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दिल्ली में विधानसभा चुनावों में जी टीवी और तालीम ने मिलकर चुनाव पूर्व सर्वेक्षण किए थे। अन्य सर्वेक्षणों की ही तरह जनता की नब्ज आंकने की उनकी कवायद भी असल नतीजे से दूर रही। प्रस्तुत हैं पाञ्चजन्य के सहयोगी संपादक आलोक गोस्वामी और तालीम रिसर्च फाउंडेशन के महानिदेशक बिनोद सी. अग्रवाल के बीच सर्वेक्षणों को खंगालती बातचीत के प्रमुख अंश-
ल्ल 7 फरवरी को चुनाव हुए। उससे पहले 31 जनवरी और फिर 4 फरवरी को आपके द्वारा किए गए चुनाव पूर्व सर्वेक्षणों ने जो तस्वीरें दिखाई थीं वे 10 फरवरी को आए नतीजों के आस-पास भी नहीं थीं। ऐसा कैसे हो गया?
नतीजे इतने आश्चर्यजनक रहे कि हमने अपने जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन पहले कभी अनुभव नहीं किया। 31 जनवरी को हमें अपने डाटा में भाजपा और आम आदमी पार्टी की सीटों में एक बड़ा उछाल दिखा था। उसमें हमें अपने लोगों की ही गलती जैसी मालूम दी थी। हमें भी उस उछाल में कुछ खामी दिखाई दी थी। आआपा और भाजपा मंे अन्तर तो था पर इतना ज्यादा नहीं था। 4 तारीख के आंकड़ों में 34 सीटें आआपा की और 32 भाजपा की दिखाई थीं। 4 और 7 के बीच में मतदाताओं के मन में भारी परिवर्तन हुआ।
ल्ल आपके सर्वेक्षण करने का तरीका क्या था?
हमने 70 विधानसभा सीटों में से खंगालकर 35 सीटों का चयन किया। इन 35 में से हर विधानसभा क्षेत्र के 6 मतदान केन्द्र चिन्हित किए। उन मतदान केन्द्रों की मतदाता सूचियां खंगालीं। प्रत्येक केन्द्र से हमने 25 मतदाता चुन लिए। फिर हम स्वयं उन 25 में से हर मतदाता के घर गए। यहां ये बता दें कि हर बूथ पर हमें 25 से 38 प्रतिशत मतदाता नहीं मिल पाए। कोई कहीं गया हुआ था, नाम गलत था, घर छोड़कर जा चुका था। जो नहीं मिलते उनके स्थान पर हम उन्हीं के उम्र के पड़ोस के पुरुष या स्त्री से मिलते हैं। इस तरह हमने इन चुने हुए करीब 4100 मतदाताओं से 21 सवाल किए जिनमें से मुख्य तीन थे- 1. क्या आपने पिछली बार वोट डाला था? 2. क्या आने वाले चुनाव में वोट डालेंगे? और 3. किस पार्टी को वोट देंगे? इससे प्राप्त आंकड़ों को हमने दो बार जांचा और उसके बाद अपना निष्कर्ष निकालकर प्रस्तुत कर दिया।
ल्ल लेकिन आपके निष्कर्ष से तो बिल्कुल अलग परिणाम आया। यह कैसे हुआ?
हमें लगता है कि लोग किसी संशय के चलते सर्वेक्षणकर्ता को अपने मन की थाह नहीं देते, सीधे जवाब नहीं देते। ऐसा इसलिए क्योंकि दिल्ली में ही बहुत बड़ी संख्या में मतदाताओं ने हमें बताया था कि वे आम आदमी पार्टी को नहीं, भाजपा या कांग्रेस को वोट देंगे। लेकिन नतीजा क्या कहता है? प्रश्नों का सही जवाब मिल जाये तो सर्वेक्षण एकदम सटीक बैठता है।
ल्ल ऐसा दिल्ली में ही हुआ या अन्य प्रदेशों में भी मतदाताओं का ऐसा ही व्यवहार रहता है?
ऐसा दिल्ली में ही देखने में आया। हमने गुजरात, उत्तराखंड आदि राज्यों में सर्वेक्षण किए हैं और वहां हमारे आकलन एकदम सटीक निकले हैं। दिल्ली में ही मतदाता मन की बात खुलकर नहीं बताते।
ल्ल क्या आपने उम्मीद की थी कि आम आदमी पार्टी को 67 सीटें मिलेंगी और भाजपा मात्र 3 पर रह जायेगी?
