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आलोक गोस्वामी
सितंबर 2014 में चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग की भारत यात्रा के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने अमदाबाद में उनकी अगवानी की थी। जिनपिंग ने वहां अन्य स्थानों के अलावा साबरमती नदी के तट पर बने साबरमती आश्रम देखा और सुन्दर बगीचे का भरपूर आनंद लिया। उस दौरान ठेठ गुजराती अंदाज वाले झूले में रिश्तों की पींग बढ़ाते प्रफुल्लित चीनी राष्ट्रपति और प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीर खूब छपी थी। उसे देखकर भारत के सत्ता अधिष्ठान के केन्द्र साउथ ब्लॉक या ग्रेट हॉल ऑफ पीपुल के उन कुछ मंदारिनों का ठगा सा रह जाना अस्वाभाविक नहीं था जो आज भी 62 के धरातल पर खड़े दुनिया की दो प्राचीनतम संस्कृतियों का एक मंच पर आना दूर की कौड़ी मानते आ रहे थे। खासकर तब जब उन्होंने जनवरी, 2015 में हैदराबाद हाउस के लॉन में मोदी और अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा को मिलकर चाय पीते, हंसते-खिलखिलाते अंतरराष्ट्रीय राजनीति पर चर्चा करते देखा। उन्हें इस बात में रत्ती भर संदेह नहीं रहा कि अब चीनी कामरेडों की भौहें तनेंगी और नई दिल्ली और बीजिंग के बीच रिश्तों में दिखती वर्चुअल यानी आभासी दूरी और गहराएगी। लेकिन राष्ट्रपति ओबामा के दिल्ली से रवाना होने के महज तीन दिन बाद विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की कुनमिंग होते हुए, बीजिंग की चार दिन (31 जनवरी से 3 फरवरी, 2015) की यात्रा भारत की सत्ता में अभी साढ़े सात महीने पहले ही आई प्रधानमंत्री मोदी की सरकार की विदेश नीति के उस आयाम को रेखांकित करती है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत को एक कद्दावर देश के नाते स्थापित करने का संकल्प किए है। भारत जानता है कि 21वीं सदी में भारत की अंतरराष्ट्रीय राजनीति में विशेष भूमिका रहने वाली है और इस दृष्टि से वह हर उस देश के साथ संबंध बेहतर बनाने को तैयार है जो उसे क्षेत्रीय और वैश्विक स्तर पर आगे बढ़ने में मददगार हो सकते हैं। अपने शपथ
ग्रहण कार्यक्रम में पड़ोसी देशों के नेताओं को खास तौर पर आमंत्रित करके मोदी ने भविष्य की कूटनीति का सूझबूझ भरा परिचय दे ही दिया था।
सुषमा स्वराज की बीजिंग की इस यात्रा के पीछे भी भारत की कूटनीतिक समझ का ही एक खास आयाम झलकता है। और वह यह है कि अमरीका के साथ रक्षा और ऊर्जा के क्षेत्र में हम आगे बढ़ेंगे ही, लेकिन दुनिया के इस पाले यानी एशिया में भी हम बड़ी ताकतों के साथ साझे हितों की डगर पर बढ़ने से नहीं चूकेंगे। सरकार बनने के बाद, सुषमा की चीन यात्रा को इसी परिप्रेक्ष्य में आंकने की जरूरत है। चीन के विदेश मंत्री के अलावा वहां के राष्ट्रपति जिनपिंग का भारत की विदेश मंत्री से विशेष तौर पर मिलना भी चीन की उस मानसिक तैयारी की ओर इशारा करता है जो उसने भारत को एशिया की एक बड़ी ताकत के रूप में पहचानकर दिखाई है, वह भी भारत के साथ विवाद के तमाम मुद्दे सुलझाकर अंतरराष्ट्रीय आर्थिक शक्ति बनने की राह पर बढ़ना चाहता है, जिसके लिए सड़क और समुद्र के रास्ते कारोबार करने के लिए भारत एक अहम सहयोगी बन सकता है। इस पृष्ठभूमि में सुषमा स्वराज ने नई दिल्ली- बीजिंग के बीच रिश्ते बढ़ाने के लिए छह सूत्रीय परिकल्पना रखी है उसकी जड़ में ही 'आउट ऑफ बाक्स' यानी कुछ अलग हटकर कुछ नया सोचने का आह्वान है, भारत और चीन के मिलकर एशिया की सदी बनाने का आह्वान है।
