|
मनोज वर्मा
कुछ सफलताएं ऐसी होती हैं जो सवालों से घिरी होती हैं। लिहाजा सफलता के मंच पर खड़े खास व्यक्ति से भले कोई सवाल न कर रहा हो पर भीतर से उसे इस बात का डर सता रहा होता कि यदि लोगों की उम्मीदें पूरी नहीं हुई तो क्या होगा? कुछ ऐसा ही डर आम आदमी पार्टी (आआपा ) के नेता अरविंद केजरीवाल के शब्दों में भी था तब जब वह बीते मंगलवार को दिल्ली विधान के लिए हुए चुनाव मेंं जीत का नया अध्याय लिखने के बाद आआपा के पटेल नगर स्थित कार्यालय के बाहर समर्थकों को संबोधित कर रहे थे। उनके चेहरे पर जीत की खुशी तो थी पर उम्मीदों से निकले सवालों का डर भी साफ दिखाई दे रहा था। जैसा कि आआपा मुख्यालय पर कार्यकर्ताओं और समर्थकों को संबोधित करते हुए केजरीवाल ने कहा भी कि, इस जीत से वह डरे हुए हैं क्योंकि लोगों की उम्मीदें बढ़ गई हैं।
जैसे कि केजरीवाल की जीत की मस्ती में मस्त दिलशाद गार्डन स्थित कलंदर कालोनी की झुग्गी बस्ती में रहने वाले खेमचंद टोपी लगाए आआपा नेता से पूछ रहे थे कि, भाई अब कब मिलेगा फलैट? तो ग्रीन फील्ड पब्लिक स्कूल में 11वीं कक्षा में पढ़ने वाले अमित सिरोही को इंतजार है पूरी दिल्ली के वाई-फाई होने का। जाहिर है केजरीवाल का डर गलत नहीं है। कारण 70 सदस्यों वाली दिल्ली विधानसभा के लिए हुए चुनाव में उनकी आम आदमी पार्टी ने 67 सीटों पर जीत हासिल की तो दिल्ली के आम आदमी के जहन में सबसे पहला सवाल तो यही उभर कर आया कि क्या केजरीवाल और उनकी पार्टी अपने वादों को पूरा करेगी? क्या सबको सस्ती बिजली और मुफ्त पानी का वादा पूरा हो पाएगा? दिल्ली के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार बंद होगा? कब बनेंगे 500 नए स्कूल और कब खुलेंगे 20 नए कॉलेज? क्या दिल्ली में अब नहीं होगी कोई बलात्कार की घटना? पूरी दिल्ली होगी वाई-फाई या फिर केजरीवाल के वादे साबित होंगे हवाई?
असल में सवाल खेमचंद और अमित के ही नहीं बल्कि ऐसे सवाल आम आदमी पार्टी की जीत के जश्न के साथ ही दिल्ली के विभिन्न इलाकों में बसी झुग्गी बस्तियों, अनधिकृत कालोनियों और गली मोहल्लों में आम लोगों के बीच हो रही चर्चाओं से निकल रहे हैं। तो राजनीतिक विश्लेषकों के अपने सवाल हैं कि आखिर केजरीवाल जनता से किए वादों को कैसे और कितने समय मेंे पूरा करेंगे? कहां से लाएंगे वादों को पूरा करने के लिए पैसा? कहीं जन उम्मीदों को पूरा करने के नाम पर केंद्र की मोदी सरकार से टकराव की राजनीति का दाव तो नहीं चलेगी केजरीवाल सरकार? दरअसल दिल्ली में आआपा की जीत ने मोटे तौर पर दो सवाल खड़े किए हैं। पहला दिल्ली के विकास से संबंधित है और दूसरा आआपा के उभर से देश की राजनीति पर पड़ने वाला संभावित असर से जुड़ा है। दिल्ली की जनता के मन में केजरीवाल ने जो वादे किए हैं उन्हें लेकर कुछ सवाल हैं।
क्या केजरीवाल भाजपा विरोधी दलों के साथ मिलकर केंद्र की मोदी सरकार को घेरने का काम करेंगे या फिर दिल्ली के विकास पर ध्यान देंगे? बात यदि वादों की जाए तो भारी भरकम जीत के साथ दिल्ली में सरकार बनाने वाले केजरीवाल के लिए दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा दिलवाना कुछ मुश्किल भरा हो सकता है क्योंकि इसका फैसला संसद में होगा। लेकिन दिल्ली वालों के बिजली के बिल आधे करना, सबको पानी मुफ्त देना, तीन हजार से अधिक स्कूलों में खेल के मैदान बनाना, अस्पतालों में सभी को दवाइयां उपलब्ध करवाना जैसे काम करने के लिए केजरीवाल और उनकी सरकार को खुद फैसला लेना है। जहां तक 500 नए स्कूल और 20 नए कॉलेज, अस्पताल खोलने का सवाल है तो इसके लिए भी दिल्ली के मास्टर प्लान में काफी कुछ पहले से भूमि-योजना का प्रावधान है। लेकिन दिल्ली के पूर्व मुख्य सचिव शैलजा चंद्रा कहते हैं कि केजरीवाल सरकार को कॉलेज-अस्पताल जैसी योजनाओं को पूरा करने के लिए भूमि मिलने में दिक्कत नहीं होगी, क्योंकि इन योजनाओं की पूर्ति के लिए दिल्ली विकास प्राधिकरण या केंद्र का शहरी विकास मंत्रालय मास्टर प्लान के मुताबिक केजरीवाल सरकार को भूमि तो उपलब्ध करवा देगा पर असल सवाल यह है कि इन योजनाओं को पूरा करने के लिए केजरीवाल सरकार के पास पैसा कहां से आएगा?