हमें बिल्कुल भी उम्मीद नहीं थी। नतीजे सभी आकलनों से परे आए हैं। सिर्फ हमारा सर्वेक्षण ही धरातल से दूर नहीं दिखता बल्कि जितने अन्य सर्वेक्षण हैं वे भी नतीजों से बहुत ज्यादा दूर हैं।
ल्ल कांग्रेस साफ हो गई है। क्या हम कह सकते हैं कि कांग्रेस के सारे वोट आम आदमी पार्टी के पाले में चले गए?
इसमें कोई संदेह नहीं है। कांग्रेस के ही वोट आम आदमी पार्टी के पाले में चले गए हैं। यह बात वोट प्रतिशत देखने से समझ में आ जायेगी। पिछले चुनावों में भाजपा का वोट प्रतिशत करीब 33 था जो अब सिर्फ एक प्रतिशत कम हुआ है। जबकि आम आदमी पार्टी का वोट प्रतिशत 54.3 हो गया है जबकि पिछले चुनाव में यह 40 था। कांगे्रस का शून्य पर आ जाना आम आदमी का आसमान पर चढ़ जाना ही तो है।
ल्ल समाज विज्ञानी के नाते बताएं, इन चुनावों में मतदाताओं ने वोट डालते समय क्या सोचा होगा?
यह तथ्य खेदजनक है, पर सत्य है कि आज भी उत्तरी भारत का समाज पुरुष प्रधान है। मुख्यमंत्री पद के लिए जो महिला उम्मीदवार थीं उनकी छवि एक पुलिस अधिकारी की ज्यादा थी, जो आदेश देने और धमक पर शासन करने वाले माने जाते हैं। उनके सामने उस पद के लिए थे एक पुरुष उम्मीदवार। इन दो दावेदारों को तौलते समय कहीं न कहीं यह बात जरूर हावी रही। नम्बर दो, केन्द्र में भाजपा की सरकार है तो अप्रत्यक्ष रूप से दिल्ली में उसी का शासन माना जाता है। दिल्ली की जनता में यह खुसफुसाहट तो थी कि 'बहुत भ्रष्टाचार है, कानून व्यवस्था लचर है, सरकार बयानबाजियां ज्यादा करती है, काम तो उतने हुए नहीं'। आम जनता को यह भी लगता था कि दिसम्बर, 2012 के बलात्कार कांड जैसी घटनाएं एक के बाद एक होती जा रही हैं, उन पर लगाम नहीं लग रही है।
यह बात सही है कि राज्य चुनाव के संदर्भ में केन्द्र सरकार के कामकाज को उस तरीके से नहीं देखा जाना चाहिए, पर जनता वैसा ही सोचती थी। इसके साथ ही, दोनों राष्ट्रीय दलों को छोड़कर उन्हें जो तीसरा विकल्प दिखा उसके प्रति उत्सुकता कुछ ज्यादा ही दिखाई दी। इन्हीं सब वजहों से आम आदमी पार्टी को आशा से कहीं बढ़कर सीटें मिलीं। ऐसे नतीजों की कल्पना तो तीनों में से किसी दल ने नहीं की थी। यह मुकाबला त्रिकोणीय नहीं, द्विकोणीय या कहें एकतरफा ही रह गया था। साथ ही हमारी समझ से, अन्य राज्यों के मुकाबले दिल्ली का मतदाता ज्यादा समझबूझ वाला और सजग है। यहां की मतदान शैली पर चार राज्यों- हिमाचल, राजस्थान, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश- का प्रभाव रहता है, क्योंकि इन प्रदेशों के लोग राजधानी में बसे हुए हैं।
ल्ल दिल्ली में लगभग 67 प्रतिशत मतदान होना भी क्या आश्चर्यजनक नहीं है?
बेहद आश्चर्यजनक है और इसमें यह भी बात है कि जब भी मतदान प्रतिशत इतना ऊंचा जाता है तब वह अधिकांशत: सत्तारूढ़ दल के विरुद्ध ही जाता है। ल्ल
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