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ईसाई मिशनरियों और अंग्रेजों ने तमिलनाडु को 'क्रिश्चियनिस्तान' बनाने के लिए जिस पद्धति का प्रयोग किया, उसे देखकर उनका आक्रमणशास्त्र स्पष्ट हो जाता है। इस विषय के पहलू सूक्ष्म हैं, पर गंभीरता से देखने पर उनकी गहराई स्पष्ट होती जाती है। मिशनरियों एवं ब्रिटिशों का आक्रमण सभी जगह राष्ट्रघातक रहा है, लेकिन कुछ स्थानों पर तो उनके उस आक्रमण की सुनियोजितता साफ झलकती है। उसे इसलिए ध्यान से देखना आवश्यक है कि कोई भी आक्रमण पहले प्रत्युत्तर देने के लिए ही होता है। यूरोपीय आक्रामकों ने 300 वषार्ें तक अपने आक्रमण में जो सुनियोजितता बनाए रखी उसे बारीकी से समझा जाए तो ही उस आक्रमण का प्रत्युत्तर देने का शास्त्र भी नजर में आएगा। कोई भी अभियान सदियों तक जारी रखना कठिन होता है। इसलिए इस तरह के सदियों के सुनियोजित आक्रमण का प्रत्युत्तर देने का उत्तरदायित्व जिन युवाओं को लेना है उनको उसका उसी बारीकी से अध्ययन करने की आवश्यकता है। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक के नौवें प्रकरण में पिछले गत दस वषार्ें में चरणबद्घ तरीके से चर्च संगठनों ने इस विषय की व्यापकता कैसे बढ़ाई, इसका वर्णन बेहद बारीकी से दिया गया है। इस बार हम उसके पहले चरण की चर्चा करेंगे।
कोई बात यदि प्रभावी रूप से लोगों के सामने रखनी हो तो उस विषय के प्रतिपादन की आक्रामकता धीरे-धीरे बढ़ानी होती है। 'भारत में दक्षिण के लोग आर्यों द्वारा आक्रमण करके दक्षिण की ओर धकेले गए स्थानीय भूमिपुत्र हैं एवं वे मूलत: यूरोप से अफ्रीका होते हुए आने वाले मूल हेमेटिक ईसाई हैं', यह जताने के लिए उन्होंने जिस पद्धति का अनुसरण किया उससे इस आक्रमण की व्यूह रचना स्पष्ट होती है। तमिलनाडु के आर्चबिशप दैवनायकम ने इस मुहिम की अगुवाई की है। यह विषय उन्होंने एक मुहिम के रूप में सन् 2000 में शुरू किया। उसका विषय था 'द्रविड़ धर्म में ही भारत की जातीयता नष्ट करने का सामर्थ्य है'। उसके बाद इस वर्ष जो विषय परिषद के लिए लिया गया उसका विषय था 'भारत द्रविड़ ईसाईस्थान' है। यह प्रतिपादन अंतरराष्ट्रीय स्तर के अनेक प्रकाशनों से प्रकट हुआ। उसके बाद की परिषद सन् 2005 में हुई जिसका विषय था 'शैव और वैष्णव पंथ भारत आए पहले मिशनरी द्वारा प्रतिपादित ईसाई दर्शन से ही उत्पन्न हुए हैं'। सन् 2006 में हुई परिषद का विषय था,'द्रविड़ीय ईसाइयत'। यह विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर पर रखे जाने की जरूरत है। इसमें महत्वपूर्ण बात यह है कि उस परिषद में उस वर्ष अमरीका के राष्ट्रपति जार्ज बुश के सलाहकार उपस्थित थे। उसके आगे का विषय था, भारत में दो हजार वर्ष पूर्व के ईसाई मत का इतिहास। सन् 2008 की परिषद का विषय था, द्रविड़ ईसाई पंथ का दक्षिण भारत में साहित्य, कला, उपासना, मूर्तिकला, नृत्यशैली पर प्रभाव।