इस सवाल का अहसास केजरीवाल को भी है, लिहाजा मुख्यमंत्री पद की शपथ लेने से पहले ही केजरीवाल और उनके सहयोगियों ने केंद्र की मोदी सरकार के सामने अपनी सरकार के एजेंडे को रखने का काम शुरू कर दिया। केजरीवाल ने केंद्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग रख दी। दिल्ली को पूर्ण राज्य के दर्ज की मांग पुरानी है इस मांग का भाजपा पहले से समर्थन करती रही है लेकिन कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय कारणों के चलते दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का सवाल हमेशा से बहस का मुद्दा रहा है। कारण दिल्ली में दूसरे देशों के दूतावास हैं तो कई राज्यों के भवन। इन दूतावासों, राज्यों के भवनों और इनके अन्य कार्यालयों को भूमि, सुरक्षा और अन्य प्रकार की सुविधाएं उपलब्ध करवाना भारत सरकार का काम है। इसके अलावा एनडीएमसी ऐसा क्षेत्र है जहां भारत के राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री के भवन, संसद भवन के साथ ही अन्य महत्वपूर्ण सरकारी प्रतिष्ठान हैं। जाहिर है दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने का फैसला व्यावहारिक रूप में इतना आसान मामला नहीं है जितना केजरीवाल की मांग से लगता है।
संभवत: केजरीवाल पूर्ण राज्य के दर्जे की मांग को एक मुद्दा बनाकर दोनों हाथों में लड्डू रखने की राह पर चल सकते हैं। यानी यदि पूर्ण राज्य का दर्जा मिल गया तो उपलब्धि और नहीं मिला तो हर समस्या का ठीकरा केंद्र सरकार या किसी और सरकार पर।
असल में चुनाव जीतने के बाद अब केजरीवाल सरकार के सामने वादों को पूरा करने की चुनौती है इसलिए वह पहले से ही ऐसी भूमिका बना रहे जो उन्हें वादों को पूरा न कर पाने के आरोपों से बचा सके और केंद्र को जिम्मेदार ठहरा सके। कहने को तो अरविंद केजरीवाल फिलहाल यही कह रहे हैं कि मेरी सरकार मोदी सरकार से टकराव नहीं सहयोग का रास्ता अपनाएगी ताकि दिल्ली का विकास कर सके।
दअसल यदि इस प्रकार की आशंकाएं खड़ी हो रही हैं तो उसकी वजह पिछली यूपीए सरकार के समय दिल्ली की केजरीवाल सरकार और केंद्र के बीच सुरक्षा व्यवस्था एवं जन लोकपाल बिल जैसे मुद्दों को लेकर बनी टकराव की स्थिति का रिकॉर्ड है। दिल्ली प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश उपाध्याय कहते हैं कि दिल्ली के विकास के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी खुद जोर दे रहें हैं। मोदी चाहते हैं दिल्ली विश्वस्तरीय शहर बने। दिल्ली की जनता ने केजरीवाल और उनकी पार्टी को पूर्ण बहुमत की सरकार दी है। इसलिए केजरीवाल सरकार को तय करना है कि उन्हें क्या करना है। यदि वह केंद्र के साथ सहयोग करेंगे तो निश्चित रूप से उन्हें दिल्ली के विकास के लिए भाजपा सरकार का पूरा रचनात्मक सहयोग मिलेगा। जाहिर है सहयोग के लिए केजरीवाल सरकार को राजनीति से ऊपर उठकर केंद्र के साथ रचनात्मक सहयोग का रास्ता अपनाना होगा।
