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आप दिल्ली की किसी भी सड़क पर निकल जाएं, सबसे महंगे विज्ञापन बोर्ड पर आपको इस पार्टी का प्रचार टंगा मिलेगा। दिल्ली में चुनाव अरविन्द केजरीवाल बनाम मतदाता जैसा हो गया है। रेडियो, मेट्रो, ऑटो, बोर्ड-हर जगह केजरीवाल मतदाताओं को चुनौती जैसे देते नजर आ रहे हैं। और यह स्थिति आज, जब चुनाव सिर पर आ गए हैं, तब की नहीं है। यह स्थिति पिछले तीन महीने से बनी हुई है। केजरीवाल इस बार मतदाताओं के सामने ईमानदारी की दुहाई नहीं दे रहे हैं। वह तमाशा अब शायद खत्म हो चुका है। फ्री बिजली, फ्री पानी वगैरह की तरह। इसीलिए अब फ्री वाई-फाई देने जैसी बात खोजी गई है।
क्या आपने केजरीवाल के किसी भी पोस्टर या होर्डिंग को गौर से देखा है? एक बेचैनी साफ नजर आती है। 'मुझे किसी भी तरह सीएम बनाओ' की बेचैनी। बेचैनी इस स्तर की कि केजरीवाल ने सबसे पहले खुद को मुख्यमंत्री पद का दावेदार घोषित कर दिया। लेकिन इसमें दिल्ली के शायद किसी भी मतदाता के लिए आश्चर्य जैसी कोई बात कहीं नहीं थी। लिहाजा केजरीवाल ने भाजपा के वरिष्ठ नेता प्रो. जगदीश मुखी का नाम भी उस पद के लिए घोषित कर दिया। पर इससे भी बात नहीं बनी, उल्टे जगदीश मुखी की फोटो में की गई छेड़छाड़ से जनता के सामने यह साफ हो गया कि केजरीवाल कितने बेचैन हैं। उधर सारे सर्वे यह साफ करते जा रहे थे कि मोदी के खिलाफ एक शब्द भी सुनने के लिए मतदाता राजी नहीं हैं। लिहाजा केजरीवाल ने तीसरा दांव खेला। मोदी पीएम रहें, और मुझे सीएम बना दिया जाए। यह दांव कुछ दल हरियाणा में भी खेल चुके थे, और भाजपा की घुड़की के बाद वह फ्लॉप हो गया।
आखिर इतनी बेचैनी क्यों? दरअसल अरविंद केजरीवाल अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। कांग्रेस से कहीं बढ़कर। हार गए तो केजरीवाल क्या करेंगे? सारे विज्ञापन बोडार्ें पर तस्वीर सिर्फ केजरीवाल की है। कोई योगेन्द्र यादव नहीं, कोई संजय सिंह, आशुतोष, प्रशांत भूषण, या क ख ग…कोई नहीं। केजरीवाल पार्टी को इसका पूरा अधिकार है। इस बात पर सवाल नहीं उठाया जा रहा है कि यह पार्टी या कोई और पार्टी प्रचार क्यों कर रही है या प्रचार में खर्च क्यों कर रही है। सवाल यह है कि यह पार्टी आखिर कर क्या रही है।
जवाब सीधा सा है। यह पार्टी, कांग्रेस से भी कहीं ज्यादा तीव्रता से, अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही है। उसे पता है कि कांग्रेस तो इस बार भी हार का ठीकरा स्थानीय नेताओं पर फोड़ देगी, या हरियाणा, झारखंड, कश्मीर वगैरह की तरह चुप्पी साध कर बैठ जाएगी। और वैसे भी कोमा में पड़ी पार्टी के लिए गहरे कोमा में चले जाने से कोई खास फर्क नहीं पड़ता। लेकिन इस बार दिल्ली में विधानसभा चुनाव हारते ही आम आदमी पार्टी तुरंत नए साल की ऐसी जश्न पार्टी बन जाएगी, जिसमें लोगों की घडि़यों में सुबह के दो या तीन बजने लगे हों। शराब खत्म-पार्टी खत्म।
अस्तित्व का जैसा संकट कांग्रेस के सामने है, उससे भी दयनीय हालत में अरविंद केजरीवाल हैं। केजरीवाल पार्टी के पास कहने के लिए केजरीवाल के अलावा कुछ नहीं है। पुराने साथी, विधायक, वरिष्ठ नेता-सारे केजरीवाल का साथ छोड़ चुके हैं, और छोड़ते जा रहे हैं। और साथ छोड़ने वालों के सवाल पर केजरीवाल के पास एक ही तर्क है-ये सब, और इनके साथ भाजपा भी, केजरीवाल से डरती है। याद कीजिए वाराणसी का चुनाव। वहां केजरीवाल का तर्क था- जो केजरीवाल से डरता है, वह दो सीटों से लड़ता है। केजरीवाल पार्टी के सारे तर्क केजरीवाल खुद हैं। अगर कोई विरोध में है, तो वह केजरीवाल से विरोध, ईर्ष्या या किसी और कारण विरोधी है, और अगर कोई उनकी पार्टी के साथ है, तो वह केजरीवाल के कारण है। आप इसे केजरीवाल का आत्मविश्वास कह सकते हैं, या केजरीवाल की आत्ममुग्धता। सीधा सवाल-दिल्ली भी हारे, फिर यह आत्ममुग्धता कहां जाएगी? और उससे भी बढ़कर यह कि केजरीवाल के इस आत्मविश्वास या आत्ममुग्धता को जनता कितना कबूल कर सकेगी?
