नकारात्मक राजनीति का पेंडुलम
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नकारात्मक राजनीति का पेंडुलम

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Jan 27, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 27 Jan 2015 12:30:53

देवेन्द्र स्वरूप
रेन्द्र मोदी के नेतृत्व में लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत मिला और इसके साथ ही लगभग तीस साल बाद भारत को स्थिर सरकार प्राप्त हुई। 'सबका साथ, सबका विकास' के उद्घोष के साथ इस सरकार को सत्ता ग्रहण किये 26 जनवरी 2015 को आठ महीने पूरे हो रहे हैं। इन आठ महीनों में इस सरकार ने आर्थिक दृष्टि से कई ठोस लोक कल्याणकारी योजनाएं घोषित की हैं जिनके कारण पूरे विश्व में भारत की प्रतिष्ठा एवं विश्वसनीयता बढ़ी है। अनेक देशों के राष्ट्राध्यक्ष, वर्ल्ड बैंक, आईएमएफ आदि अन्तरराष्ट्रीय संस्थाएं और अमर्त्य सेन, जगदीश भगवती आदि प्रतिष्ठित अर्थशास्त्री सरकार की आर्थिक नीतियों की प्रशंसा कर रहे हैं। विकास कार्यों में देशी और विदेशी पूंजी के निवेश का अनुकूल वातावरण पैदा हुआ है। जहां पहले एक ही स्वर कानों पर पड़ता था कि भारत में पूंजी निवेश खतरे से खाली नहीं है वहीं अब समृद्ध राष्ट्रों की पूंजी भारत में आने के लिए लालायित है और देशी पूंजी का विदेश पलायन लगभग रुक गया है। वित्त मंत्री का यह कथन समीचीन है कि गरीबी को कम करने के लिए बेरोजगारी को मिटाना जरूरी है, बेरोजगारी को मिटाने के लिए रोजगार का सृजन आवश्यक है। रोजगार के सृजन के लिए औद्योगिकीकरण व कृषि का विस्तार आवश्यक है और इस सबके लिए देशी या विदेशी पूंजी का निवेश अनिवार्य है।
लोकतंत्र में संसद ही सर्वोच्च
किंतु देश को इस दिशा में आगे बढ़ाने के लिए सभी राजनीतिक दलों, नौकरशाही एवं मीडिया का परस्पर सहयोग आवश्यक है। हमने ब्रिटिश संसदीय प्रणाली के अनुकरण पर जिस संविधानिक रचना को अपनाया है उसमें लोकमत की अभिव्यक्ति का मुख्य साधन वयस्क मताधिकार से निर्वाचित सांसद एवं विधायक हैं, वही जनाकांक्षाओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। सरकार द्वारा उठाये गये प्रत्येक कदम पर लोकसभा और राज्यसभा में गहन बहस होती है और पारित करके उसे कानून का रूप दिया जाता है। तभी देश आगे बढ़ता है। वर्तमान संविधानिक रचना में यह भी आवश्यक है कि दोनों सदनों में वह विधेयक पास हो। 2014 के लोकसभा चुनावों के बाद लोकसभा में भाजपा को पूर्ण बहुमत प्राप्त है। राजग के अन्य घटकों, जैसे शिवसेना और शिरोमणि अकाली दल व रामविलास पासवान की लोकजनशक्ति पाअर्ी को मिलाकर वह और अधिक पुष्ट हो गया है। किंतु राज्यसभा में यह स्थिति नहीं है। वहां राजग का अल्पमत है और अनेक छोटे-छोटे दल अपने बल पर तो नहीं, पर सब मिलकर राजग पर भारी पड़ जाते हैं। इसी स्थिति का लाभ विपक्ष उठा रहा है। दलीय प्रणाली पर आधारित लोकतंत्र की आदर्श स्थिति में दो दलों की उपस्थिति ठीक रहती है। तब बहुमत-अल्पमत का निर्णय सरलता से हो जाता है। किंतु हमेशा यह स्थिति रहना संभव नहीं। दो से अधिक दल भी हो सकते हैं। यदि उन दलों का आधार विचारधारा एवं कार्यक्रम हों तो भी सरकार द्वारा प्रस्तुत किसी भी विधेयक पर उनका गठबंधन विचारधारा एवं कार्यक्रम पर आधारित होगा और तब इस गठबंधन का स्वरूप व संख्या प्रत्येक विधेयक के अनुसार बदलती रहेगी।