लेकिन क्या ऐसा हो पाएगा? यह सवाल दिल्ली की राजनीति में आआपा के उभार के साथ ही इसलिए खड़ा हो रहा है क्योंकि भाजपा विरोधी दल और आम आदमी पार्टी के नेता राष्ट्रीय राजनीति में नए समीकरणों के इंतजार में हैं। दिल्ली में जीत के साथ ही आआपा नेताओं ने अपने अगले राजनीतिक पड़ाव के लिए पंजाब को साधने का संकेत देना शुरू कर दिया है। शिरोमणि अकाली दल और भाजपा गठबंधन सरकार वाले इस सूबे में आआपा को राजनीतिक जमीन उर्वरक लग रही है। पर बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री और जनता दल (यूनाइटेड) के नेता नीतीश कुमार की निगाहें केजरीवाल पर टिकी हैं। नीतीश कुमार केजरीवाल पार्टी से नए सियासी समीकरण बनाने के लिए तैयार बैठे हैं। कई और क्षेत्रीय दल भी भविष्य की अपनी राजनीति केजरीवाल के संभावित राजनीतिक विस्तार में देख रहे हैं। हालांकि केजरीवाल ने राष्ट्रीय राजनीति को लेकर अभी अपने पत्ते नहीं खोले हैं पर उनके आस पास जमा नेताओं की महत्वाकांक्षा ओर बातचीत से साफ झलक रहा है कि केजरीवाल को आगे कर आआपा को राष्ट्रीय राजनीति के केंद्र में खड़ा करने का ताना बाना बुना जा रहा है। इसलिए यह सवाल भी खड़ा हो रहा है कि जिस प्रकार से दिल्ली में आआपा गैर कांग्रेस और गैर भाजपावाद की राजनीति का विकल्प बनकर उभरी है, उसी प्रकार राष्ट्रीय राजनीति में भी उसका उदय होगा?
वामपंथियों और समाजवादियों का एक खेमा है जो मौका देखकर गैर कांग्रेसवाद के साथ-साथ गैर भाजपावाद का भी नारा लगाने लगता है। इसलिए केजरीवाल की भावी राजनीति पर सबसे ज्यादा निगाहें वामपंथियों और बिहार के समाजवादी खेमे की लगी हैं। पर असल सवाल यह कि क्या केजरीवाल पार्टी का जलवा दिल्ली के बाहर दूसरे राज्यों में चल पाएगा? कारण हर राज्य की अपनी अलग राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, जातीय स्थितियां हैं। इसलिए यह जरूरी नहीं कि आआपा की सफलता दूसरे राज्यों में भी परवान चढे़। वैसे दिल्ली में भी आआपा की भारी भरकम जीत ने कई सवालों को खड़ा किया है। मसलन दिल्ली विधान सभा की 70 में से 67 सीटें आआपा ने कैसे जीत ली? भाजपा को सिर्फ तीन सीटें क्यों मिली और कांग्रेस को एक भी सीट क्यों नहीं मिली? यदि इन तीन प्रश्नों का एक उत्तर दिया जाए तो कहा जा सकता है कि भाजपा के खिलाफ दिल्ली में सभी राजनीतिक विरोधियों के गोलबंद होने के कारण दिल्ली के चुनाव परिणाम आआपा के पक्ष में गए। माना जा रहा था कि दिल्ली में भाजपा, आआपा और कांग्रेस के बीच मुख्य रूप से मुकाबला होगा लेकिन ऐसा नहीं। कांग्रेस का लगभग पूरा वोट बैंक आआपा की तरफ चला गया और मुकाबला भाजपा बनाम आआपा हो गया। हालांकि यदि मत प्रतिशत की बात की जाए तो भाजपा को लगभग औसतन उतने वोट मिले जितने पूर्व के विधानसभा चुनाव में मिलते रहे हैं। लेकिन कांग्रेस जो वोट बैंक आआपा की तरफ गया उसके चलते केजरीवाल पार्टी ने दिल्ली की राजनीति को कांग्रेस मुक्त कर नया राजनीतिक अध्याय लिख दिया। कांग्रेस के चुनाव प्रभारी अजय माकन भी कहते हैं कि उनके वोट आआपा को चले गए, ऐसी स्थिति का न उन्हें, न उनकी पार्टी को ही अंदाजा था। कांग्रेस की कीमत पर दिल्ली में खड़ी हुई आम आदमी पार्टी को करीब 54 फीसदी वोट मिले। आआपा के वोट प्रतिशत में करीब 25 प्रतिशत का इजाफा हुआ।
यह एक सच है कि दिल्ली में भाजपा का अपना बड़ा जनाधार है लेकिन साथ ही इस सच को नहीं नकारा जा सकता कि दिल्ली में भाजपा विरोधी एक बड़ा वर्ग है जो भाजपा को रोकने के लिए पूर्व में कांग्रेस के पीछे गोलबंद रहता था और जब उसे यह लगा कि भाजपा को केजरीवाल पार्टी रोक सकती है तो यह वर्ग कांग्रेस को छोड़ कर केजरीवाल के साथ चला गया। मुस्लिम वर्ग को रिझाने के लिए केजरीवाल ने अपने ढंग से राजनीति दाव चला। उन्हें इस बात का अहसास था कि इस बार जामा मस्जिद के इमाम की अपील के बावजूद दिल्ली का मुस्लिम समाज आम आदमी पार्टी को वोट देने वाला है इसलिए जब अहमद बुखारी ने मुसलमानों से आआपा को वोट देने का फतवा दिया तो आआपा ने उसे अस्वीकार कर यह संदेश देने का दाव चला कि आआपा फतवा राजनीति के खिलाफ है। लेकिन पूर्व आईपीएस और भाजपा नेता किरण बेदी की माने तो कृष्णा नगर विधानसभा क्षेत्र से उनकी हार की वजह बुखारी के फतवेे की राजनीति है।
