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देवेन्द्र स्वरूप
3 फरवरी मंगलवार को प्रात: अखबार देखे तो प्रत्येक पत्र में वसंत कुंज इलाके में संेट अल्फांसो चर्च में तोड़फोड़ और पवित्र वस्तुओं को फेंकने का समाचार प्रमुखता से छपा देखा। करीब 65-70 साल से दैनिक पत्रों का पाठक होने के कारण पहला प्रश्न मन में उठा कि हिंदी और अंग्रेजी के जिन बारह अखबारों को मैं पढ़ता हूं उन सभी को ऊपर से देखने में छोटी इस घटना का इतना विस्तृत समाचार कहां से प्राप्त हुआ? क्या पीटीआई जैसी किसी एजेंसी ने प्रसारित किया? पर वैसा नहीं था प्रत्येक पत्र ने अपने स्वतंत्र स्रोतों का उल्लेख किया? तब प्रश्न उठा कि क्या किसी चर्च अधिकारी ने प्रेस कांफ्रेंस बुलाकर यह समाचार दिया? समाचार पत्रों ने माना कि चर्च से कोई कीमती सामान नहीं गया। केवल वेदी पर से आस्था की पवित्र वस्तुओं को नीचे फेंक दिया गया था। एक अखबार ने सूचित किया कि पुलिस ने 20 दिसम्बर को चर्च अधिकारियों से प्रार्थना की थी कि ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए वे प्रत्येक चर्च के प्रवेशद्वार पर रोशनी की व्यवस्था करें और चर्च को कवर करने वाले सीसीटीवी कैमरे लगाये जाएं पर अल्फांसो चर्च ने इस निर्देश का पालन नहीं किया जिसका लाभ उठाकर सोमवार को प्रात: एक से तीन बजे के बीच यह घटना घट गयी।
2 फरवरी की इस घटना को राजनीतिक रंग देने के लिए हिन्दुस्तान टाइम्स, इकोनॉमिक टाइम्स, टाइम्स आफ इंडिया आदि ने छापा कि पिछले दो महीनों में अर्थात 1 दिसम्बर 2014 से चर्चों में तोड़फोड़ और आगजनी की पांच घटनाएं घट चुकी हैं। तिथिश: उनका ब्योरा भी छापा गया। इस ब्योरे पर नजर डालते ही दिखायी देता है कि मानों योजनापूर्वक ये घटनाएं इस प्रकार आयोजित की गयीं कि पूरी दिल्ली का ईसाई समाज उससे प्रभावित हो और किसी भी निष्पक्ष पाठक को यह लगे कि इन घटनाओं का दिल्ली विधानसभा चुनावों से सम्बंध अवश्य है और इनके पीछे निश्चित ही भाजपा समर्थक हिन्दू शक्तियों का हाथ है। एक भाजपा विरोधी दैनिक ने 4 फरवरी के अपने सम्पादकीय में यह आरोप खुलकर लगा दिया। वह संपादकीय लेख शुरू ही यहां से होता है, 'जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी है, अल्पसंख्यकों के उपासनाघरों पर हमले बढ़े हैं…' अपने आरोप को धार देते हुए वह आगे लिखता है, 'पिछले कुछ समय से जिस तरह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद, बजरंग दल आदि पूरे देश में कन्वर्जन और घर वापसी के कार्यक्रम चला रहे हैं, ये घटनाएं उसी का हिस्सा हैं। (जनसत्ता 4 फरवरी)'