सुषमा स्वराज के बीजिंग दौरे को मुख्य रूप से पांच आयामों पर आंकने की जरूरत है। एक, 62 से आगे, संबंधों में चुभने वाले मुद्दों के समाधान सहमति के साथ तीव्रता से हों। दो, सामा विवाद पर धुंधलका छंटे और एक दूसरे की संप्रभुता का सम्मान हो। तीन, व्यापार और दूसरे साझा आर्थिक हितों पर गौर हो। चार, चीन की महत्वकांक्षी परियोजना 'मेरीटाइम सिल्क रूट' के बारे में और स्पष्टता हो। और पांच, दोनों देशों के बीच लोगों के स्तर पर आना-जाना बढ़े, एक- दूसरे से नजदीकी बढ़ाने के सार्थक प्रयास हों। भारत की विदेश मंत्री ने बीजिंग में जो दृष्टि पत्र रखा है उसका केन्द्रीय बिन्दु ही था- साझे प्रयास से एशिया की सदी बनाई जाए जिसके लिए अलग हटकर सोचने की जरूरत है।
इसमें दो राय नहीं है कि 62 के बाद भले भारत की गंगा और चीन की यांग्जी नदियों में बहुत पानी बह चुका है, पर भारत की सुरक्षा चिंताओं से चीन अनजान नहीं है, न ही भारत सहयोग के नाम पर उन चुभती यादों को भुला सकता है। इसलिए लद्दाख में आएदिन की चीनी घुसपैठ, हिन्द महासागर में चीन के 'कारोबारी आधार', अरुणाचल पर चीन का रुख, 'स्टेपल' वीसा, पाक अधिकृत जम्मृ-कश्मीर में चीनी सैनिकों की कथित मौजूदगी, गिलगित-बाल्टिस्तान तथा सियाचिन में चीनी दखल आदि ऐसे मुद्दे हैं जिनको ध्यान में रखते हुए और उन पर शीर्ष स्तर पर बाकायदा साफ बातचीत करते हुए, दो जिम्मेदार आर्थिक ताकतों के नाते रिश्ते आगे बढ़ाना समय की आवश्यकता है जिससे मुंह फेरना रेत में शुतुरमुर्ग की तरह सिर धंसाए रखने जैसा होगा। चीन ने भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों में व्यावहारिकता के महत्व को पहचाना, यह सुषमा स्वराज की मौजूदगी में वहां के विदेश मंत्री वांग यी के कथन से साफ हो जाता है। यह पूछे जाने पर कि भारत और अमरीका के बीच रिश्तों में आई गर्मजोशी को चीन किस नजरिए से देखता है, यी ने कहा, भारत के अमरीका से अपने संबंध हैं, हमारे उसके साथ अपने संबंध हैं। भारत के अच्छे दोस्त के नाते हम चाहते हैं कि भारत सबसे दोस्ती करे। वांग ने खुलकर कहा कि बीजिंग भारत की जिम्मेदार सरकार के नाते मोदी सरकार से संबंध बढ़ाने का इच्छुक है, वैसे ही जैसे अमरीका भारत की काम करने में विश्वास करने वाली मौजूदा भाजपानीत सरकार से नजदीकी चाहता है। मोदी सरकार ने अब तक के साढ़े सात महीने के अपने शासन में इस बात के पर्याप्त संकेत दिए हैं कि सुरक्षा, प्रौद्योगिकी, संचार, तकनीक, व्यापार वगैरह में भारत अन्य देशों के साथ साझे हित के मार्ग तलाशने में पीछे नहीं रहेगा। दिल्ली में अब एक फैसला लेने वाली सरकार है।