भारतीय संविधान का मूल ढांचा ब्रिटिश सरकार द्वारा निर्मित 1935 के भारत एक्ट पर आधारित है। ब्रिटेन स्थित जिस 'थिंक टैंक' ने उस एक्ट की रूपरेखा तैयार की थी उसने 'ज्वाइंट पार्लियामेंट्री कमेटी' के पृष्ठभूमि पत्र में स्पष्ट शब्दों में आशंका व्यक्त की थी कि इस संविधान की सफलता इस पर निर्भर करती है कि अल्पमत बहुमत का आदर करे। विचारधारा एवं कार्यक्रम के आधार पर खुलेमन से प्रत्येक विधेयक पर सदन में चर्चा करे। पर दुर्भाग्य से भारतीय राजनीति का यह चरित्र कभी नहीं रहा। भारत में अधिकांश राजनीतिक दलों का निर्माण विचारधारा एवं कार्यक्रम के आधार पर नहीं हुआ, अपितु कतिपय राजनेताओं की सत्ताकांक्षा में से हुआ है। अपनी सत्ताकांक्षा की पूर्ति के लिए उन्होंने भारत की विविधता में से उपजी क्षेत्र, जाति और मजहब की संकीर्ण निष्ठाओं के आधार पर छोटे-छोटे दल खड़े किये हैं। इन संकीर्ण निष्ठाओं का अखिल भारतीय राष्ट्रीयता के धरातल पर उन्नयन करने के बजाए उन्हें परस्पर प्रतिस्पर्धी बनाकर अपनी वोट बैंक राजनीति का हथियार बनाया है। इसलिए भारतीय राजनीति का चरित्र अधिकाधिक नकारात्मक होता जा रहा है। यह पतन आज नहीं, बहुत पहले प्रारंभ हो गया था। कोई भी दल इससे मुक्त होने का दावा नहीं कर सकता। समाजवादी नेता डा. राममनोहर लोहिया ने 1967 में इसे गैर कांग्रेसवाद का अधिष्ठान दिया। तभी से कांग्रेस के हाथों से केन्द्र की सत्ता छीनने के लिए सब दल गठबंधन की राजनीति करते रहे हैं।
विपक्षी भटके राह से
गठबंधन धर्म का एक ही अर्थ रह गया है कि सत्ता के कुछ टुकड़े पाने के लिए सौदेबाजी करके सरकार बनायी जाए और सरकार का हिस्सा बनकर अपनी व्यक्तिगत और दलगत स्थिति को अधिक मजबूत किया जाय। भाजपा ने नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में पहली बार 'सबका साथ, सबका विकास' और 'भारत पहले, दल या मैं पीछे' का नारा देकर इस नकारात्मक राजनीति को राष्ट्रवादी अधिष्ठान पर वापस लाने की कोशिश की। किंतु नकारात्मक राजनीति अपने मूल चरित्र पर अड़ी रही। पिछले आठ महीनों में इन दलों ने राष्ट्रीय बहस को आर्थिक मुद्दों से भटकाकर ऐसे मुद्दों पर केन्द्रित करने की कोशिश की है जो समाज को जाति व मजहब के नाम पर विभाजित करते हैं। जमीन अधिग्रहण, कोयला खदान विधेयक, बीमा विधेयक और नागरिकता संशोधन विधेयक जैसे लोकहितकारी विधेयकों पर खुली बहस करने के बजाय उन्होंने सदन की कार्रवाही ठप करने का पुराना हथकंडा ही अपनाया यानी एक प्रकार से राष्ट्र के आर्थिक विकास के पहिये पर रोक लगाने की कोशिश की। स्वाभाविक ही, इस नकारात्मक राजनीति को विफल करने के लिए सरकार को अध्यादेश का रास्ता अपनाना पड़ा और पिछले आठ महीनों में आठ अध्यादेश लाये गये। इस पर विपक्ष ने शोर मचाना शुरू किया कि यह अध्यादेशी सरकार है, यह 'लोकतंत्र की हत्यारी' है। कैसी विचित्र स्थिति है कि एक ओर तो आप सदन में विधेयक पर बहस न होने दो, सदन की कार्रवाही ठप करो, सरकार को जनहित में अध्यादेश के रास्ते पर धकेलो और फिर उस पर लोकतंत्र की हत्या का आरोप लगाओ। इस नकारात्मक विध्वंसक राजनीति में वे कम्युनिस्ट पार्टियां भी शामिल हैं जो रूस और चीन में अधिनायकवादी सरकारों की गुलाम रही हैं और भारत में भी 1976 से 1998 तक उनके समर्थन से बनी और टिकी संयुक्त मोर्चा सरकार ने अपने कार्यकाल में केवल 61 विधेयक पारित किए और 77 अध्यादेश जारी किये।