इन घटनाओं को 7 फरवरी को होने वाले मतदान से जोड़कर राजनीतिक रंग देने का प्रयास चर्च के प्रवक्ताओं द्वारा प्रयत्नपूर्वक किया जा रहा है। वे हर घटना के बाद केन्द्रीय सरकार पर लापरवाही का आरोप लगाते हैं और अपने को एक शांतिप्रिय, निरीह, प्रभावहीन अल्पसंख्यक की छवि देने की कोशिश करते हैं। चर्च की यह पुरानी सोची समझी रणनीति रही है। पुरानी घटनाओं का ब्योरा संकलित एवं संरक्षित रखने का कोई तंत्र यदि राष्ट्रवादी शक्तियों ने स्थापित किया होता तो उन्हें पता चल जाता कि जिस- जिस राज्य में जब-जब भाजपा के सत्ता में आने की स्थिति पैदा हुई है तब-तब चर्चों पर हमले की घटनाओं के समाचार उछले हैं, जिनसे चर्च ने स्वयं को निरीह, आक्रमित छवि देकर हिन्दुत्वनिष्ठ शक्तियों को आक्रामक व उपद्रवी छवि देने का सुनियोजित प्रयास किया है। दिल्ली विधानसभा चुनावों के समय भी चर्च यही रणनीति अपना रहा है। इसकी पुष्टि 3 फरवरी के इंडियन एक्सप्रेस के परिशिष्ट के इन दो शीर्षकों से हो जाती है, एक शीर्षक है, 'आफ्टर अटेक्स, क्रिश्चियन्स आस्क: डोंट वी अकाउंट काउंट'(हमलों के बाद ईसाई पूछते हैं क्या हम कहीं नहीं हैं?) दूसरा शीर्षक है 'आर्कडियोसेज का संदेश है: सावधानीपूर्वक वोट करना' स्पष्ट ही यह संदेश ईसाई मतदाताओं को दिया गया है। इन दोनों समाचारों को पढ़ने पर चर्च की इन चुनावों में रणनीति समझ में आ सकती है। अपने को निरीह बताने के लिए कहा गया है कि भले ही दिल्ली में हम ईसाइयों के वोटों की संख्या केवल पांच लाख है किंतु क्या इसी कारण हम पर अत्याचार किये जाएंगे। यहां हम यह स्पष्ट करना चाहेंगे कि पांच लाख मतदाताओं ने स्वयं को ईसाई घोषित किया होगा किंतु चर्च का प्रभाव क्षेत्र इससे कहीं अधिक व्यापक है। दिल्ली में ऐसे मतदाताओं की संख्या बहुत बड़ी है जिन्होंने स्वयं को ईसाई घोषित नहीं किया है पर जो पूरी तरह चर्च पर आश्रित हंै।
इस सत्य का साक्षात्कार हमें दिसंबर में ही तब हुआ जब हमारे यहां काम कर रहे दो युवक 25 दिसम्बर (क्रिसमस) के दिन काम पर नहीं आये। बार-बार फोन करने पर उन्होंने बताया कि वे चर्च में पूजा कर रहे हैं। बाद में उन्होंने बताया कि एक पादरी उन्हें कपड़े, खाने का सामान और पुस्तक कापी आदि देता रहता है और चर्च में आने को कहता है। उन्होंने माना कि वे ईसाई नहीं हैं पर उनका परिवार चर्च की आर्थिक सहायता पर आश्रित है वे जिस झुग्गी झोपड़ी बस्ती में रहते हैं उसकी जनसंख्या लगभग बीस हजार है। ऐसी अनेक बस्तियों में चर्च अपने अपार आर्थिक साधनों का उपयोग करता है। स्वाभाविक ही, औपचारिक रूप से ईसाई न होते हुए भी ये गरीब लोग चर्च के आदेशों का पालन करने को विवश हैं।
चर्च के इस भारी प्रभाव का ही परिणाम है कि दक्षिण दिल्ली के वसंत कुंज स्थित सेंट अल्फांसो चर्च की घटना के व्यापक प्रचार से भयभीत होकर केन्द्रीय गृहमंत्रालय तुरंत सक्रिय होगा। उन्होंने दिल्ली के पुलिस आयुक्त भीमसेन बस्सी को तुरंत कार्रवाई करने का आदेश दिया। पुलिस आयुक्त बस्सी ने वसंत कुंज के थानाध्यक्ष वीरेन्द्र जैन को मंगलवार को लाइन हाजिर कर दिया। वीरेन्द्र जैन जब तक आरोपियों को नहीं पकड़ेंगे, तब तक उनकी वापसी थाने में