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प्रशांत बाजपेई
किसको अधिकार है यह कहने का कि अगले 30-40 सालों में फ्रांस मुस्लिम देश नहीं बन जायेगा? कौन हमें इससे वंचित कर सकता है? किसी को अधिकार नहीं है, कि हमें यह उम्मीद बांधने से रोके, या हमें वैश्विक मुस्लिम समाज के रूप में यह आशा करने से रोके। किसी को हमें यह बताने का हक नहीं है कि फ्रेंच पहचान क्या है?' ये शब्द हैं, मारवान मोहम्मद के
जो 'कलेक्टिव अगेंस्ट इस्लामोफोबिया इन फ्रांस' के प्रवक्ता हैं। 'इस्लामोफोबिया' शब्द पश्चिमी जगत के समाजवादी-वामपंथी बुद्घिजीवियों ने ईजाद किया है, जिससे आशय-इस्लाम के प्रति व्यर्थ की आशंकाओं से ग्रस्त-पश्चिमी समाज से है।
इस शब्द को आधार बनाकर अनेक वामपंथी, समाजवादी और मुस्लिम संगठन कतार में आ खड़े हुए हैं। ऐसे ही एक संगठन के प्रवक्ता का बयान आपने ऊपर पढ़ा। 7 जनवरी 2015 को शार्ली एब्दो पत्रिका पर हुए आतंकी हमले को भी दुनिया भर के वामपंथी इसी तथाकथित 'इस्लामोफोबिया' का परिणाम ही बता रहे हैं लेकिन इस बर्बर हमले के विरोध में लाखों फ्रांसीसियों के कंठों से गूंजे नारे 'जे शीज शार्ली (मैं शार्ली हूं)' का असर है कि उनकी आवाज कुछ दबी हुई है। सालों से फ्रांसीसी समाज में कट्टरता का यह जहर घुल रहा है। लेकिन फ्रेंच राजनीति, सामाजिक संगठनों, मीडिया और कला जगत का एक प्रभावशाली तबका इस बीमारी को यूरोप के बहुसंस्कृतिवाद की शान बतलाता आया है। जिहादी आतंकी हमलों पर दुनिया भर के वामपंथी या वामपंथी झुकाव रखने वाले ये लोग, जिनमें भारत के बयान बहादुर भी शामिल हैं, तर्क देते हैं कि जबसे अमरीका के नेतृत्व में पश्चिमी देशों ने 'वॉर ऑन टेरर' शुरू किया है तब से ऐसे हमले हो रहे हैं। उनसे पूछा जाना चाहिए कि साल 2015 की जनवरी में अफ्रीकी देश नाइजीरिया के बोको हराम नामक इस्लामी आतंकी संगठन ने 16 गांवों को आग लगाकर 2000 बच्चों-स्त्री-पुरुषों को मौत के घाट उतार दिया। इन लोगों ने किस वॉर ऑन टेरर में भाग लिया था? रूस के बेसलेन में चेचेन जिहादियों के हाथों मारे गए सैकड़ों मासूम बच्चों ने क्या गुनाह किया था? इराक और सीरिया में इस्लामिक स्टेट के हाथों मारे जा रहे हजारों शिया एवं यजीदी किस वॉर ऑन टेरर का हिस्सा हैं? सैकड़ों सालों से इस्लाम के नाम पर चल रहा 'वॉर ऑफ टैरर' किस बात की प्रतिक्रिया है? मुद्दे से ध्यान हटाकर इस्लामिक कट्टरपंथियों के साथ लामबंद होने वाले ये स्वार्थी तत्व सारी मानवता से द्रोह कर रहे हैं। इन्हीं के पाखंड की आग में फ्रांस झुलसने की कगार पर है।
पिछले एक दशक से 1 जनवरी की रात फ्रांस के लिए आतंक का पर्याय बन गई है। जब फ्रांसीसी 1 जनवरी का जश्न मना रहे होते हैं, उस समय पूरे फ्रांस में मुस्लिम गिरोह सड़क किनारे खड़ी कारों को आग के हवाले कर रहे होते हैं। 1 जनवरी 2015 को फ्रांस में 950 कारें जला दी गईं। फ्रेंच लोगों के नववर्ष उत्सव के दौरान शुभकामना संदेश देने का यह इस्लामी तरीका है। जनवरी 2013 में गृहमंत्री मेन्युएल वॉल्श ने बताया कि उस साल नववर्ष संध्या पर 1193 कारों और ट्रकों को आग लगाई गई। वे यह जानकर भी सदमे में थे, कि हर साल फ्रांस में 40,000 ट्रकों और कारों को इसी प्रकार आग के हवाले कर दिया जाता है।
