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.ज्ञान चतुर्वेदी
वह स्टेज पर था और मैं मंत्रमुग्ध श्रोताओं में। देश के विख्यात व्यक्तित्वों के द्विमासिक व्याख्यानों का सालभर का एक आयोजन था वह भोपाल में। संस्कृति, साहित्य, मीडिया, विज्ञान आदि क्षेत्रों के नवरत्नों से सीधे साक्षात्कार का यह अनूठा मौका हम लोगों को मिलता था। व्याख्यान के बाद फिर देर तक श्रोताओं से प्रश्नोत्तर भी चलते। यूं तो वह हाल खचाखच ही रहता था परंतु ऐसा खचाखच पहले कभी नहीं रहा जैसा उस दिन था। बरामदे तक में भीड़ ही भीड़ थी। मेरी उत्कंठा तो उस शाम बस यही थी कि दशकों से अपने कार्टूनों द्वारा हर दिन सुबह समाज को स्वयं समाज के ही बारे में नई समझ देने वाला व्यक्ति आखिर दिखता कैसा है? बोलने में वह कैसा होगा? क्या बोलने में भी वैसा ही बेबाक होगा? और वह ठीक वैसा ही निकला जैसा वह स्वयं रोज अपने कार्टूनों के फ्रेम से झांकता दिखता था। बस, उसके हाथों में छाता नहीं था वरना तो वह अपने कार्टूनों का आम आदमी जैसा ही सरल मगर सजग, विनम्र मगर बेहद बारीक नजर वाला तना हुआ सा दिख रहा था। ठीक हम आप जैसा। इससे पूर्व पधारे बड़े व्यक्तित्व वाले वक्ताओं के बरअक्स वह साधारण वस्त्रों और भंगिमा का व्यक्तित्व था, पर यही बात उसे बेहद असाधारण बना रही थी। और फिर उसने बोलना शुरू किया। पीछे एक बड़े से स्क्रीन पर उसे बहुत बड़ा करके दिखाया जा रहा था फिर भी उसकी महानता को वह बड़ी स्क्रीन भी ठीक से समेट नहीं पा रही थी। उसने उसी स्क्रीन पर तुरत-फुरत केरीकेचर बनाकर अपनी कार्टून कला भी दर्शकों को दिखाई, पर उसकी इस अनोखी कला से अलग मुझे तो उसके बोलने, बरतने और अपनी बात को भाषा तथा भंगिमा में सीधे तनकर कह पाने की बेबाकी ने ही मोह लिया था। कम ही लोग हैं जिनको देखकर मन में एक हूक सी उठे कि हाय, हम इस जैसे क्यों नहीं हुए? मैं उस रात एकदम उस जैसा बन जाना चाहता था।
आर.के. लक्ष्मण को देखना, सुनना और फिर तालियों के बीच उनका हमारी भीड़ के बीच से गुजर जाना, सब कुछ इतना असाधारण होते हुए भी इतना साधारण सा था कि मानो आम आदमी और लक्ष्मण का चोला आपस में मिलकर एक हो गया हो। अपने ही रचे पात्र से एकदम एकाकार होकर 'परकाया प्रवेश' की कला की जो बात कहीं, दूसरे ही संदर्भ में हजारी प्रसाद द्विवेदी जी ने कही है, उसे अपनी आंखों के सामने फलीभूत होते देखता रहा उस रात मैं।
चौरानवे वर्ष की आयु में उनके निधन का समाचार पढ़ते हुए मेरी यादों की भीड़ से वही कॉमन मैन यानी आम आदमी उसी असाधारण साधारणता से मेरी स्मृति की गुत्थमगुत्था के बीच से गुजर रहा है जैसे लक्ष्मण उस दिन गुजर कर भी फिर कभी मेरे मन से नहीं निकल सके। बहुत कम ऐसा होता है कि एक दिग्गज लेखक या कलाकार मिले तो वह आपकी अपेक्षाओं में बने उसके कद के बराबर ही निकले।