नहीं होगी। थानाध्यक्ष और सब डिवीजन की एसीपी उषा रंगरानी को निर्देश दिया गया है कि वे अभी अपने कार्यालय में न बैठंे। चर्च के प्रभाव का अनुमान इससे भी लग जाता है कि राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग ने मीडिया रपटों का स्वत: संज्ञान लेकर केन्द्रीय गृह मंत्रालय, दिल्ली सरकार तथा पुलिस को नोटिस जारी किया है कि वे दस दिन के भीतर इन घटनाओं पर अपनी जांच रपट पेश करें। आयोग के सदस्य न्यायमूर्ति किरीएक जोसेफ ने घटना के तुरंत बाद चर्च का दौरा करके स्थिति का जायजा लिया था। अधिवक्ता मनोज जॉर्ज ने आरोप लगा दिया कि चर्च के पादरी विंसेंट सल्वातोर की लिखित शिकायत के बावजूद पुलिस प्रभावी जांच नहीं कर रही। हमारे देश में चर्च के पास सर्वाधिक आर्थिक साधन एवं बौद्धिक क्षमता उपलब्ध है। चर्च ने देश में अनेक प्रलेखन केन्द्र स्थापित किये हैं जहां कन्वर्जन की रणनीति के लिये आवश्यक जानकारी व आंकड़े एकत्र किये जाते हैं।
इस जानकारी का विश्लेषण कर वे कन्वर्जन की क्षेत्रश: रणनीति बनाते हैं। भारत में उनका एकमात्र एजेंडा कन्वर्जन है, इस एजेंडे में वे संघ परिवार को एकमात्र बाधा समझते हैं और इसलिए उनकी दृष्टि में संघ परिवार उनका सहज शत्रु है। संघ परिवार के विरुद्ध वे अल्पसंख्यकवाद के नाम पर शक्तिशाली व आक्रामक मुस्लिम समाज की छत्रछाया प्राप्त करते हैं। यही कारण है कि पूरी दुनिया में इस्लाम और चर्च आमने-सामने खड़े हैं पर भारत में मुल्ला पादरी गठबंधन फलफूल रहा है।
वस्तुत: भारतीय राष्ट्रवाद को अपने सामने खड़ी चुनौतियों का वस्तुनिष्ठ आकलन करना होगा। 1982 में हमने दीनदयाल शोध संस्थान की त्रैमासिक शोध पत्रिका 'मंथन' के अंग्रेजी और हिन्दी में कन्वर्जन की राजनीति पर तीन अंक आयोजित किये थे। अंग्रेजी के तीनों अंक पुस्तक रूप में भी प्रकाशित हुए थे। उनमें चर्च की रणनीति पर भी तथ्यात्मक शोध पत्र उपलब्ध हैं।
अण्णा को भुनाती 'आप'
2014 के लोकसभा के चुनाव परिणामों से राष्ट्रवादी शिविर का गद्गद होना स्वाभाविक है किंतु उन्हें यह स्मरण रखना होगा कि लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत केवल 31 प्रतिशत मतों के आधार पर मिला था। 69 प्रतिशत मत विभिन्न जातिवादी, संप्रदायवादी,क्षेत्रवादी और वंशवादी दलों में बिखर गये थे। नरेन्द्र मोदी एक महामानव के रूप में उभर आये हैं। सत्ताकांक्षी नेता उनकी इस प्रतिमा को तोड़ने का अवसर ढूंढ रहे हैं। सोनिया-राहुल ने ओबामा की यात्रा के समय नरेन्द्र मोदी द्वारा पहने गये सूट को अपने हमले का आधार बना लिया है। प्रधानमंत्री बनने का सपना देख रहे नीतीश कुमार दिल्ली आकर आम आदमी पार्टी के समर्थन का झुनझुना बजा गये हैं। दिल्ली विधानसभा की 31 सीटों पर जहां मुस्लिम मतदाताओं की संख्या 10 प्रतिशत से अधिक है, कुछ सीटों पर 30 प्रतिशत के आसपास है या उसे भी पार कर गयी है। इन मतदाताओं को भाजपा के विरुद्ध एकजुट करने का प्रयास किया जा रहा है।