बात आगे बढ़ाएं, उससे पहले थोड़ी चर्चा इस आत्ममुग्धता पर करना जरूरी है, क्योंकि यह इस चुनाव का सबसे अहम पक्ष है। लोकसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी मानकर चल रही थी कि वह दिल्ली की सारी सीटें जीत लेगी। उस दौरान, या उसके थोड़ा पहले जो लोग आम आदमी पार्टी में शामिल हुए थे, जो अब अपनी ही पार्टी के कार्यकर्ताओं से जान बचाकर दीवारें फांदकर भागते देखे जाते हैं, आमतौर पर इसी आसन्न सत्ता से प्रेरित माने जाते हैं। वास्तव में पार्टी की यही स्थिति देश भर में थी। केजरीवाल 50-60 से लेकर 100-150 सीटें जीतकर जोड़-तोड़ से प्रधानमंत्री तक बनने का भरोसा लेकर चल रहे थे। दिल्ली की कुर्सी छोड़कर लोकसभा चुनाव में उतरना इसी विश्वास, आत्मविश्वास या मुगालते का हिस्सा था। दिल्ली की कुर्सी तो गई ही, और देश भर में 400 से ज्यादा सीटों पर आम आदमी पार्टी की जमानत जब्त हुई। यह केजरीवाल की आत्ममुग्धता का नतीजा था। केजरीवाल संभवत: आज भी ठीक से नहीं जानते होंगे कि दिल्ली में उनका मिशन क्या है? मोदी का विरोध करना,अस्तित्व बचाना, खुद को 'प्रमोट' करना या अपनी पार्टी को 'प्रमोट' करना।
यह आत्ममुग्धता इस चुनाव का अहम पक्ष क्यों है? क्योंकि केजरीवाल पार्टी के लिए यही ब्रांड केजरीवाल है। वह गलत करे या सही। इसी शातिराना या निराधार आत्ममुग्धता को आत्मविश्वास के तौर पर पेश किया जाता है। स्थिति किसी ऐसे सम्प्रदाय जैसी हो जाती है, जिसमें आपको तर्क नहीं करना है, गलत सही-नहीं समझना है, सिर्फ यकीन करना है, तालियां बजानी हैं। ब्रांड केजरीवाल ऐसी फिल्म का ऐसा हीरो है, जिसकी कहानी खत्म हो गई है, लेकिन फिल्म अभी बाकी है, लिहाजा हीरो को भांति-भांति की हरकतें करके समय पूरा करता है।
फिर भी केजरीवाल ब्रांड थे। वह खुद सीएम पद के दावेदार तो थे ही, दूसरी पार्टियों के दावेदार तय करने का काम भी उन्होंने संभाल रखा था। लेकिन भाजपा ने किरण बेदी को आगे करके केजरीवाल की इस शरारत पर पूर्णविराम लगा दिया। अब केजरीवाल ठाठ से कह सकते हैं-देखो में जीत गया।
केजरीवाल फिल्म, केजरीवाल ब्रांड और केजरीवाल पार्टी में दिक्कत सिर्फ यह है कि उसकी विश्वसनीयता शून्य है। वह मजाक का पात्र है (देखें, बाक्स हंसोड़ जैसे केजरीवाल)। लेकिन उसमें फिर भी उम्मीद है। उम्मीद इस बात में है कि फिल्म में कोई पटकथा न होने की बात कई दर्शक नहीं समझ सकेंगे, या दूसरे शब्दों में कई लोग ऐसे भी होंगे, जो मुफ्त में यह और मुफ्त में वह मिलने की अपनी उम्मीद बनाए रखने के लिए केजरीवाल पर दांव लगाना जारी रखेंगे। उदाहरण के लिए केजरीवाल पार्टी का वादा है कि वह दिल्ली की हर महिला को एक बटन दबाते ही पुलिस बुलाने का अधिकार देगी। यह अलग बात है कि दिल्ली पुलिस दिल्ली सरकार के अधिकार क्षेत्र में नहीं है। 'यही तो घपला है जी, हम इसी की लड़ाई लड़ रहे हैं'। इसी तरह केजरीवाल पार्टी का कहना है कि वह सरकारी स्कूलों को इतना सुधार देगी कि अमीर लोग अपने बच्चों को वहां भेजना शुरू कर दें। क्या करेंगे, कैसे करेंगे? पता नहीं। फिर? फिर 'यही तो घपला है जी, हम इसी की लड़ाई लड़ रहे हैं'। आप केजरीवाल पार्टी के किसी भी वादे को कसौटी पर कसकर देखें, अंतिम जवाब यही मिलेगा कि 'यही तो घपला है जी, हम इसी की लड़ाई लड़ रहे हैं'।