वैसे चुनाव जीतने के लिए दिल्ली में इस बार कई तरह के राजनीतिक खेल खेले गए। इसका अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि दिल्ली के विकासपुरी क्षेत्र में एक चर्च में कथित चोरी की घटना को ऐसे प्रचारित किया जैसे चर्च को निशाना बनाया गया। नाराज ईसाई समाज सड़क पर उतर आया। यह खबर कैसे बनी, कहां से निकली और इसका क्या असर हुआ, किसने राजनीतिक फायदा उठाया? ये ऐसे सवाल हैं जो साबित करते हैं कि भाजपा पर सत्ता के लिए सांप्रदायिक राजनीति का आरोप लगाने वाले सत्ता के लिए भाजपा के खिलाफ कैसे अल्पसंख्यकों को भड़काने, उनका इस्तेमाल और झूठी कहानी गढ़ने का काम करते हैं। दिल्ली में मोटे तौर पर ईसाई समाज कांग्रेस को वोट देता रहा है। लेकिन इस बार कांग्रेस का यह वोट बैंक भी आआपा की तरफ चला गया। तो क्या दिल्ली में चर्चों को निशाना बनाना भी भाजपा विरोधियों की अल्पसंख्यकों को गोलबंद करने की रणनीति का हिस्सा था? पिछली गलती के लिए जनता से माफी मांग केजरीवाल ने मध्यम वर्ग को भी साधने काम कर लिया। परिणाम आआपा को समाज के सभी तबकों का समर्थन मिला।
पर सवाल यह भी कि भाजपा क्यों हारी? क्या किरण बेदी को मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार बनाना सही फैसला था? यदि हर्षवर्धन या दिल्ली का कोई अन्य भाजपा नेता मुख्यमंत्री पद का उममीदवार होता या बिना मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किए भाजपा चुनाव लड़ती तो क्या कोई दूसरी तस्वीर होती? क्या मोदी सरकार के आठ माह के शासन की उपलब्धियों को दिल्ली भाजपा के नेता जनता तक पहुंचाने में नाकाम रहे या सिर्फ मोदी नाम के सहारे चुनाव जीतने की आस लगाए बैठे थे? या फिर संगठन में एकजुटता, रणनीति और सबसे जरूरी कार्यकर्ता की भावनाओं के सम्मान की कमी हार की वजह रही? बहरहाल हार के बाद ऐसे सवाल उठते हैं पर भाजपा की हार से जुडे़ सवालों को लेकर लोग बंटे हुए हैं। इन सवालों के उत्तर तलाशने निकले तो लोगों की राय भी अलग अलग बंटी हुई थी। वैसे यदि दिल्ली के राजनीतिक इतिहास को देखा जाए तो 1993 में भाजपा ने पहली बार दिल्ली में सरकार बनाई थी। उस बार भी मुकाबला भाजपा और कांग्रेस के बीच हुआ था लेकिन मंडल की राजनीति के चलते जनता दल ने मुकाबले को त्रिकोणिय बना दिया। उस चुनाव में जनता दल को करीब 18 प्रतिशत मत मिले थे और उसके चार विधायक दिल्ली में जीते थे। त्रिकोणिय मुकाबले की स्थिति में भाजपा ने बहुमत के साथ दिल्ली में सरकार बनाई लेकिन उसके बाद से दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा का मुकाबला कांग्रेस से सीधा होता रहा। लिहाजा भाजपा सत्ता से बाहर रही। 2013 के दिल्ली विधान सभा चुनाव में मुकाबला भाजपा, कांग्रेस और आआपा के बीच हुआ और भाजपा सबसे अधिक सीटें जीत कर बड़ी पार्टी के रूप में उभर आई, लेकिन 2015 में मुकाबला सीधा हुआ तो भाजपा को नुकसान हुआ, कांग्रेस साफ हो गई और कांग्रेस का लगभग पूरा वोट बैंक खिसक गया परिणाम दिल्ली में बहुमत के साथ आआपा की सरकार बन गई।
वादा तो ठीक,पर निभाओगे कैसे?