राष्ट्रपति जिनपिंग प्रधानमंत्री मोदी को अपने गृह प्रांत झियांग दिखाने को उत्सुक हैं, ठीक वैसे ही जैसे मोदी ने उन्हें गुजरात दिखाया था। मोदी के चीन जाने की बात चल रही है और बहुत संभव है वे आने वाली मई में चीन के दौरे पर जाएं। लेकिन उससे पहले दोनों देशों के बीच संबंधों को आगे बढ़ाने के सूत्रों को पूरी तरह व्यवहार में उतारना होगा। सुषमा स्वराज ने जमीनी स्तर पर काम करने का नजरिया अपनाने पर बल दिया जिसे बीजिंग ने भी माना और स्वराज के अलग हटकर सोचने के मंत्र की सराहना की। सीमा विवाद पर सुषमा स्वराज ने कहा कि ये ऐसा मुद्दा है जिसे ज्यादा लंबे समय तक लटकाए नहीं रखा जाना चाहिए। उनकी इस बात से नि:संदेह भारत की इस ओर गंभीरता तो झलकती है कि सीमा पर अस्पष्टता की आड़ में चीनी घुसपैठ रुकनी चाहिए। क्षेत्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साथ बढ़ने के नए आयाम खोजने और रणनीतिक आदान-प्रदान के विस्तार का आह्वान किया गया है। भारत के विदेश मंत्री ने इशारा किया है कि दिल्ली आगे बढ़ने को तैयार है, इसके लिए तय कूटनीतिक रस्मो-रिवाज से थोड़ा हटकर भी गुजरना पड़े तो उससे गुरेज नहीं है। अमरीका से हों, या चीन से, साझे हितों के लिए अंतरराष्ट्रीय स्तर पर संबंध बनाने से गुरेज नहीं है। अमरीका और चीन ने भी इस बात को स्वीकारा है कि भारत को इसके या उसके पाले में देखने के बजाय बराबरी के साथी के नाते देखना ही समय की मांग है। शायद इसीलिए भारत के अमरीका से दोस्ती बढ़ाने की पहल को चीन के विदेश मंत्री ने सहजता से स्वीकारा है।
चीन ने भरोसा दिलाया है कि वह एशिया-पेसेफिक इकोनॉमिक को-आपरेशन (एपेक) में भारत की सदस्यता के लिए अपना समर्थन देगा। इसी तरह ओबामा ने भी दिल्ली में कहा था कि वह संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में भारत की स्थायी सदस्यता का समर्थन करेगा। सुरक्षा की जहां तक बात है तो भारत को अमरीका का सहयोग भू-राजनीतिक दृष्टि से फायदे की स्थिति में रखेगा, लेकिन चीन के साथ मामला पीओके में दखल और पाकिस्तान को उसकी रणनीतिक मदद से कहीं बढ़कर है। अमरीका दूर है लेकिन दिल्ली से चीन नजदीक है इसलिए सुरक्षा के लिहाज से चीन को साथ लेना कई रक्षा चिंताओं से निजात दिला सकता है।
सुषमा स्वराज के दौरे के बाद भारत-चीन व्यापार के बढ़ने के कयास लगाए जाने लगे हैं क्योंकि भारत की विदेश मंत्री ने चीनी सामान से पटे भारतीय बाजारों के बरअक्स भारतीय सामान के चीनी बाजारों तक आसान पहंुच संबंधी बात भी की है। जब किसी देश की ताकत उसकी अर्थव्यवस्था की मजबूती से आंकी जाती हो तो ऐसे वक्त में कारोबार बढ़ाने के हर तरह के प्रयास करने में समझदारी ही है। एपेक की सदस्यता भारत के लिए दीर्घकालिक लाभ का सौदा है। रूस और चीन, दोनों की इस बारे में सहमति भी बनी है। 'मेरीटाइम सिल्क रूट' को शुरू करने और बंगलादेश, चीन, भारत और म्यांमार (बीसीआइएम) आर्थिक कॉरिडोर पर बात हुई है। वरिष्ठ रक्षा विश्लेषक आलोक बंसल का मानना है कि 'मेरीटाइम सिल्क रूट' हिन्द महासागर के रास्ते व्यापार बढ़ाने की चीनी परियोजना को लेकर भारत की अपनी कुछ आशंकाएं हैं। भारत ने इस पर अभी अपनी सहमति नहीं दी है। वह चाहता है कि इस जुड़े तमाम पहलुओं पर बारीकी से विचार किया जाए। इसमें एक महत्वपूर्ण आयाम यह भी है कि राष्ट्रपति जिनपिंग की इसमें खास दिलचस्पी है क्योंकि उन्हें लगता है कि इसके जरिए सड़क और सागर के रास्ते यूरेशियाई (यूरोप-एशियाई) आर्थिक जुड़ाव हासिल हो सकता है। इस मार्ग को ऊर्जा पाइपलाइनें, फाइबर ऑप्टिक महामार्ग, औद्योगिक पार्क और स्मार्ट शहरों का संजाल निखारेगा।
