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परिणाम से पूर्व चुनाव पर लिखना जरा जोखिम का काम कहा जाता है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या पत्रकारिता केवल परिणामों तक ही सीमित रहेगी?
मशीनी ढंग से चुनावी यंत्र और तंत्र को संभालता प्रशासन, वादों के झुनझुने हिलाते राजनेता और किसी तान के स्वीकार और नकार में झूमते मतदाता…लिखने को कितना कुछ है!
परिणामों से जुड़ी लेकिन इससे आगे की पहली बात यह कि संदिग्ध सर्वेक्षणों का ज्वार और इसके फलस्वरूप पैदा हुए 'कांटे की टक्कर' जैसे जुमले दोतरफा मार करने वाले हैं। एक ओर खुद मीडिया है और दूसरी ओर आम आदमी पार्टी।
'सबसे आगे और तेज' दिखने की होड़ में जैसे भी हो सर्वेक्षण कराना, लगातार दिखाना और उसे अपने ब्राण्ड की बढ़त या विशेषता के तौर पर प्रचारित करने का चलन मीडिया को भारी पड़ सकता है। आंकड़े परोसते-पलटते छोटे से सूत्र की डोर पकड़ निष्कषार्ें का पहाड़ खड़ा करता मीडिया चाहे-अनचाहे इस चुनाव में बेवजह 'पार्टी' बन गया है।
याद कीजिए, पिछले कई चुनावों में मीडिया ने यह गंभीरता बरती है कि किसी की 'हवा बताते' जनमत सर्वेक्षण के 'चार्ट' प्रचार समाप्त होने से ऐन पहले तक नहीं लहराए गए। इस बार यह मर्यादा टूटी है। इसलिए परिणामों की घोषणा के रोज परीक्षा मीडिया की भी है। 'छोटा सैंपल साइज' होने की बात कहकर उस रोज बचा नहीं जा सकता। आगे दिखने की मीडिया दौड़ साख में छीजन बन सकती है। परिणामों के रोज यदि सर्वेक्षण झूठे साबित हुए तो मीडिया और आम आदमी पार्टी एक पायदान पर दिखेंगे। हारे-नकारे, गलत।
लेकिन आम आदमी पार्टी की परेशानियां इतने से ही खत्म नहीं होतीं। मीडिया का जो हो सो हो, सरकार बने ना बने, केजरीवाल से बंधी 'आआपा' के लिए यह अस्तित्व का सवाल है।
दिल्ली विधानसभा में कांग्रेस की जगह खत्म करने वाले राजनैतिक दल ने सिर्फ व्यवस्था से उकताई जनता को अपने साथ जोड़ा होता तो चल जाता। लेकिन यह मुफ्तखोरी की लत बढ़ाने और लोगों को अराजक खुशफहमी में डालने का ऐसा समीकरण है जो ना तो हल किया जा सकता है और ना ही लगातार ढोया जा सकता है। खपत की आधी बिजली मुफ्त, पानी लगभग मुफ्त और वाई-फाई… वह तो पूरी तरह मुफ्त!
फिर काम कौन करेगा? कितने दिन करेगा?
यही वह सवाल है जहां आम आदमी पार्टी बेचैन हो जाती है। केजरीवाल के कहार कंधा बदलने लगते हैं। इतना पानी किस नदी से आएगा? मुफ्त में पाइप लाइन तक कौन पहुंचाएगा? बिजली और वाई-फाई क्या टाटा और अंबानी दिल्ली को उपहार में देंगे?
हर व्यक्ति के पास कार हो, और तो और इसके लिए उसे पैसा ना देना पड़े, कितना जोरदार विचार है! लेकिन ऐसे विचार नुक्कड़ की चर्चा से निकलकर नीति नहीं बना करते। इसकी वजह है। कारें खड़ी कहां होंगी, कहां चलेंगी? यह जवाब देने की जरूरत नुक्कड़ पर नहीं पड़ती।
दिल्ली कमेरों का शहर है। सब अपने-अपने गांव- जगह छोड़ यहां कमाने आए हैं। आम आदमी पार्टी ने इस कर्मशील शहर को मुफ्तखोरी का झूठा और दण्डनीय सपना दिखाया है।
आम आदमी पार्टी पाले मेंे किधर भी रहे, दस फरवरी के बाद जनाकांक्षाओं का रथ आम आदमी पार्टी को रौंदेगा। बहरहाल, कांग्रेस का जिक्र ना मीडिया ने किया, ना विश्लेषकों ने। उसे छोडि़ए। इस देश का आम आदमी उसे पहले ही रौंद चुका है।
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