कोई भी दल स्वयं के इस नकारात्मक राजनीति से अलिप्त रहने का दावा नहीं कर सकता, चाहे वह विचारधारा प्रधान भारतीय जनसंघ हो, वर्तमान भाजपा या टूटती-बिखरती कम्युनिस्ट पार्टियां हों। इस नकारात्मक राजनीति का पेंडुलम पहले गैर कांग्रेसवाद के छोर पर खड़ा था तो अब वह गैर भाजपावाद के छोर पर पहुंच गया है। प्रत्येक प्रधानमंत्री के कार्यकाल में अध्यादेश का रास्ता अपनाने की मजबूरी रही है। जवाहरलाल नेहरू के कार्यकाल में 70, इंदिरा गांधी के कार्यकाल में 77, राजीव गांधी के प्रधानमंत्री रहते 35 और पी.वी. नरसिंहराव के शासन में 77 अध्यादेश जारी हुए। स्पष्ट ही, इस नाते कोई किसी से कम नहीं है। कुल मिलाकर पिछले 62 साल में 637 अध्यादेश जारी किये गये। संसद की कार्रवाही को बाधित न करने का संकल्प कितनी ही बार लिया जा चुका है और हर बार संकल्प लेने वालों ने ही उसे तोड़ा है।
यह स्थिति स्वतंत्र भारत में विकसित राजनीतिक संस्कृति का पुनर्मूल्यांकन करने की मांग करती है। पुनर्मूल्यांकन की यह प्रकिया हमारे द्वारा अपनायी गयी संविधानिक रचना पर ले जाएगी क्योंकि जैसा संविधान होगा वह वैसा ही नेतृत्व ऊपर फेंकेगा। इस स्थिति को बदलने के लिए लोक शिक्षण की बहुत आवश्यकता है, और यह कार्य मीडिया को करना है। विशेषकर टेलीविजन चैनलों पर चार-पांच दलों के प्रवक्ताओं को इकट्ठे बैठाकर किसी विषय पर गरमागरम बहस की वर्तमान शैली के बारे में पुनर्विचार करना होगा। क्या इन बहसों के आयोजकों को यह ज्ञान नहीं है कि ऐसी किसी भी बहस में अन्य सब प्रवक्ता मिलकर सत्तारूढ़ दल पर हमला करेंगे और उसका प्रवक्ता अकेला पड़ जाएगा? राजनीतिक संस्कृति के इस विध्वंसक चरित्र के कारण ही सरकार को चलाने का दायित्व राजनीतिक नेतृत्व के हाथों से खिसक कर नौकरशाही तंत्र में केन्द्रित हो गया है। कई बार राजनेता नौकरशाहों का दुरुपयोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए करते हैं इसलिए उनका नौकरशाही पर नैतिक प्रभाव नहीं रह गया है। मीडिया को लोक शिक्षण के अपने दायित्व के प्रति अधिक सजग और सक्रिय होना होगा।
आया समय अनुकूल
सौभाग्य से इस समय देश को ऐसा व्यक्ति प्रधानमंत्री के रूप में प्राप्त हुआ है जो स्वयं अट्ठारह घंटे काम करता है, जिसे बारह वर्ष का प्रशासकीय अनुभव प्राप्त है, जिस पर वंशवाद और भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लग सकता। जिसके बारे में अर्थशास्त्री जगदीश भगवती का कहना है कि नरेन्द्र मोदी को ईश्वरीय वरदान के रूप में देखा जाना चाहिए, इसलिए वे भारतीय जन की आशा-आकांक्षाओं के एकमात्र प्रतिनिधि के रूप में उभर आये हैं। व्यक्ति केन्द्रित यह स्थिति लोकतंत्र के लिए आदर्श नहीं कही जा सकती। लोकतंत्र की सफलता के लिए पूरे समाज, प्रशासन तंत्र तथा राजनीतिक नेतृत्व की जागरूकता और सहयोग आवश्यक है। इसीलिए राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 19 जनवरी को इस ओर राष्ट्र का ध्यान खींचा है और संसद की कार्रवाही को बाधित न करने की राजनीतिक नेतृत्व से अपील की है। राष्ट्रपति की इस अपील से प्रेरित होकर संसदीय कार्य मंत्री वेंकय्या नायडू की पहल पर मोदी सरकार के आठ वरिष्ठ मंत्रियों ने प्रमुख प्रशासकीय अधिकारियों के साथ बैठकर इस बारे में गंभीर माथापच्ची की है कि 23 फरवरी से होने वाले संसद सत्र में इस नकारात्मक राजनीति से बाहर कैसे निकला जाए। राष्ट्र आकुलता से प्रतीक्षा कर रहा है कि सत्ता परिवर्तन के साथ-साथ राजनीतिक संस्कृति के चरित्र में भी परिवर्तन आये, पर यह परिवर्तन लाने में मीडिया व बुद्धिजीवियों को अहम भूमिका निभानी होगी। 22.01.2015

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