आम आदमी पार्टी को दिल्ली में प्रचंड बहुमत मिला है। इतिहास में इतना बड़ा बहुमत किसी राज्य में किसी राजनैतिक दल को नहीं मिला। अब समय है जो कहा उसे करने का। अरविंद केजरीवाल ने जनता से जो लुभावने वादे किए उन्हें वे कितना पूरा कर पाते हैं ये एक बड़ा सवाल है। यदि वे वादे पूरे नहीं करते हैं तो जनता उन्हें बुरी तरह नकार देगी, यदि करते हैं तो उसके लिए बजट कहां से लाएंगे। केजरीवाल बार- बार दावा करते हैं कि मैं बनिया हूं, मुझे धंधा करना आता है। इन पंक्तियों को केजरीवाल अपने सभी साक्षात्कारों में दोहराते दिखाई दिए हैं। वे कहते हैं, उनके पास दिल्ली की जनता से किए वादों को पूरा करने की पुख्ता योजनाएं हैं। जिन पर चरणबद्ध तरीके से काम किया जाएगा। बहरहाल, जो होगा वह सबके सामने आ ही जाएगा। आगे के पन्नों में देखते हैं कि केजरीवाल के वादे क्या हैं और उन्हें पूरा करने में अड़चन क्या आएगी।
केजरीवाल प्राथमिकताएं तय करके काम करें तो बेहतर
शक्ति सिन्हा
अरविंद केजरीवाल ने जो वादे किए हैं उन्हें पूरा करना लगभग असंभव है। यदि दिल्ली की आर्थिक स्थिति को देखते हैं तो सभी वादे पूरे नहीं किए जा सकते। दिल्ली एक केंद्र शासित प्रदेश है। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा नहीं है। जब तक दिल्ली की आर्थिक स्थिति अच्छी है यानी जितना राजस्व दिल्ली को मिलता है यदि उससे कम खर्चा है तो दिल्ली अपने राजस्व से कुछ भी कर सकती है, लेकिन यदि खर्चा ज्यादा होता है तो दिल्ली सरकार को केंद्र सरकार के पास जाना पड़ेगा। तब केंद्र को निर्णय लेना होगा कि वह किस मद में दिल्ली को कितना पैसा आवंटित करे। केंद्र शासित प्रदेश होने के कारण दिल्ली को दूसरे राज्यों की तरफ बाजार से कर्ज लेने का भी अधिकार नहीं है। अगर ऐसा होता है तो केजरीवाल क्या करेंगे? यदि वे केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ते हैं तो सोचने वाली बात है कि केंद्र सरकार भी पैसा कहां से देगी? केंद्र को बाकी के सारे राज्यों को देखना पड़ता है। केंद्र सरकार भी अपनी मर्जी से किसी को पैसा आवंटित नहीं करती वित्त आयोग की सिफारिश के आधार पर राज्यों को पैसा आवंटित किया जाता है।
केजरीवाल ने जो वादे किए हैं उनमें 15 लाख सीसीटीवी कैमरे, 500 नए स्कूल, 20 डिग्री कॉलेज व अस्पताल आदि का निर्माण करना है। स्कूल व कॉलेज बनाने के लिए जमीन चाहिए। इसके लिए अनुमति दिल्ली विकास प्राधिकरण से लेनी होगी। जबकि दिल्ली विकास प्राधिकरण केंद्रीय शहरी विकास मंत्रालय के अंतर्गत आता है। दिल्ली विकास प्राधिकरण की अपनी योजनाएं है। जिसके अनुसार वह अपने प्रोजेक्ट पर काम करता है। ऐसे में उसकी योजनाओं में हस्तक्षेप करना भी संभव नहीं होगा। इसलिए अब जब केजरीवाल सत्ता में आ गए हैं तो उन्हें सोचना पड़ेगा कि जो-जो वादे हमने किए हैं उनमें से हमारी प्राथमिकता क्या होगी। यदि वे अपने वादों की समीक्षा करें और इसके बाद कोई निर्णय लें तो ही बेहतर होगा। केजरीवाल को चाहिए कि वे दिल्ली के हित को देखते हुए अपने वादों को पूरा करने का प्रयास करें। पहले वे प्राथमिकता तय करें कि सीमित बजट में किस तरह से कितना ज्यादा से ज्यादा काम किया जा सकता है। यदि वे इस मुद्दे पर केंद्र को घेरने की कोशिश करेंगे तो उन्हें समझना चाहिए कि यदि केंद्र पूरी कोशिश भी करे तो दिल्ली को इतना फंड मुहैया नहीं करा पाएगा जितने का केजरीवाल ने वादा किया है। फिर चाहे केंद्र में भाजपा की सरकार हो या अन्य किसी दल की, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता।
