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समाज की बोली में 'राई का पहाड़' एक मुहावरा है, लेकिन राज और समाज की बोलियां एक नहीं होतीं। समाज सरल है, राजनीति रपटीली। यहां गलत को गलत कहना 'निजी राय' है। सही को सही कहना गलत। इसलिए यहां राई की बजाय 'राय के पहाड़' हैं।
राय का एक ऐसा ही पहाड़ आम आदमी पार्टी के संस्थापक सदस्य और प्रख्यात अधिवक्ता शांति भूषण ने अरविन्द केजरीवाल के लिए खड़ा किया है।
दूसरा पहाड़ कांग्रेस महासचिव जनार्दन द्विवेदी की राय पर खड़ा हुआ और 'कसमसाते-कद्दावर'को खुद अपनी ही राय पर कान पकड़ने पड़े।
समाज को सच चाहिए, राजनीति झूठ पर आमादा है। भले सच हांे, लेकिन द्विवेदी और भूषण को उनकी अपनी पार्टियों ने राय व स्पष्टीकरण के सन्नाटों में अकेला छोड़ दिया। दिल्ली विधानसभा चुनाव के वक्त सच बोलना अपराध है! कुनबे और कलह (आप अराजकता पढ़ सकते हैं) को पोसने वालों के पास रटे रटाए जवाब हैं। नया सवाल-नई आशंका और पार्टी के भीतर से ही उठती नई तरह की राय आका और पिट्ठुओं को डराती है।
राहुल-सोनिया मंडली बौखलाई हुई है। अरविन्द सहमे हुए हैं।
इस बेचैनी और छटपटाहट की ठोस वजह है। लोकसभा चुनाव और विभिन्न राज्य चुनावों में मीडिया सर्वेक्षण सही सिद्ध हुए हैं। आज दिल्ली विधानसभा चुनाव में यही सर्वेक्षण भाजपा को फिर आगे बता रहे हैं। महत्वपूर्ण प्रश्नों से कतराकर निकल जाने वाली राजनीति का यह राहुकाल है। जिनकी महत्वाकांक्षाएं आसमान पर हैं उनमें साहस शून्य है।
पहले बात अरमान भरी अरविन्द लहर की।
दिल्ली को मझधार में छोड़ महत्वाकांक्षाओं के रथ पर सवार होकर वाराणसी पहुंचे (और धराशाई हुए) अरविन्द केजरीवाल इन दिनों किरण बेदी को सार्वजनिक बहस की चुनौती दे रहे हैं। लेकिन ठहरिए, क्या उनमें 'आप' ही से छिटके विनोद बिन्नी के सामने बहस के लिए खड़े होने का साहस है? बिन्नी एक वर्ष से बहस के लिए बुला रहे हैं, क्या केजरीवाल आएंगे। यदि हां, तो सभी की नजरें इस मुकाबले पर टिकी हैं।
दूसरी बात, महत्वाकांक्षाओं के महासागर की।
राहुल गांधी कहां छिप गए हैं? 'दागी-अध्यादेश' के मुद्दे पर तत्कालीन सरकार और बुजुर्ग नेतृत्व को नीचा देखने पर मजबूर करने वाला 'एंग्री यंग मैन' कहां है? बूढ़ी पार्टी ने अंतत: उन्हीं माकन को दिल्ली के दंगल में आगे किया है जिनकी प्रेस कान्फ्रेंस राहुल बाबा ने मटियामेट कर दी थी। कागज फाड़ना, बाजुएं चढ़ाना, यह अभिनय की बातें हैं। यहां ठोस-जमीनी मुकाबला है। यहां राहुल नहीं माकन को ही उतरना होगा। लोकसभा चुनाव परिणाम के बाद 'अंतर्ध्यान' हुए राहुल क्या दिल्ली के समर में डांवाडोल कांग्रेस की पतवार थामेंगे? यदि हां तो सबकी नजरें राहुल पर टिकी हैं।
और तीसरी व अंतिम बात भाजपा की।
दिल्ली के दंगल में किरण बेदी सरीखे खुद को साबित कर चुके लोगों को जोड़कर पार्टी ने अद्भुत साहस दिखाया है। विरोधी छोडि़ए, समर्थकों के लिए भी यह उत्साहपूर्ण-अनायास कदम है। लेकिन यहीं भाजपा के लिए कुछ विचार बिन्दु भी हैं।
पहला, उत्साह अच्छा है, अतिउत्साह खतरनाक। दूसरा, कोई मुकाबला आसान नहीं होता।
तीसरा, अप्रत्याशित चीजें उन्हें ज्यादा चौंकाती हैं जो कुछ आशा बांधे बैठे हैं।
टिकट-कुर्सी की चाह और हाय-हाय का उस पार्टी में क्या स्थान जहां राजनीति राष्ट्र सेवा का उपकरण मात्र है? भाजपा के लिए सत्ता महत्वाकांक्षा नहीं राष्ट्र की आकांक्षाओं को पूर्ण करने का साधन है। व्यक्ति आते-जाते रहेंगे, मार्ग नहीं बदलेगा, यह बात पार्टी अपने नेता और कार्यकर्ताओं के मन में किस तरह बैठाती है, इस पर पूरे देश की नजरें लगी हैं।
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