जाहिर सी बात है कि केजरीवाल पार्टी मान कर चल रही है कि दिल्ली के कम से कम आधे मतदाता आंख बंद करके उसके बयानों पर यकीन करेंगे, तर्क नहीं करेंगे। कोई शक नहीं कि हर समाज में एक न एक वर्ग ऐसा होता है, जिसे बारीक बातें समझने की जरा भी जल्दी नहीं होती है। क्या केजरीवाल सारी दिल्ली को इसी श्रेणी का मानकर चल रहे हैं या उन्हें कहीं और से भी समर्थन मिलने की उम्मीद है? चर्चा में आगे इस बिन्दु पर लौटेंगे। लेकिन केजरीवाल एक लड़ाई चाह कर भी नहीं लड़ सकते। बहुत क्रांतिकारी किस्म की प्रायोजित बिजनेस क्लास वार्ताओं में भी नहीं। वह इस सवाल का जवाब नहीं दे सकते कि वह जो भी क्रांति अपने वादों में लाना चाह रहे हैं, 49 दिनों में उसका बीजारोपण भी क्यों नहीं किया गया। जबकि उन्होंने कहा था कि वह मान कर चल रहे हैं कि उनकी सरकार सिर्फ तीन-चार दिन की है, जो करना है, इसी अवधि में करना पड़ेगा। लेकिन भाजपा ने अभी तक केजरीवाल को इस बिन्दु पर चुनौती नहीं दी है।
कोई संदेह नहीं कि भारतीय जनता पार्टी दिल्ली विधानसभा का चुनाव भी प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के नाम पर ही लड़ रही है। इसमें तीसरा पक्ष जोडि़ए। कांग्रेस ने योजना बनाई है कि उसके आलानेता, जो कि दो ही हैं, पूरी दिल्ली में सिर्फ तीन रैलियां करेंगे। क्या कांग्रेस रैलियां करने से डरती है? कतई न् ाहीं। उत्तरप्रदेश, बिहार, पश्चिम बंगाल, तमिलनाडु, ओडिशा और कई अन्य राज्यों की तरह, कांग्रेस दिल्ली में भी शायद पूरी ताकत से चुनाव में उतरने से डरती है। कहीं वह ज्यादा ही वोट न काट बैठे।
फिर दिल्ली पर लौटें। माने, चाहे कांग्रेस हो या केजरीवाल, दोनों का दुश्मन सिर्फ एक है-मोदी। बिहार में लालू-नीतिश एकजुट हो गए। मुलायम भी साथ हैं। ममता कम्युनिस्टों से हाथ मिलाने के लिए तैयार हैं। सबका दुश्मन एक ही है-मोदी। मोदी से दुश्मनी उनके लिए अस्तित्व का सवाल जैसी है।
क्या आपको कोई आश्चर्य होता है? वास्तव में आश्चर्य करने की आवश्यकता नहीं है। जो ताकतें पिछले 12 वर्ष से सिर्फ मोदी के पीछे पड़े रहने या मोदी की राह कठिन से कठिन बनाने के एकमात्र मिशन पर डटी रहीं, वही दिल्ली में भी अपना काम कर रही हैं।
पीछे छोड़ा गया बिन्दु यह है, जो दिल्ली चुनाव की कहानी का एक बड़ा पहलू है। मोदी का विरोध किसी भी स्थिति में या किसी भी सीमा तक करना जिनकी राजनैतिक-मानसिक मजबूरी है-दिल्ली में वे सब केजरीवाल के परोक्ष-अपरोक्ष क्रांतिकारी हो सकते हैं। एक स्पष्ट राजनैतिक ध्रुविकरण के साथ। आप मोदी के साथ हैं या मोदी के खिलाफ हैं।