(लेखक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी और दिल्ली सरकार में प्रधान सचिव (वित्त-ऊर्जा) रहे हैं। )
पानी
पेंच
पिछली बार जब केजरीवाल ने 20 हजार लीटर पानी यानी लगभग 667 लीटर पानी मुफ्त देने की बात कही थी तो उनकी योजना 3 महीने चली थी। इस योजना पर तीन महीने के दौरान 40 करोड़ रुपए खर्च हुए थे। यदि वर्षभर ऐसा ही रहता तो 160 करोड़ रुपए खर्च होते। यानी दिल्ली जलबोर्ड को 160 करोड़ रुपए का घाटा होता।
यदि पानी की बात करें तो तो केजरीवाल का दावा है कि 20 हजार लीटर पानी हर बिजली वाले को मुफ्त देंगे। यदि इससे ज्यादा पानी खर्च हुआ तो पूरा बिल भरना पड़ेगा। सामान्य सी बात है पांच लोगों के एक परिवार में खाना बनाने से लेकर नहाने और कपड़े धोने तक लगभग 800 से एक हजार लीटर पानी प्रतिदिन खपत होती है। ऐसे में इस वायदे का तो कोई फायदा नजर नहीं आता। वैसे भी दिल्ली में सात लाख झुग्गीवासी हैं। इसके अलावा करीब 40 लाख लोग ऐसे हैं जहां आज तक पानी की पाइप लाइन ही नहीं पहुंची है। ऐसे में इन जगहों पर पानी पहुंचाना भी एक बड़ा काम है।
पानी को लेकर और भी कई सवाल हैं जिन पर ध्यान देना बेहद जरूरी है।
दिल्ली की जनसंख्या लगभग 1 करोड़ 80 लाख है। तकरीबन 40 लाख लोग ऐसे इलाकों में रहते हैं जहां पानी की पाइप लाइन ही नहीं है। ऐसे लोगों को टैंकर के जरिए पानी दिया जाता है। दिल्ली जलबोर्ड का सालाना बजट करीब एक हजार करोड़ रुपए है। जिसमें से सीवेज सिस्टम और पानी को लोगों तक पहुंचाने का खर्च भी दिल्ली जलबोर्ड को उठाना पड़ता है। ऐसे में कैसे लोगों को मुफ्त पानी मिलेगा ये सोचने की बात है।
केजरीवाल के बड़े-बड़े वादे
बिजली के दामों में 50 प्रतिशत कटौती, हर महीने दिल्ली वालों को 20 हजार लीटर मुफ्त पानी ,दिल्ली को फ्री वाई-फाई जोन बनाना, दिल्ली के चप्पे-चप्पे पर नजर रखने के लिए 15 लाख सीसीटीवी कैमरे लगाना और ठेके व अस्थायी तौर पर नौकरी करने वाले कर्मचारियों को स्थायी करना।
अब नजर डालते हैं दिल्ली के बजट पर। दिल्ली का वार्षिक बजट मात्र 37 हजार करोड़ रुपये है। जबकि अरविंद केजरीवाल के वादों की कीमत उससे कई गुणा ज्यादा है। सवाल उठता है कि इतनी रकम अरविंद केजरीवाल कहां से लाएंगे। जानकारों का कहना है कि जब केजरीवाल अपने किए हुए वादों को पूरा नहीं कर पाएंगे तो ठीकरा केंद्र के सिर फोड़ने की पुरजोर कोशिश करेंगे। उनका रटा रटाया यही जवाब होगा कि केंद्र उन्हें पैसा नहीं दे रहा है।
सबसे पहले नजर डालते हैं दिल्ली में बिजली की स्थिति और उसकी मौजूदा कीमतों की। पिछली बार जब केजरीवाल की सरकार बनी तो उन्होंने महज 400 यूनिट तक बिजली के दाम आधे करने की घोषणा की थी। इसके लिए बिजली कंपनियों को सरकार की तरफ से सब्सिडी दी गई थी। इस बार भी केजरीवाल ने बिजली के बिल आधे करने का वादा किया है लेकिन कितने यूनिट तक बिजली के बिल आधे किए जाएंगे, इस संबंध में कोई जिक्र घोषणापत्र में नहीं किया गया है। ऐसे में अगर दिल्ली के हर घर की बिजली का बिल आधा होगा तो क्या होगा।