जब अफ्रीकी देश माली में तबाही मचा रहे इस्लामी आतंकियों के खिलाफ फ्रांस ने अपनी सेना उतारी तो पूरे फ्रांस में तनाव पैदा हो गया। दर्जनों युवा फ्रेंच मुस्लिम माली के जिहादियों के साथ मिल कर फ्रांसीसी सेना के खिलाफ लड़ने के लिए माली जाते हुए गिरफ्तार किए गए। अबू बगदादी की दरिंदगी में साथ देने वाले फ्रेंच मुस्लिमों की संख्या भी कई सैकड़े पार कर चुकी है। फ्रांस में सार्वजनिक स्थलों पर बुर्का पहनने पर पाबंदी है लेकिन किसी बुर्काधारी महिला को पुलिस द्वारा रोकने पर आगजनी लूट-पाट और दंगे शुरु हो जातें हैं। कानून तोड़कर हजारों की संख्या में सड़कों पर नमाज पढ़ी जाती है। सारे शहर के मुस्लिम एक स्थान पर इकट्ठे होकर अपनी ताकत का प्रदर्शन करने लगे हैं। आज फ्रंेच पहचान खतरे में है, लेकिन यहां के तथाकथित सेकुलर तबके का भी वही हाल है जो भारत के सेकुलर तबके का है। कुछ उदाहरण तो किसी को भी अचरज में डाल देंगे। वाद-विचारधारा के मोह में अंधेपन की पराकाष्ठा देखिए कि जब न्यूयार्क के ट्विन टॉवर से जिहादियों द्वारा अपहृत विमान टकराये तो मशहूर फ्रेंच समाजवादी जीन बॉड्रीलार्ड आनंद विभोर हो गए। जीन ने 'ला मांदे' में लिखा कि- 'आखिरकार उन्होंने कर डाला। हम यह चाहते थे।' जब इस अत्यंत आपत्तिजनक टिप्पणी पर सफाई देने की बारी आई। तो फ्रेंच इतिहासकार रिचर्ड लान्दसे आगे आये। लान्दसे ने कहा कि बाड्रियाल की टिप्पणी फ्रांस में बढ़ते अमरीका विरोध का प्रतीक है। 2013 में बेजॉन्स के महापौर ने एक फिलिस्तीन उग्रवादी को मानद नागरिकता प्रदान की। आश्चर्य की बात है, कि इस वैचारिक परिवार में इस्लामिक कट्टरपंथियों के सारे गुण मौजूद हैं- जैसे यहूदियों से नफरत, इस्रायल से कट्टर दुश्मनी, अमरीका और यूरोप से विरोध, इस्लामी आतंकियों के विरुद्ध कार्यवाही की खिलाफत, यूरोपीय जीवन मूल्यों को नकारना, मुसलमानों के किसी भी कृत्य से आंखें फेर लेना, पुलिस-सुरक्षा बलों द्वारा किसी मुस्लिम के खिलाफ कानूनी कार्यवाही में रोड़े अटकाना आदि। विडंबना यह है कि शार्ली एब्दो पत्रिका जो थोड़ा वामपंथी झुकाव वाला (मजहब के मामले में मार्क्स के सच्चे अनुयायी) प्रकाशन मानी जाती है, उस पर हुए इस भयंकर हमले से भी उनके इन कॉमरेड साथियों की संवेदना नहीं जागी। जबकि फ्रांस के दक्षिणपंथी पत्रिका के साथ आ खड़े हुए। शार्ली एब्दो के प्रकाशक ने तय किया है, पत्रिका समय पर अपनी पुरानी शैली में ही निकलेगी और एक बार फिर मुखपृष्ठ पर मोहम्मद का कार्टून छापा, लेकिन अन्य मीडिया संस्थानों में भय और हिचक व्याप्त हो गई। हफिंगटन पोस्ट में प्रकाशित लेख-'हाउ टेरेरिज्म वन' के अनुसार सीएनएन के इंटरनल मेमो और बीबीसी के संपादकीय दिशा-निर्देश जारी हुए हैं, कि रपोर्टिंग करते हुए शार्ली एब्दो के कार्टून न प्रकाशित किए जाएं, न ही इन कार्टूनों के विवरण छापे जाएं। मोहम्मद को किसी भी प्रकार से चित्रित न किया जाए।