इसमें पहली ही परिषद में उन्होंने प्रतिपादित किया कि 'संस्कृत भाषा भारत में सेंट थॉमस के साथ यूरोप से आई। दक्षिण भारत में जो संस्कृत साहित्य की उत्पत्ति हुई वह बाद में हुई। संस्कृत भाषा मूलत: ग्रीक एवं लैटिन भाषाओं से बनी है। उसी संस्कृत साहित्य से इस भूमि को पहले बहुत उच्च स्तर का पंथ-विचार मिला लेकिन केरल के शंकराचार्य ने उसे विकृत करते हुए उसमें जातिवाद शामिल कर दिया। दक्षिण भारत में सेंट थॉमस के माध्यम से पहले आदर्श पंथ-विचार रखा गया लेकिन उत्तर के धूर्त आर्य ब्राह्मणों ने उसमें छूत-अछूत की घुसपैठ की। दक्षिण में आए ईसाई अफ्रीका से आए थे इसलिए वे स्वाभाविक रूप से काले थे। आर्य ब्राह्मणों ने उनसे घृणा करते हुए उन्हें बहिष्कृत किया। अश्वेतोंं से घृणा करने वाली यह छूत-अछूत की रीति सभी स्थानों पर फैले इसलिए आदि शंकराचार्य ने भारत में चारों दिशाओं में चार मठ स्थापित किए। ये मठ शंकराचार्य के छूत-अछूत के नजरिए के प्रतीक होने के कारण उन्हें शीघ्रातिशीघ्र समाप्त करना आवश्यक है।' ये विषय दैव्यनायकम् नामक मिशनरी ने पहली परिषद में ही रखे थे। उसके अनुसार, 'आर्य ब्राह्मणों ने पहले तो बौद्घ, जैन, वैष्णव, जो द्रविड़ थे, को अपने कब्जे में लिया एवं दक्षिण भारत में भक्ति साहित्य को अपनी भाषा में रूपांतरित करके उसके प्रचार के लिए नौवीं सदी में देश में स्थित चार मठों के द्वारा उसका प्रतिपादन किया।'
ईसाई मिशनरी दैव्यनायकम् द्वारा सन् 2004 में लिखी 400 पन्नों की पुस्तक का नाम था 'थॉमस द्रविड़ी ईसाई देश'। इस पुस्तक की उत्पत्ति ईसाई मिशनरियों के भारत में प्रचार के लिए मार्गदर्शक पुस्तिका के रूप में हुई थी। इसके अनुसार, 'धूर्त आर्य ब्राह्मणों ने तत्कालीन भोले-भाले द्रविड़ सत्ताधारियों के सामने अतिसम्मोहक लत, महिलाओं जैसे आकर्षण बनाए एवं अपना दर्शन थोप दिया। ईसाई दर्शन और भक्तिमार्ग से आए हुए परमेश्वर का वर्णन पहले 'अहम् ब्रह्मास्मि' शब्दों में किया गया था। उसका सच्चा अर्थ 'परमेश्वर मुझ में है' होता है, उसे शंकराचार्य ने 'मैं ही ईश्वर हूं' कहकर बिल्कुल गलत तरीके से प्रस्तुत किया।' इसी पुस्तक में आगे कहा है कि सेंट थॉमस के अनुयायियों ने आगे अपने विचारों के प्रसार हेतु संस्कृत भाषा रची।
सन् 2005 की परिषद में 'सेंट थॉमस से वास्को डि गामा के समय तक यहां ईसाई पंथ किस रूप में था, इस बारे में दैव्यनायकम् ने एक पुस्तक लिखी है। अमरीका में जारी की गई इस पुस्तक में कहा गया है कि 'मैं पुस्तिका के रूप में आपको (यानी मिशनरियों को) एक अप्रतिम भेंट दे रहा हूं। उसके माध्यम से ईसा का संदेश पूरे विश्व में, मुख्यत: पूरे भारत में प्रसारित करने में मदद होगी।' स्वाभाविक ही इस पुस्तक का विषय यह था कि महायान बौद्ध, जैन एवं शैव पंथ दर्शन ईसाई विचारों से ही बने हैं। तमिलनाडु की संस्कृति का और एक पहलू यह है कि वहां तिरुवल्लुवर नामक महान ऋषि हुए। उनका समय ईसा पूर्व तीसरी सदी माना जाता है। उनके तिरुक्कुरल नामक ग्रंथ में उत्तर भारत के संदर्भ कम हैं, जो हैं वे भारतीय संस्कृति को एकरस दिखाने के लिए पर्याप्त हैं। वह द्रविड़ कवि हैं, पहले इस तरह का प्रतिपादन किया गया और बाद में एक ईसाई प्रचार पुस्तिका में दिखाया गया जैसे तिरुवल्लुवर बड़े गौर से सेंट थॉमस की बातें सुन रहे हैं। इसी तरह के एक चित्र में दक्षिण भारत में ब्राह्मण लोग जिस तरह से बाल बनाते हैं, उस तरह के व्यक्ति को, उसका परिचय दिए बिना, केसरिया कपड़े पहने सेंट थॉमस का खून करते हुए दर्शाया गया है।