ल्ल बिजली की 0 से 200 यूनिट तक के लिए दिल्लीवासियों से 2 रुपये 80 पैसे प्रति यूनिट की दर से पैसे लिए जाते हैं , इस पर सरकार की तरफ से 1 रुपये 20 पैसे सब्सिडी मिलती है।
ल्ल इसके बाद 201 से 400 यूनिट तक 5 रुपए 15 पैसे प्रति यूनिट बिजली कंपनियां लेती हैं। इस पर सरकार की सब्सिडी होती है 80 पैसे प्रति यूनिट।
ल्ल यदि इस कुल सब्सिडी का हिसाब लगाएं तो दिल्ली सरकार सालाना करीब 300 करोड़ इस मद में खर्च करती है।
ल्ल वर्ष 2013 में सरकार बनाने के बाद केजरीवाल ने सिर्फ 400 यूनिट तक बिजली के बिल आधे करने का ऐलान किया था। केजरीवाल ने जो सब्सिडी दी वह सिर्फ 3 महीने चली। इस दौरान सब्सिडी के लिए दिल्ली के खजाने से 200 करोड़ रुपए खर्च हुए। यदि यही स्थिति वर्ष भर रहती तो 400 यूनिट के लिए वर्ष भर में 800 करोड़ रुपए सब्सिडी देनी पड़ती।
पेंच
ल्ल पूरी दिल्ली का सालाना बिजली का बिल करीब 3000 करोड़ रुपए आता है। यदि केजरीवाल बिजली की कीमतें आधी करते हैं तो उन्हें 1500 करोड़ रुपए की सब्सिडी देनी होगी। इसका अर्थ हुआ अगले पांच वर्षों में बिजली की सब्सिडी पर दिल्ली सरकार को 7500 करोड़ रुपए खर्च करने होंगे।
ल्ल अब बात करें बिजली कंपनियों की। बिजली कंपनियां 5 रुपए 60 पैसे प्रति यूनिट की दर से बिजली खरीद कर आगे दे रही हैं। उन्हें 22 हजार करोड़ से ज्यादा का घाटा पूरा करने के लिए अगले तीन साल तक 10 प्रतिशत की दर से हर वर्ष बिजली की कीमतें बढ़ानी होंगी। केजरीवाल का दावा है कि वे बिजली कंपनियों का ऑडिट कराएंगे। इसके बाद बिजली की कीमतें आधी की जाएंगी। देखना यह है कि ये सब कैसे हो पाएगा।
मुफ्त वाई-फाई
दिल्ली को ग्लोबल सिटी बनाने और पूरी दिल्ली को फ्री वाई-फाई जोन घोषित करने का वादा करके केजरीवाल युवाओं के बीच सबसे ज्यादा चर्चा में आए हैं।
पेंच
यदि दिल्ली की बात करें तो दिल्ली का क्षेत्रफल 1484 वर्ग किलोमीटर और आबादी 1 करोड़ 80 लाख है। दिल्ली को मुफ्त वाई-फाई जोन बनाने के लिए 1500 करोड़ रुपए का खर्च आएगा। इसकी देखभाल के लिए सर्वर और तमाम चीजों पर खर्चा अलग है। हाल ही में प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी के क्षेत्र वाराणसी में में दशाश्वमेध और शीतला घाट को फ्री वाई-फाई जोन बनाया गया है। इस योजना पर लगभग 100 करोड़ रुपए खर्च होंगे। इसमें भी सीमा तय है कि मात्र 30 मिनट तक वाईफाई का फ्री इस्तेमाल किया जा सकता है। इसके बाद 30 मिनट के लिए 20 रुपये, 60 मिनट के लिए 30 रुपये, 120 मिनट के लिए 50 रुपये, पूरे दिन के लिए 70 रुपये आपको अपनी जेब से खर्च करने पड़ेंगे। केजरीवाल के घोषाण पत्र में इस बात का भी कोई ब्योरा नहीं है कि कितनी देर इंटरनेट का इस्तेमाल मुफ्त होगा।
सीसीटीवी कैमरे
आम आदमी पार्टी ने ने पूरी दिल्ली में 15 लाख सीसीटीवी कैमरे लगाने की घोषणा की है। ताकि सुरक्षा व्यवस्था को चाक चौबंद किया जा सके विशेषकर महिलाओं की सुरक्षा में कोई चूक न रहे।