भारत के लिए हिन्द महासागर में चीन पिछले लंबे समय से कथित 'कारोबारी आधार' तैयार करने में लगा है जो उसके अनुसार, सागर के रास्ते उसके जहाजों के गुजरने के लिए जरूरी हैं। लेकिन भारत के कई रणनीतिक विशेषज्ञ इन्हें चीन की उस 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' नीति का हिस्सा बताते हैं जो भारत को चारों ओर से घेरने को चीन ने तैयार की है। इस पर पूर्व विदेश सचिव शशांक ने पाञ्चजन्य को बताया कि भारत को शीर्ष स्तर पर बातचीत के जरिए यह स्पष्ट कर देना चाहिए कि उन 'कारोबारी' आधारों के रणनीतिक तौर पर इस्तेमाल होने का खतरा है इसलिए बीजिंग उन पर अपना नजरिया साफ करे। (देखें बाक्स, पृ. 12)
अंतरराष्ट्रीय मुद्दों पर विमर्श के बीच जहां कभी जी-2 की बातें सुनाई देती थीं, आज उसकी जगह उधर अमरीका और इधर चीन व भारत ने ले ली है। तेजी से बढ़ती दुनिया में किसी से अलग-थलग रहने को समझदारी नहीं कहा जा सकता। विश्व राजनीति में द्विपक्षीय संबंधों की बुनियाद साझी चिंताओं से सरोकार रखते हुए साझा हितों के लिए काम करने पर टिकी होती है। पाकिस्तान जिस तरह से आतंकवाद को भारत और दूसरे देशों में भेज रहा है उसकी असलियत से अमरीका और चीन अनजान होंगे, ऐसा नहीं माना जा सकता। दोनों देश जानते हैं कि पाकिस्तान किसी तरह भरोसे लायक मुल्क नहीं है, बावजूद इसके कि इस दानव ने उसे भी बुरी तरह आहत किया हुआ है। चीन सिंक्यांग प्रांत में खुद उइगर मुसलमानों से मजहबी कट्टरवाद, अलगाववाद और विद्रोह का सामना कर रहा है, ऐसे में भारत के साथ उसकी आतंकवाद के खिलाफ कोई ठोस रणनीति बनती है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।
विश्व में आज भारत को एक बड़ी ताकत के रूप में देखा जाता है, चीन की अर्थव्यवस्था भी तेजी से बढ़ रही है। चीन के एक बहुत बड़े नेता तंग श्याओ फंग ने एक बार कहा था, 'चीन और भारत के विकसित देश बनकर उभरने के बाद ही असल मायनों में एशिया की सदी उभरेगी।' साम्यवाद का दामन छोड़कर बाजार पर छा जाने को आकुल है चीन। और ऐसे में भारत की विदेश मंत्री ने दोनों देशों के मिलकर एशियाई सदी बनाने का आह्वान किया है, तो यह वक्त की नजाकत को परखकर कदम बढ़ाना ही है।
रस्साकशी और राह
भारत को प्रतिद्वंद्विता के उस जाल में नहीं फंसना चाहिए जो पश्चिम ने अमरीका की 'एशिया की धुरी' रणनीति के समर्थन में बिछाया है, जिसका मकसद मुख्य रूप से चीन के उदय को रोकना है।
—ग्लोबल टाइम्स, चीन
चीन सरकार के इस तरह के बयान से मुझे हैरानी हुई। भारत के साथ हमारे अच्छे संबंधों के कारण चीन को घबराने की कोई जरूरत नहीं है। चीन सागर से जुड़े मामलों पर वियतनाम या फिलीपींस जैसे छोटे राज्यों को न डराए।
—बराक ओबामा, अमरीकी राष्ट्रपति
बीजिंग यात्रा से पहले चीनी मीडिया में छाये मोदी
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी की चीन यात्रा मई, 2015 में प्रस्तावित है, लेकिन यात्रा के तीन महीने पहले ही वे चीनी मीडिया में छाए हुए हैं। चीन के समाचार पत्रों-चाइना डेली, पिपुल्स डेली, ग्लोबल टाइम्स, शिन्हुआ और सरकारी समाचार चैनल सीसीटीवी में नरेन्द्र मोदी की आगामी चीन यात्रा से जुड़ी खबरें प्रमुखता से दी जा रही हैं।