बस एक छोटा सा पेंच है। कांग्रेस का जो उम्मीदवार होगा, वह अपना वोट तो स्वयं को ही देगा। चाहे लाख आलाकमान कुछ और चाहता रहे। इतनी चालाकी तो बिहार में लालू प्रसाद की भी नहीं चल सकी थी। यह तो एक महानगर की विधानसभा का चुनाव है। माने कांग्रेस वोट काटेगी, पूरी तरह ध्रुविकरण नहीं होने देगी, और केजरीवाल के हसीन सपनों में अड़ंगा लगाएगी। क्या यह सच है? इस बारे में कोई फैसला करने से पहले रुकिए। कांग्रेस ने एक कदम बढ़ाया है, जो पहली नजर में थोड़ा सा आश्चर्यजनक है। दिल्ली में, मोदी सरकार की नाक के नीचे, अगर मुख्यमंत्री केजरीवाल हों, तो कांग्रेस के लिए इससे अच्छी बात शायद कुछ नहीं होगी। लेकिन केजरीवाल के बाद संभवत: पहली बार कांग्रेस ने केजरीवाल पर कोई हमला बोला है, और उसमें उन्हें मिस्टर यू-टर्न कहा है।
हालांकि कांग्रेस जाहिर तौर पर यह कहने की स्थिति में नहीं थी कि उनका पहला यू-टर्न तो तभी हुआ था जब कांग्रेस को कोस कर वोट लेने के बाद उन्होंने कांग्रेस के समर्थन से सरकार बनाई थी। उसके बाद (समर्थन के मसले पर) यू-टर्न लेने की बारी कांग्रेस की थी, लेकिन केजरीवाल ने दूसरा यू-टर्न लेने का मौका कांग्रेस को कभी नहीं दिया। जाहिर है, केजरीवाल के यू-टर्न पर नाराजगी का पहला अधिकार कांग्रेस का बनता है। लेकिन वास्तव में कांग्रेस के इस कदम के पीछे कुछ गहरी बातें हैं, जिन पर ध्यान देना पड़ेगा।
पहले दिल्ली का मिजाज देखिए। 2013 के विधानसभा चुनाव में आम आदमी पार्टी को 29 प्रतिशत वोट मिले थे। लोकसभा चुनाव में इस पार्टी का मत प्रतिशत बढ़कर 33 हो गया। लेकिन दूसरी तरफ भारतीय जनता पार्टी को 2013 के विधानसभा चुनाव में 33 प्रतिशत मत मिले थे, जो लोकसभा चुनाव में बढ़कर 46़4 प्रतिशत हो गए। 13़4 प्रतिशत की वृद्धि। माने आम आदमी पार्टी को मिले हर एक नए वोट के जवाब में भाजपा को तीन से ज्यादा नए वोट मिले। दिल्ली विधानसभा चुनाव में भाजपा को आम आदमी पार्टी से मात्र 2 लाख 81 हजार 770 वोट ज्यादा मिले थे। (26,04,100 वोट ऋण 23,22,330)। लेकिन लोकसभा चुनाव में दिल्ली में भाजपा को आम आदमी पार्टी से 11 लाख 15 हजार 963 वोट ज्यादा मिले। (भाजपा 38,38,850 वोट-आम आदमी पार्टी 27,22,887 वोट)। अगर इसे 70 से भाग कर दें, तो दिल्ली की विधानसभा सीटों पर भाजपा की औसत बढ़त लगभग सोलह हजार बैठती है। (15,942 वोट)।
फिर पिटा कौन? जाहिर तौर पर कांग्रेस। लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का मत प्रतिशत घटकर 15़1 रह गया था, जो विधानसभा चुनाव में 24.55 था। सीधा दस प्रतिशत का पतन। लिहाजा बहुत साफ है कि कांग्रेस जितना गिरेगी, माने जितने कम वोट ले पाएगी, भाजपा उतनी मजबूत होती जाएगी।