पेंच
यदि सस्ते से सस्ते सीसीटीवी कैमरे की बात करें तो एक कैमरा लगभग 2 हजार रुपए में आता है। ऐसे में 15 लाख कैमरे खरीदने का खर्च ही 300 करोड़ रुपए होगा। सर्वर और कैमरों को मॉनीटर करने का खर्च अलग। उनकी निगरानी के लिए रखे जाने वाले विशेषज्ञों और तकनीशियनों की तनख्वाह का खर्च अलग। जानकारों की मानें तो कैमरों का खर्च ही दिल्ली के बजट से ज्यादा हो जाएगा। उदाहरण के तौर पर मुंबई में 26/11 के आतंकी हमले के बाद सुरक्षा की दृष्टि से 6000 कैमरे लगाने की घोषणा की गई थी। हाल ही में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री देवेंद्र फडनवीस ने हाल में एक कंपनी के साथ करार किया है। जिसके तहत शहर भर में 6000 सीसीटीवी कैमरे लगाने और उन्हें एक सर्वर से जोड़ने में लगभग 949 करोड़ रुपए खर्च आएगा। ऐसे में दिल्ली में 15 लाख कैमरे कैसे लगाएं जाएंगे ये केजरीवाल ही जानते हैं।
स्कूल और कॉलेज
अपने घोषणा पत्र में आम आदमी पार्टी ने 500 नए स्कूल और 20 नए डिग्री कॉलेज खोलने की घोषणा की है।
पेंच
जाहिर सी बात है कि स्कूल और कॉलेज खोलने के लिए जमीन की जरूरत पड़ेगी। जबकि केंद्रशासित प्रदेश होने के चलते जमीन से जुड़े सारे अधिकार शहरी विकास मंत्रालय के पास हैं। ऐसे में बिना केंद्र सरकार की अनुमति के स्कूल और कॉलेज कैसे खोले जाएंगे। फिर स्कूल बनाने के लिए फंड और उनमें शिक्षकों की नियुक्ति करने के लिए भी खर्च बढ़ेगा। ऐसे में केजरीवाल सीधे केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ने से नहीं चूकेंगे।
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा और दिल्ली पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन देना
पेंच
दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा देने के लिए लोकसभा में विधेयक लाना होगा। लोकसभा और राज्यसभा से पारित होने के बाद ही ऐसा संभव है। जहां तक पुलिस को दिल्ली सरकार के अधीन देने के बाद है तो इसके लिए गृहमंत्रालय के पास अधिकार हैं।
अस्थाई कर्मचारियों को पक्की नौकरी
अरविंद केजरीवाल ने दिल्ली में अस्थाई और दैनिक दिहाड़ी पर नौकरी करने वाले कर्मचारियों को भी स्थाई करने का वादा किया है। दिल्ली में ऐसे करीब एक लाख कर्मचारी हैं। इनमें होमगार्ड के जवान भी शामिल हैं।
पेंच
दिल्ली सरकार के श्रम विभाग के अनुसार अनुबंध पर काम करने वाले अकुशल मजदूरों को हर महीने करीब 7 हजार 700 रुपए दिए जाते हैं। जबकि स्नातक कामगारों को हर महीने लगभग 10 हजार रुपए दिए जाते हैं। यदि अपने वादे के अनुसार केजरीवाल सभी को नियमित करते हैं तो उन्हें सातवें वेतन आयोग के अनुसार पूरी तनख्वाह देनी होगी। 10 हजार के हिसाब से एक लाख कर्मचारियों की तनख्वाह पर एक महीने में 100 करोड़ रुपए खर्च होते हैं। यानी वर्षभर में 1200 करोड़ रुपए। यदि इस हिसाब से 1 लाख कर्मचारियों की तनख्वाह महीने में 20 हजार भी बनती है तो एक महीने का खर्च आता है लगभग 200 करोड़ रुपए। यानी वर्षभर में कर्मचारियों की तनख्वाह हो जाती है तकरीबन 2400 करोड़ रुपए अब ऐसे में केजरीवाल पैसा कहां से लाएंगे ये सोचने वाली बात है।
टिप्पणियाँ