पचपन वर्षों तक वे रोजाना कार्टून बनाते रहे। रोज ही वे अपने पाठकों के सामने परीक्षा देने बैठते। इस परीक्षा में वे रोज स्वर्ण पदक ले जाते। रोज वे अपनी ही कसौटी पर खुद को घिसतेे। रोज ही, उनकी नहीं, कसौटी की परीक्षा हो जाती। रोज पाठक टाइम्स ऑफ इंडिया को उस कोने से शुरू करते जिस कोने को देखकर उन्हें अखबार में छपे अन्य समाचारों को पढ़ने-समझने की दृष्टि मिलती थी। इस जरा से कार्टून कोने में मानो पूरा हिन्दुस्थान श्वांस लेता था। इस कोने में आम आदमी अपने पांव सिकोड़कर बैठा रहता और सारे जगत का मंजर देखता। उनके आम आदमी में वह बच्चा आखिरी दिन तक जीवंत रहा जो राजा को उघाड़ने का भोला साहस रखता था। वैसे अपने कार्टूनों में राजा को उघाड़ने वाले लक्ष्मण में वह बच्चों वाला भोलापन तो नहीं था, पर अदम्य साहस, साफगोई, अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के प्रति एक सचेत आग्रह और आम आदमी की आत्मा का वह तेज जरूर था जो बड़े-बड़े ताज-तख्तों में जड़े रत्नों की चमक पर भारी सिद्ध होता था।
मेरी दृष्टि में आर.के. लक्ष्मण अपने समकालीन, पूर्ववर्ती और आज के कार्टूनिस्टों से कई मायनों में इतने अलग हैं कि उन्हें कार्टूनिस्टों की बिरादरी से कोई अलग ही नाम देने का मन करता है। वे सबसे भिन्न हैं।
कार्टून मात्र रेखाएं खींचना या एक रेखाचित्र नहीं होता। लक्ष्मण के कार्टूनों में रेखाओं के बीच छूटी खाली जगह भी बहुत कुछ बयान करती है। लक्ष्मण अपने कार्टूनों में इतनी 'डीटेलिंग' करते थे कि वह पूरा एक दृश्य बन जाता था। हां, यह 'डीटेलिंग' मारियो की गचागच 'डीटेलिंग' (जिसमें कार्टून में एक भीड़-भड़क्का सा मच जाता है) के परे ऐसी कुछ होती थी कि पूरा कार्टून एक सधी हुई पेंटिंग सा बन जाता था। वे वैसे भी मूलत: एक अच्छे पेंटर थे ही। उनके कार्टूनों के मुख्य पात्रों के पीछे पृष्ठभूमि में बस्ती, दफ्तर, सड़क, भीड़ या बाजार का चित्रण इतना जीवंत होता था कि कार्टून का हर कोना बोलने लगता था। कौओं को लेकर उन्होंने जो चित्र श्रृंखला बनाई, मध्य प्रदेश के पर्यटन स्थलों की जो तस्वीरें (स्केच) बनाईं, 'मालगुडी डेज' में मालगुडी गांव के जो स्केच बनाये वे सब उनमें धड़कते पेंटर की छोटी सी झलक मात्र थे। उनके निकट कार्टून एक बेहद गंभीर काम था। उनके चेंबर के बाहर लाल बत्ती जली होने का अर्थ होता था कि अभी कोई उन्हें 'डिस्टर्ब' न करे। वे घंटों सोचकर मिनटों में कार्टून बनाते। लक्ष्मण में यह विलक्षण कला थी कि वे हर व्यक्ति के केरीकेचर में कोई एक बात ऐसी ले आते जो इस व्यक्ति को उसकी संपूर्णता में सामने ला देता। दरअसल, अपने कार्टून के नायक/नायिका के पूरे व्यक्तित्व का गहन अध्ययन करते, फिर तय करते कि इसके केरीकेचर में क्या ऐसा होना चाहिए जो इस शख्स का पूरा चरित्र और व्यक्तित्व मात्र रेखाओं के जरा से खेल से एकदम पूरा प्रकट कर दे। वे निर्ममता से सत्य कहने को प्रतिबद्ध थे।