यही कारण है कि कांग्रेस अब आम आदमी पार्टी पर हमला कर रही है। भाजपा का वोट काटो-वही हमारा मिशन है। लेकिन इसमें भी दिक्कत है। कांग्रेस वोट काट नहीं सकती। उसके सामने चुनौती सिर्फ अपने वोट को किसी तरह बचाए रखने की है। लेकिन सबसे ताजा सर्वे में कांग्रेस को 8 प्रतिशत मत मिलते बताए जा रहे हैं। वोट और जमानत की चिंता छोड़ो, अभी चिंता राज्य में अपने बूते कांग्रेस की मान्यता बचाने की कगार पर है। यह केजरीवाल के लिए बहुत बुरा शकुन है।
चुनाव विश्लेषण के पहले दिल्ली की तस्वीर देखिए। गर्मियां आने वाली हैं, पानी का संकट पैदा होना तय है, अधिकार का पानी, और जरूरत पड़ने पर अतिरिक्त पानी देने के लिए सबसे उपयुक्त हरियाणा है। जहां भाजपा की सरकार है। दिल्ली के भीतर देखिए, सबसे बड़ी अंदरूनी समस्या अवैध बस्तियों, कच्ची बस्तियांे और झुग्गियों की है। काश ये पक्की हो जाएं। केन्द्र सरकार ने वादा किया हुआ है। वहां सरकार भाजपा की है। जाहिर है, भाजपा के
पास खेलने के लिए और कई पत्ते हैं। पहले
बात करते हैं किरण बेदी और विनोद कुमार बिन्नी की।
हीरो केजरीवाल के लिए इन दोनों में ज्यादा खतरनाक 'विलेन' कौन है? किरण बेदी हराकर मानेगी, और विनोद कुमार बिन्नी बचकर भागने का मौका नहीं देंगे। खीर तो जाने कब की पच गई। कई भेद, कई राज, और बहस करने की वह चुनौती, जो केजरीवाल की चुनौती से कहीं ज्यादा गंभीर है। कैसे? वह ऐसे कि अगर बिन्नी बहस पर उतर आए, तो सीधे उन मतदाताओं पर असर डालेंगे, जो अभी भी केजरीवाल को गंभीरता से लेते हैं। अगर बेदी बहस करती हैं, तो मध्यम वर्ग केजरीवाल से पहले ही दूर हो चुका है। लेकिन केजरीवाल के लिए असली 'विलेन' किरण बेदी या विनोद कुमार बिन्नी नहीं हैं। केजरीवाल के लिए असली चुनौती हैं मोदी और अमित शाह। अमित शाह ने किरण बेदी को सामने किया। एक विद्वान ने तो गिन भी लिया है, इस लोकसभा में भाजपा के सदस्यों में से सौ से ज्यादा पूर्व कांग्रेसी हैं। माने अमित शाह अपना पहला दांव सटीक ढंग से खेल चुके हैं, जो अभी तक अकाट्य रहा है। यह पहली और सतही बात है। दूसरी और गहरी बात-केजरीवाल विचार करके बताएं कि उन्होंने किन परिस्थितियों में मोदी फॉर पीएम और केजरीवाल फॉर सीएम का नारा दिया था?
केजरीवाल विचार करके बताएं कि किन परिस्थितियों में टीवी चैनलों पर उनके इंटरव्यू की झड़ी लगी थी और सभी एंकरों ने उनसे यह सवाल पूछा कि क्या दिल्ली में मोदी बनाम केजरीवाल होने वाला है, जिसके जवाब में हर बार केजरीवाल यही कहते रहे थे कि दिल्ली के लोग (केजरीवाल से कानाफूसी में!) कह रहे हैं कि मोदी फॉर पीएम एंड केजरीवाल फॉर सीएम? केजरीवाल विचार करके बताएं कि किन परिस्थितियों में उन्होंने दिल्ली में भाजपा के मुख्यमंत्री पद के दावेदार के तौर पर जगदीश मुखी (और उनके फोटोग्राफ) का अविष्कार किया था?
जाहिर है, केजरीवाल जानते हैं कि न वह मोदी से मुकाबला कर सकते हैं, और न मोदी पर सवाल उठा सकते हैं। 'यही तो घपला है जी, हम इसी की लड़ाई लड़कर देख रहे हैं'। -ज्ञानेन्द्र बरतरिया
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