सेक्युलर प्रगतिशील, वामपंथी बिरादरी की ओर से जिहादी आतंकियों को एक मुफ्त सेवा मिली हुई है। जब भी वे मानवता के विरुद्ध अपराध करते हैं, तो उनकी ओर से सफाई देने, मामले पर धूल डालने, आम व्यक्ति के क्रोध पर राख डालने और विचारों को भटकाने के लिए यह गिरोह सक्रिय हो जाता है। ऐसे लोग पश्चिमी समाचार जगत में भी खासी संख्या में मौजूद हैं। द इंडिपेंडेंट के रॉबर्ट फिस्क ने कहा कि इन हत्याओं के लिए पश्चिमी जगत की ऐतिहासिक नीतियां जिम्मेदार हैं। इसी प्रकार एक और पत्रकार ग्लेन ग्रीनवाल्ड ने इजराइल को कठघरे में ला खड़ा किया तो कुछ ने ऐतिहासिक फ्रांस-अल्जीरिया युद्ध को इस हमले का कारण बताया। यदि सदी पुराने युद्ध इतिहास के कारण ये सारी घटनाएं हो रहीं होतीं, तो आज ब्रिटेन में रह रहे लाखों भारतीयों को भी ब्रिटेन के खिलाफ शस्त्र उठा लेने चाहिएं थे। ऐसी हास्यास्पद बातें बताती हैं कि भारत में जो 'धर्मनिरपेक्षता' के नाम पर होता है, वह यूरोप में 'बहुसंस्कृतिवाद' के नाम पर होता है। शार्ली एब्दो पर हमले के बाद समाचार आया कि स्वीडन में सैकड़ों मुसलमानों ने इस कृत्य पर खुशियां मनाईं। ऐसी बातों पर जिम्मेदारों की चुप्पी बेहद खतरनाक है। कार्टूनों की ही बात करें तो अरब समाचार जगत में प्रतिदिन यहूदियों के विरुद्ध अत्यंत घृणास्पद कार्टून छपते हैं। टीवी चैनल प्राइम टाइम में यहूदी विरोधी कार्यक्रम प्रसारित करते हैं जिनमें उन्हंे मानव का खून पीने वाला तक चित्रित किया जाता है। पाकिस्तान के मुख्य धारा मीडिया में खुलेआम हिन्दुओं को गाली दी जाती है। इन सारी बातों पर ये अंतरराष्ट्रीय ठेकेदार कभी मुंह नहीं खोलते।
इस्लाम की आलोचना के संबंध में भी हाय तौबा मची है। हिन्दू समाज प्राचीन काल से कठोर आलोचनाओं को स्थान देता आया है। 14 सदियों पहले जिस समय अरब में इस्लाम जोर पकड़ रहा था, उस समय भी भारत में चार्वाक पंथी सनातन परंपराओं की तीखी आलोचना कर रहे थे, परंतु उन्हें कोई भय देने वाला नहीं था। समाज में उनको भी मान्यता प्राप्त थी। उनके ग्रंथ जलाए नहीं गए।
आजादी के बाद भी हिन्दू परंपराएं आलोचनाओं की कसौटी पर लगातार कसी जाती रही हैं। कुत्सित सोच वाले लोगों ने राम, सीता और हनुमान पर अश्लील अमर्यादित रचनाएं तक रच डालीं। हिन्दुओं ने विरोध किया परंतु किसी का सर कलम नहीं किया। आज भी पश्चिमी जगत का साहित्य, समाचार जगत, कला जगत, सिनेमा आदि बेदर्दी से चर्च और ईसाई विश्वासों पर प्रहार करते हैं लेकिन कभी कहीं कोई हिंसा नहीं होती। इसके विपरीत इस्लाम पर कोई सवाल उठे तो दुनिया में बवाल खड़ा हो जाता है। आतंकी अपने कृत्यों को जायज ठहराने के लिए कुरान और हदीस के हवाले देते हैं किसी सुधार या पुर्नव्याख्या का प्रयास नहीं होता।
इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर रहने वाली लेखिका तस्लीमा नसरीन ने पेरिस हमले के बाद एक भारतीय टीवी चैनल पर कहा 'मैं सभी मजहबों की आलोचना करती हूं लेकिन सिर्फ मुस्लिम कट्टरपंथी मुझे मारना चाहते हैं। केवल इस्लाम को सभी कसौटियों और सवालों से छूट मिली हुई है।' तस्लीमा ने आगे कहा कि 'सभी को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता होनी चाहिए। आखिरकार, जिन हिन्दुओं को पीके फिल्म पसंद नहीं आई, उन्होंने उस पर प्रतिबंध लगाने को कहा और लोगों से फिल्म न देखने की अपील की, वे किसी की हत्या करने तो नहीं गए? मैं दो दशकों से निर्वासन में हूं क्योंकि मैने इस्लाम पर सवाल उठाया था।'
फिलहाल, इस बर्बर हमले के बाद शार्ली एब्दो ने दस लाख नई प्रतियां छापी हैं। फ्रांस की जनता उनके साथ आ खड़ी हुई है। कहा जा सकता है कि 'दस्तकों का किवाड़ों पर असर होगा जरूर, हर हथेली खून से तर, और
ज्यादा बेकरार।'
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