चार दिवसीय चीन दौरे पर गईं विदेश मंत्री सुषमा स्वराज को भी चीनी मीडिया ने प्रमुखता से स्थान दिया और चीन एवं भारत के मध्य आपसी विश्वास को मजबूत करने और आपसी व्यापार पर भी समाचार पत्रों और चैनलों में मंथन हुआ। चीन के समाचार पत्र ग्लोबल टाइम्स ने मोदी के आगामी चीन दौरे के संदर्भ में चीन के राष्ट्रपति जिनपिंग के उस वक्तव्य को मुख्य समाचार बनाया जिसमें उन्होंने दोनों देशों के मध्य लंबे समय से चली आ रही समस्या का धैर्यपूर्वक समाधान खोजने की बात कही है।
संबंधों की डगर में चुनौतियां भी हैं
शशांक
विदेश मंत्री सुषमा स्वराज की चीन यात्रा के दौरान कई महत्वपूर्ण चीजें हुई हैं। सबसे पहले तो चीन के साथ हिन्दुओं के पवित्र तीर्थ कैलास मानसरोवर के लिए चीन के रास्ते छोटा मार्ग खोलने पर वार्ता हुई। इसका करार लगभग हो गया है। मेरा ख्याल है कि आगामी जून से उस रास्ते यात्रा शुरू हो जायेगी। अब तक का जो रास्ता है वह काफी दुर्गम है इसलिए बड़े-बुजुर्गों को दिक्कत पेश आ रही थी। बातचीत रूस-भारत-चीन के बीच साझे हितों पर भी हुई। 'एपेक' समूह में भारत की सदस्यता को लेकर भी रूस और चीन ने अपनी सहमति जताई है। क्षेत्रीय स्तर पर शंघाई कार्पोरेशन आर्गेनाइजेशन के संबंध में भी बात हुई है। भारत-चीन के बीच संबंधों में कुछ अलग हटकर समाधान निकालने पर सहमति बनी है। चीन को जहां तक लगता था कि उसके संदर्भ में अमरीका के साथ कोई योजना चलाने जा रहे हैं तो उनको स्पष्ट कर दिया गया कि ऐसा कुछ नहीं है। भारत की यह समझ रही है कि चीन-भारत दोनों ही देश एशिया में आगे बढ़ सकते हैं, यह दोनों देशों के लिए क्षेत्रीय और अन्तरराष्ट्रीय स्तर पर अच्छा रहेगा। दोनों का आर्थिक विकास हो, यह अच्छी बात है। आतंकवाद से निपटने पर भी विचारों का आदान-प्रदान हुआ है।
भारत-चीन के बीच यूं तो प्रतिनिधिमंडल स्तर पर बातचीत चलती रही है। संबंधों में जो तकनीकी मुद्दे हैं उनको सुलझाने के प्रयास चलते रहे हैं, लेकिन शीर्ष स्तर पर वार्ता का आगे बढ़ना अच्छा ही है। सीमा विवाद पर कोई अलग हटकर समाधान निकल जाता है तो हम पड़ोसी देशों के साथ ढांचागत सुविधाओं के आदन-प्रदान के रास्ते पर आगे बढ़ सकते हैं। 'मेरीटाइम सिल्क रूट' को लेकर भारत का अभी तक रुख थोड़ा हिचकिचाहट वाला रहा था, लेकिन अब दोनों देशों के बीच इस ओर सहमति बन जाती है तो बीसीआईएम यानी बंगलादेश-चीन-भारत-म्यंामार के बीच व्यापारिक आवाजाही बन सकती है। यह पहले कुनमिंग करार कहलाता था। हमें इसमें म्यांमार के रास्ते दूसरे एशियाई देशों के जुड़ाव वाले पक्ष पर जरूर गौर करना होगा ताकि हमारे हितों को नुकसान न हो।