हमें विश्वास है कि भाजपा ने अपनी रणनीति बनाते समय इस प्रश्न का उत्तर अवश्य खोजा होगा कि जिस पार्टी ने लोकसभा चुनावों में पूरे देश में 400 उम्मीदवार मैदान में उतारे पर उनमें से अधिकांश की जमानत जब्त हो गयी वह पार्टी दिल्ली में पूर्ण बहुमत का सपना किस आधार पर देख रही है, उस पार्टी का चरित्र क्या है, जनाधार क्या है? उसने दिल्ली को ही अपनी आधारभूमि क्यों बनाया है? क्या वह मीडिया के कंधों पर सवार होकर सत्ता में आने का सपना देख रही है? यह विचारधारा आधारित पार्टी है? या राजनीतिक जनाधार से शून्य कुछ महत्वाकांक्षी नामों की मंडली? अरविंद केजरीवाल, मनीष सिसोदिया, योगेन्द्र यादव, आशीष खेतान, आशुतोष, संजय सिंह, कुमार विश्वास और गोपाल राय आदि की अपनी पृष्ठभूमि क्या है? इनमें से अधिकांश पत्रकारिता के आंगन में से निकले हैं। पत्रकार जगत में उनके पुराने मैत्री संबंध उनके काम आ रहे दिखते हैं। तहलका की पुरानी फाइल को खंगालने पर आशीर्ष खेतान की संघ परिवार विरोधी पत्रकारिता के प्रमाणस्वरूप अनेक रपटें मिल सकती हैं इस समय वही 'आआप' के प्रवक्ता बने हुए है। आईबीएन 7 से निकले आशुतोष लोकसभा चुनाव में चांदनी चौक क्षेत्र में जनाधार शून्य सिद्ध हुए। योगेन्द्र यादव चुनाव सर्वेक्षण और विश्लेषण में चाहे जितने कुशल हों, दार्शनिक मुद्रा में वाक् चातुर्य का चाहे जितना प्रदर्शन कर सकते हों, किंतु उनका राजनीतिक अनुभव जनाधार कितना है यह उनके गृह प्रदेश हरियाणा में गुड़गांव लोकसभा सीट में स्पष्ट हो गया। अगस्त 2011 में दिल्ली में अन्ना आंदोलन के समय हमने इनकी ओर बड़ी आशा भरी दृष्टि से देखा था। उस समय पाञ्चजन्य में प्रकाशित हमारे पांच लेख इसके प्रमाण हैं। किंतु जिस राजनीतिक प्रणाली का विकल्प ढूंढने के लिए ये लोग अन्ना की छत्रछाया में इकट्ठे हुए थे व्यक्तिगत सत्ताकांक्षा से प्रेरित होकर उसी राजनीतिक प्रणाली के चक्रव्यूह में घुस रहे हैं और सफलता के लिए उन सभी हथकंडों को अपना रहे हैं जिनके लिए वे अन्य दलों को दोषी ठहराते रहे हैं।
अन्ना की श्रेष्ठ छवि का लाभ उठाकर और सोशल मीडिया का उपयोग कर दिल्ली के मध्यमवर्गीय शिक्षित भावना प्रधान युवावर्ग को अपने पीछे खड़ा करने में सफलता पायी और अब उस भोले भावुक युवावर्ग के कंधों पर चढ़कर वे सत्तारूढ़ होने के लिए छटपटा रहे हैं। अन्ना आंदोलन के समय जो सोशल मीडिया नेटवर्क उन्होंने खड़ा किया था उसी नेटवर्क का उपयोग वे अब उसी राजनीतिक प्रणाली के अन्तर्गत सत्ता पाने के लिए कर रहे हैं। क्या वे उसी पन्ने को दोबारा लिखना चाहते हैं जो लोकनायक जयप्रकाश और सम्पूर्ण क्रांति आंदोलन के कंधों पर सवार होकर सत्ता में पहुंचे नेतृत्व ने लिखा था, 'क्या काठ की हंडिया दो बार चूल्हे पर चढ़ पाएगी?'
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