सत्य के प्रति प्रतिबद्धता न हो तो आप सही कार्टूनिस्ट हो ही नहीं सकते। लक्ष्मण बनने के लिए सत्य और केवल सत्य बोलने, कहने, रचने का साहस चाहिए। और सत्य की दिक्कत यह है कि वह बस एक ही होता है। सत्य कहने की ठान लो तो कठिनाई हो जाती है-सत्य को कितना भी घुमा फिराकर कहो, वह सत्य ही रहता है। सत्य कहने के अपने खतरे होते हैं। साथ ही अभिव्यक्ति के खतरे को मिला दें तो विषम परिस्थिति पैदा हो जाती है जो कार्टूनिस्ट का काम कठिन बनाती है। अभिव्यक्ति के खतरे बढ़ भी जाते हैं, जैसा कि आपातकाल के काले दिनों में हुआ। तब एक बार तत्कालीन सूचना व प्रसारण मंत्री विद्याचरण शुक्ल ने बाकायदा उन्हें चेतावनी दी थी कि उनके विरुद्ध कार्यवाही की जा सकती है। जब अभिव्यक्ति को दु:साहस मान लिया जाए, तब भी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के सिवाय जो और कुछ सोच ही न सके, ऐसा ही व्यक्ति आर.के. लक्ष्मण हो सकता है। समस्त व्यक्तिगत राग-द्वेषों से परे और समस्त ऐसे प्रलोभनों से ऊपर उठकर जो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर कोई समझौता न करे, वही ऐसे कार्टून रच साकता है, जो आर.के. लक्ष्मण ने जीवन भर रचे। वे रोज विलक्षण रचने का विलक्षण कार्य दशकों तक करते रहे। इसके लिए आपमें योगियों जैसी एकाग्रता, लगन और तपस्या भाव चाहिए। वे सरल होते हुए भी बेहद जटिल थे। दुनियादारी की भाषा में ही सोचने वाले व्यक्ति को लक्ष्मण का व्यक्तित्व समझ से परे लग सकता है।
लक्ष्मण की मृत्यु पूना के एक अस्पताल में हुई। मधुमेह, रक्तचाप के साथ 94 वर्ष तक जिए। 2003 में आधा शरीर लकवाग्रस्त हो गया तो भी कार्टून बनाते रहे। केरीकेचर थोड़े कमजोर हुए, 'डीटेलिंग' पर प्रभाव पड़ा, परंतु व्यंग्य के तेवर वैसे ही सटीक रहे। फिर 2010 में दो-तीन झटके लकवे के लगे। इस बार 'यूरीन इंफेक्शन' हुआ। वह सारेे शरीर में फैल गया। वे बेहोश हो गये और फिर लौटे नहीं। उनकी मृत्यु जरूर हो गई, पर उनका कॉमन मैन छाता लेकर आज भी फुटपाथ पर, सरकारी दफ्तरों में, चुनावी रैलियों में और आंदोलनों में कहीं न कहीं आपको मिल जाएगा। हां, उसे ढूंढने वाली आंख चाहिए। अब वैसी दृष्टि वाला वह लक्ष्मण कहां मिलेगा? आज जब अभिव्यक्ति पर राजनीतिक, फासीवादी, अंधविश्वासी, मजहबी उन्मादी, उग्रवादी और अराजकतावादी ताकतें प्रकट या अप्रकट रोक लगाने की जुगत में भिड़ी हैं, तब हमें एक अदद लक्ष्मण तो चाहिए ही, रोज चाहिए। हरदम चाहिए। पर मुश्किल यह है कि लक्ष्मण जैसे लोग कभी-कभी ही पैदा होते हैं। क्या करें? … लक्ष्मण जैसे कार्टूनिस्ट के बिना यह दुनिया कुछ कम चमकीली, कुछ ज्यादा डरावनी, कुछ ज्यादा बोर और कुछ ज्यादा डरपोक हो जायेगी, पर जब तक एक और लक्ष्मण हमें नहीं मिलता, हमें ऐसे ही विश्व की आदत डालनी होगी।
लेखक पद्मश्री से सम्मानित प्रख्यात व्यंग्यकार हैं
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