भारत के मन में हमेशा से एक शंका रही है कि चीन हिन्द महासागर में अपने केन्द्र स्थापित कर रहा है जो आगे चलकर सैन्य अड्डों में बदल सकते हैं। लेकिन चीन उन केन्द्रों को कारोबारी आधार बताता है। हम यह तो समझते हैं कि चीन अपनी आर्थिक प्रगति के लिए सागर के मार्ग का पूरा उपयोग करना चाहेगा ही। लेकिन हमें यह भी ध्यान रखना होगा कि व्यापार मार्ग बनाने में उन तमाम अन्तरराष्ट्रीय संधियों, करारों, समझौतों का पूरी तरह पालन किया जाए। हम अन्तरराष्ट्रीय व्यापार बढ़ाने के पक्षधर हैं लेकिन अपनी सुरक्षा से कोई समझौता नहीं करेंगे। हमारे समारिक विशेषज्ञों ने चीन की भारत को घेरने की 'स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स' योजना पर काफी संदेह व्यक्त किया है लेकिन चीन ने हमेशा उसे अपने नौवहन आधार स्थापित करने की योजना ही बताया है। हमें इस मसले पर चीन से स्पष्ट बातचीत करनी चाहिए। इन मुद्दों पर बराबर बातचीत होती रहनी चाहिए। अगर यह सिर्फ कारोबार तक सीमित है तो दिक्कत की कोई बात नहीं है। इसी तरह लद्दाख में चीनी घुसपैठ पर भी अंकुश लगना चाहिए, शीर्ष स्तर पर होने वाली बातों में ऐसे सभी मुद्दे आने स्वाभाविक हैं। क्योंकि अगर सीमा अतिक्रमण की ऐसी घटनाएं जारी रहीं तो अलग हटकर समाधान खोजने की बातें बेमानी रह जाएंगी। जहां तक अमरीका के भारत के नजदीक आने और उससे चीन के सशंकित होने की चर्चा है तो उसमें मेरा मानना है कि पाकिस्तान के अमरीका के एक भरोसेमंद सहयोगी न बन पाने और पश्चिम एशिया में बन रहे हालात में अमरीका को नए सहयोगियों को जरूरत महसूस होती है। इसीलिए वह भारत के नजदीक आ रहा है, क्योंकि वह जानता है कि पाकिस्तान के मुकाबले भारत इन चीजों को बेहतर समझता है। इसलिए अमरीका ने भारत से दोस्ती की पहल की है, भारत भी उसका सहयोग चाहता ही था। अमरीका के तो कभी चीन के साथ संबंध ऐसे बिगड़ गए थे कि तब जी-2 की बातें भी सुनाई दीं कि दुनिया की राजनीति उधर अमरीका और इधर चीन के ईद-गिर्द होगी। चीन को आतंकवाद फैलाने वाले पाकिस्तान का नजदीकी दिखना बंद करना होगा। दक्षिण चीन सागर में चीन की फिलीपीन्स और वियतनाम के साथ जो दिक्कतें हैं उनका भी अमरीका और भारत सकारात्मक समाधान चाहते हैं। चीन को अन्तरराष्ट्रीय समझौतों को तरजीह देनी होगी। दक्षिण चीन सागर में व्यापारिक आवाजाही और संसाधनों के आर्थिक उपयोग की पूरी आजादी होनी चाहिए। एशिया में भारत को अपनी भूमिका और बढ़ानी है। (लेखक भारत के विदेश सचिव रहे हैं)
पहली बार पाक को दिया अमरीका ने सशर्त पैसा
भारत से लौटते वक्त अमरीकी राष्ट्रपति ओबामा भले पाकिस्तान नहीं गए, लेकिन उन्होंने पाकिस्तानी नेताओं के कसमसाते दिलों को पढ़कर उन्हें कुछ राहत दी है। इस बार अमरीका ने पाकिस्तान को सहायता राशि पहले से ज्यादा बढ़ाते हुए एक अरब डालर कर दी है। लेकिन मुद्दे की बात तो यह है कि पहली बार उसने पाकिस्तान को साफ साफ कह दिया है कि यह पैसा आतंक-निरोधी कार्रवाइयों, सैन्य जरूरतों, विकास कार्यों, परमाणु संयंत्रों की सुरक्षा और 'भारत से संबंध सुधारने' के लिए दिया जा रहा है।
अमरीका पाकिस्तान को अपनी आतंकवाद के खिलाफ लड़ाई में रणनीतिक सहयोगी मानता है, लिहाजा उससे दूरी बनाकर भी नहीं चल सकता। पर इस बार अमरीका ने भारत से बढ़ी नजदीकी के चलते पाकिस्तान को शर्त में बांधकर एक संकेत जरूर दिया है कि भारत के खिलाफ सत्ता पोषित आतंकवाद अब और बर्दाश्त नहीं किया जाएगा। यानी एक तरह से अमरीका ने भारत की इस बात पर मुहर लगाई है कि भारत में आतंकवाद पाकिस्तान सरकार के सक्रिय सहयोग से चलाया जा रहा है।
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