इसमें से मिशनरियों ने जो मंशा साधने की कोशिश की है उसमें केवल हिंदू धर्म एवं संस्कृत भाषा की उत्पत्ति ही नहीं, बल्कि बौद्ध एवं जैन जैसे भारतीय पंथों का जन्म भी उस सेंट थॉमस के ईसाई विचारों से होता दिखाया है जिसका भारत से कभी संबंध नहीं रहा। चीन जैसे विशाल देश को जोड़कर विश्व में बौद्ध जनसंख्या 150 करोड़ होने की मान्यता है। इस तरह के आंकड़े किसी ईसाई प्रचारक के कथन अथवा उस इलाके की छोटी पुस्तिका में हों तो उसे उसकी 'समस्या' के ही रूप में देखकर लोग नहीं रह जाते, बल्कि जब ऐसे विषय अंतरराष्ट्रीय स्तर की परिषदों से रखे जाते हों, तब उसका संदर्भ विश्व के अन्य हिस्सों में संदर्भ के तौर पर लिया जाता है। इसलिए उस पर गंभीर नजर डालनी जरूरी होती है।
'हिंदू धर्म एवं संस्कृत भाषा की उत्पत्ति सेंट थॉमस के ईसाई प्रचार साहित्य से हुई इसलिए बौद्घ विचारों एवं उसके लिए प्रयुक्त की गई भाषा की उत्पत्ति भी उसी से हुई है', ऐसे विचार जब अमरीका की पूर्व विदेश मंत्री हिलेरी क्िंलटन के कथनों से व्यक्त होते है, तब परिणाम भी बदलता है। जब हिलेरी क्िंलटन पहली अंतरराष्ट्रीय परिषद में आई थीं तब वे अमरीकी सीनेट की सदस्या थीं, इसलिए उनके कहे पर गौर करना जरूरी ही था।
इस तरह के विषय की व्यापकता बहुत है। 21वीं सदी के पहले 10 वषोंर् में हुईं ये छह परिषदें सदियों से जारी एक बड़ी प्रक्रिया का हिस्सा हैं। जब कोई विषय पूरे जगत की घटनाओं पर नजर रखने वाले कूटनीतिकों के सामने रखा जाता है, तब उसे उसी व्यापकता से रखना होता है। कोई विषय कितना गहरा है, यह देखने के लिए वहां किसी के पास समय नहीं होता। लेकिन विश्व में अच्छी खासी जनसंख्या वाले किसी समूह को अपनी समस्या के बारे में क्या कहना है, इसकी जानकारी तो वे लेते हैं। तमिल लोगों की समस्याएं रखने के बहाने इस विषय की शुरुआत हुई थी। फिर उन पर आर्य ब्राह्मणों ने अन्याय किया, यह कहकर उन्हें एक बार भारतीय समाज से अंतरराष्ट्रीय समाज का संदर्भ देने की औपचारिकता भर पूरी की गई और बाद में द्रविड़ संस्कृति सेंट थॉमस के ईसाई विचारों से बनी है, संस्कृत भाषा और यहां का सारा साहित्य भी बाद में उसमें अपना कुछ जोड़कर समृद्ध हुआ है, ऐसे विषयों को लेकर ही अंतरराष्ट्रीय परिषद शुरू हुई। इनमें से हर विषय को समर्पित अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एजेंडा के तहत बनाई गई एक संस्था थी। इतना ही नहीं बल्कि 'द्रविड़ों को विद्रोह कर अपना स्वतंत्र अस्तित्व बनाना है', ऐसा दर्शाया गया।
ऐसा नहीं कि इस विषय पर आज अंतरराष्ट्रीय आंदोलन शुरू किया जाना हो, लेकिन यदि कभी सुविधाजनक समय पर उसे करने का निर्णय हुआ, तो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उसकी तैयारी रखना उनके लिए अच्छी बात तो है ही। इसे ध्यान में रखते हुए उसकी सतत तैयारी जारी है। यूरोप के हर देश में आज 'तमिल लोगों को स्वतंत्र होना है' की मांग उठाने वाली संस्थाएं, संगठन खड़े हैं। अनेक विश्वविद्यालयों में इस विषय का अलग अस्तित्व है। इंस्टीट्यूट ऑफ एशियन स्टडीज, द्रविडि़यन स्प्रच्यिुयल मूवमेंट नामक संस्थाएं आज यूरोप के हर देश में मिलेंगी। भारत जैसे विशाल देश के छोटे-बड़े शत्रु तो रहेंगे ही, उन्हें जब सुविधाजनक होगा तब वे विद्रोह के लिए खड़े होंगे। लेकिन वे उस तैयारी में यदि सतत् प्रयास करते रहते हैं तो उन्हें उनकी भाषा में ही उत्तर कैसे देना है, इसका भी विचार हमें हमेशा अपने सामने रखना होगा। -मोरेश्वर जोशी
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