हैं तो कुछ नए मिथक अस्तित्व में भी आते हैं। उदाहरणार्थ एक नवीन क्रांतिकारी विचार जिसे जीव-विज्ञानी रॉबर्ट लैंजा द्वारा प्रस्तावित किया गया है कि अब ब्रह्मांडीय संरचना को समझने के लिए आधारभूत विषय भौतिकी से बदलकर जीव विज्ञान को बनाना चाहिए क्योंकि ब्रह्मांड अपने आप में एक 'चैतन्य स्थिति' है।
लेखक पुस्तक में भौतिक विज्ञान के सबसे बड़े नामों के माध्यम से यह स्पष्ट करने का प्रयास करते हैं। ब्रहांडीय संरचना और उसकी परिणति पर जितनी गहराई से वैज्ञानिक मनस ने विचारा है,उतनी ही गहन सोच हमारे आध्यात्मिक गुरुओं की भी रही है। कई स्थानों पर इन दो धुर विपरीत चिंतनधाराओं को एकमेव करने के प्रयास भी सामने आए हैं।
पुस्तक का एक बड़ा पक्ष ईसाइयत और इस्लाम मतों की खींचतान पर केंद्रित है। आज का इस्लाम -ईसाइयत और यहूदी क्यों समाज के खिलाफ हैं? सूफियाना सोच को दरकिनार कर वे क्यों कट्टरता का रास्ता अख्तियार कर रहे हैं? इसके विपरीत ईसाई, इस्लाम और यहूदी मतों की लंबे समय से चलती आ रही हठधर्मिता के कैसे-कैसे रूप रहे हैं? और आज वे क्यों तलवारें खींचे खड़े हुए हैं? ऐसे अनेकानेक सवालों पर विमर्श करते हुए लेखक आज के वैश्विक संदर्भों तक पहुंचता है। पुस्तक का यही राजनीतिक स्वरूप उसे एक वृहद् आयाम देता है।
पुस्तक का वैचारिक निचोड़ है कि आज के वैश्विक संदर्भ में भारत की प्राचीन सनातनी सोच शांति की निर्झरणी के तौर पर दिखाई देती है,जिस पर स्वयं भारतीयों की दृष्टि भी यदा-कदा जाती है, तो सत्य को न मानने का कोई कारण ही नहीं रह जाता कि यही सनातनी विचारधारा आज की जरूरत है, जिसे गौतम बुद्ध ने अपने शब्दों में व्याख्यायित किया था। पुस्तक का अंतिम अध्याय इसी निर्मल धारा की विराट सत्ता को कुछ शब्दों में समेटने का प्रयासभर है, जिसे धर्म,अध्यात्म की चिंतनशील वैदिक और औपनिषदिक व्याख्या अपने पूरे वेग से आती है। लेखक के अनुसार बुद्ध नास्तिकता पर बहस बेमानी है क्योंकि ईश्वर के अस्तित्व का कोई प्रमाण न होना उसके अनस्तित्व का प्रमाण तो नहीं बन जाता। दूसरे शब्दों में अगर यूं कहें-कि कुदरत में जिसका वजूद नहीं, इंसानी फितरत को उसकी तलब हर्गिज नहीं हो सकती।
कुल मिलाकर पुस्तक अपनी राजनीतिक, दार्शनिक और सैद्धांतिक भावभूमि में तटस्थ दिखती है, परन्तु इसके निष्कर्ष आज की दुनिया के कुछ विशिष्ट पक्षों की श्याम-श्वेत तस्वीर खींचते हैं। ल्लसंदीप मुदगल

पुस्तक – देवतुल्य नास्तिक
लेखक – अरुण भोले
प्रकाशन – राजकमल प्रकाशन,दरियागंज
नई दिल्ली-2
मूल्य -350/

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