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आवरण कथा/ सुरक्षा पर संवादराष्ट्रीय सुरक्षा और ज्ञान का बल

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Jan 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jan 2015 12:29:03

ज्ञानेन्द्र बरतरिया
दुर्ग वह होता है जिसे तोड़ा न जा सके, जो पूर्णत: रक्षित हो, सुरक्षित हो। आदिशक्ति दुर्गा का नाम इसी रक्षा करने वाली शक्ति के नाम पर पड़ा। हिन्दू चिंतन में शक्ति को देवी रूप में देखा जाता है, और मोटे तौर पर देवी या शक्ति के तीन मूल रूप माने गए हैं। महाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती।
आप इस धारणा को एक और दृष्टिकोण से देखें, तो आपको रक्षा करने वाली इस शक्ति के तीन रूप दिखेंगे। एक समय था, जब तलवार की शक्ति या बाहुबल सारी शक्ति का स्रोत था। जब यूरोप में औद्योगिक क्रांति हुई, तो उसके परिणामस्वरूप धनबल के बूते यूरोप पूरी दुनिया पर कब्जा करने में सफल रहा। और जब जापान का कम्प्यूटरीकृत उत्पादन शुरू हुआ, सॉफ्टवेयर का ज्ञान सामने आया, तो पूरी दुनिया पर उसका झंडा फहराने लगा।
जब हम राष्ट्रीय सुरक्षा की बात करते हैं, तो वास्तव में इन्हीं तीन शक्तियों- बाहुबल या शस्त्रबल, और धन बल तथा ज्ञान की शक्ति की, या उनके विविध संयोगों की बात करते हैं। प्राथमिक तौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा से आशय विदेशी आक्रमणों से देश की भूमि की, देश के नागरिकों की जानमाल की सुरक्षा करना होता है। इसका आशय राष्ट्र के महत्वपूर्ण आर्थिक और राजनैतिक हितों की रक्षा करना भी होता है। राष्ट्रीय सुरक्षा का एक आर्थिक आयाम भी हमेशा रहा है। यह आर्थिक आयाम राष्ट्र के उपभोग की दृष्टि से भी होता है, अर्थात राष्ट्र को जिन वस्तुओं या सेवाओं का उपभोग करना होता है, उनकी आपूर्ति पूरी तरह सुरक्षित होनी चाहिए। इसी प्रकार इसका उत्पादन आयाम भी होता है, अर्थात राष्ट्र जिन वस्तुओं का उत्पादन करता है, विश्व के बाजारों तक उनकी पहुंच पूरी तरह सुरक्षित होनी चाहिए। यही कारण है कि यूरोप और अमरीका कभी तेल की आपूर्ति खुलवाने के लिए युद्ध करते रहे हैं, तो कभी व्यापार को अपने अंदाज में मुक्त करवाने के लिए। वास्तव में डब्लूटीओ के जीएटीटी (जनरल एग्रीमेंट ऑन ट्रेड एंड टैरिफ) समझौते पर दुनिया के देशों की ओर से हस्ताक्षरों के फौरन बाद डब्लूटीओ के तत्कालीन प्रमुख पीटर सदरलैंड ने खुलेआम कहा था कि अगर यह समझौता न हुआ होता तो तीसरा विश्व युद्घ होता। यूरोप और अमरीका राष्ट्रीय सुरक्षा के आर्थिक आयाम को तेल और व्यापार के अलावा, अपने लिए आवश्यक कच्चे माल की निर्बाध आपूर्ति, अपने लिए उपयुक्त किस्म की विश्व संस्थाओं के निर्माण और अपने घरेलू रोजगारों की संरक्षा करने के उपाय के तौर पर भी देखते हैं। कई युद्ध इसलिए भी हुए हैं, क्योंकि हथियार निर्माता कंपनियों के सामने बेरोजगारी का खतरा था। और अपने लोगों के लिए रोजगार की सुरक्षा भी राष्ट्रीय सुरक्षा का एक आयाम है। कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारे आयाम परस्पर जुड़े हुए हैं और एक भी कमजोरी पूरी स्थिति बदलने में सक्षम होती है।
आज भारत ज्ञान आधारित अर्थव्यवस्था बनने की दिशा में बढ़ रहा है। चूंकि यहां की अर्थव्यवस्था की सुरक्षा हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा का हिस्सा है, इसलिए, स्वाभाविक तौर पर, भारत को राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा की नीति, उसकी प्रक्रिया आदि की चिंता करनी होगी। आमतौर पर राष्ट्रीय सुरक्षा और ज्ञान के संबंधों को जल्दबाजी में राष्ट्रीय सुरक्षा और सूचना का संबंध मान लिया जाता है, और फिर इसका अर्थ गोपनीय सूचनाओं के तंत्र में या साइबर सुरक्षा आदि के रूप में निकाल लिया जाता है। लेकिन वास्तव में मामला उतना सरल नहीं है।
राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा के बारे में और गहराई से विचार करने के पहले एक सरसरी नजर सुरक्षा के उन अन्य आयामों पर डालें, जो एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं। हथियारों, सेनाओं, तकनीकों और इरादों के शक्ति संतुलन की परम्परागत व्याख्या के अतिरिक्त हमें महत्वपूर्ण आर्थिक सुरक्षा चाहिए, जिससे न हमारे यहां बेरोजगारी बढ़ सके, न हमारे कारखाने और खेत बेकार हो सकें। हमें अपना राष्ट्रीय दैनंदिन जीवन जारी रखने के लिए जरूरी ऊर्जा की आपूर्ति की भी सुरक्षा चाहिए। तेजी से उभरते इस्लामी कट्टरपंथ के मुकाबले हमें एक वैचारिक सुरक्षा भी चाहिए। हमें विविध उत्पादनों में आत्मनिर्भरता के एक न्यूनतम स्तर को भी अपनी सुरक्षा आवश्यकताओं से जोड़ना होगा। हमें देश के लिए खाद्य सुरक्षा, स्वास्थ्य सुरक्षा, अपनी मौद्रिक स्वतंत्रता की सुरक्षा, अपनी सांस्कृतिक सुरक्षा और विश्व पटल पर एक सीमा तक राजनैतिक स्वतंत्रता की भी सुरक्षा की चिंता करनी होगी।
आतंकवाद ऐसा रक्तबीज है, जो बहुत तेजी से अपने लक्षण और रंगरूप बदल लेता है। आतंकवाद को थोड़े गौर से देखिए। कुछ लक्षण जो नजर आते हैं, वे इस प्रकार हैं-आतंकवाद का उद्देश्य एक राजनैतिक बदलाव लाना है, जिसके लिए वह हिंसा का प्रयोग करता है। आतंकवाद के खतरे के परिपक्व होने के साथ ही सैनिक और आर्थिक सुदृढ़ता के परम्परागत मानदंड कुछ बेमानी हो जाते हैं। कई बार तो, वही शक्तियां सुरक्षा के लिहाज से एक दायित्व बन जाती हैं, जो कल तक सुरक्षा देने का दायित्व पूरा करती थीं। आतंकवाद का दूसरा और बहुत महत्वपूर्ण लक्षण यह है कि वह आपके ही संसाधनों का, आपकी ही मानवशक्ति का प्रयोग आपके ही विरुद्ध करता है।
9/11 की घटना में प्रयोग किए गए विमान भी अमरीका के ही थे, उनका ईंधन भी अमरीकी था और निशाना भी अमरीका ही था। आप नक्सलवाद की ओर देखें। आपके ही युवक, आपके ही खिलाफ, आपके ही हथियारों से हिंसा पर उतारू हो जाते हैं। उनकी नियंत्रक शक्ति उन्हें सिर्फ एक विचारधारा, प्रेरणा और उत्प्रेरक के तौर पर थोड़ी-बहुत सामग्री और प्रशिक्षण भर देती है। इतना ही नहीं, आतंकवाद आपकी ही प्रणाली को, विशेषकर आपके लोकतंत्र को और आपकी उदारता को भी आपके ही खिलाफ एक हथियार के तौर पर प्रयोग करता है। मानवाधिकारों के नाम पर आतंकवादियों की वकालत, अदालतों का और उनकी (लंबी) प्रक्रिया का आतंकवाद के हित में प्रयोग, राजनैतिक स्वच्छंदता का दुरुपयोग- सब बहुत आम हो चुका है। इसी तरह परम्परागत युद्ध में अगर आपकी औद्योगिक शक्ति आपकी ताकत थी, तो आतंकवाद के युग में वही औद्योगिक संपदा आपके लिए एक सुरक्षा बोझ बन जाती है। औद्योगिकीकरण, विशेषकर वैश्वीकरण के जोड़ ने तेज प्रगति दी है, लेकिन इसके साथ ही जो लोभ पैदा हुआ है, उसने आतंकवाद के लिए पैसों की आवाजाही के रास्ते भी पैदा कर दिए हैं। एचआईवी वायरस भी इतनी कुशलता से वार शायद न करता हो।
आतंकवाद के इस तीव्र, लेकिन क्रमिक विकास में इसकी जितनी शाखाएं फूटीं, वे सब अब अपने आपमें स्वतंत्र तौर पर विकसित हो चुकी हैं। जैसे कि आतंकवाद का निशाना बनने वाले देशों का लोकतांत्रिक चरित्र ही आतंकवाद के विरुद्ध उनके युद्ध में एक बाधा बना है। भारत जैसे मिश्रित जनसंख्या वाले देशों में लोकतांत्रिक बहस आतंकवाद के विरुद्ध देश के संकल्प को, निर्णय को, उसकी प्रक्रिया को कमजोर कर देती है, या उसमें अकारण विलंब कराती है या किसी और ढंग से उसमें अड़चन बन जाती है। प्रणाली आपकी ही होती है, लेकिन उसका लाभ आपके शत्रु को मिलता है। आप देख सकते हैं कि टाडा कानून के मामले में आतंकवाद के लिए लोकतंत्र कितना कारगर हथियार साबित हुआ, और अब ऐसा ही होने-करने की चेष्टा सशस्त्र बल विशेष अधिकार अधिनियम (अफस्पाए) के लिए की जा रही है। लोकतांत्रिक प्रणाली के दुरुपयोग की यह शाखा अब एक परिपूर्ण युद्ध विभाग जैसी नजर आने लगी है। एनजीओ आपके यहां किसी भी परियोजना में अड़ंगा लगाने में समर्थ हैं, तरह-तरह की विचारधाराओं के नाम पर आपकी ही धरती पर, आपके ही खिलाफ आपके ही लोगों से युद्घ करवाया जा सकता है।
राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा की अवधारणा के और निकट पहुंचने के लिए मीडिया के इस व्यवहार को नजदीक से देखना होगा। 9/11 की घटना को याद करें। जब अन्य घटनाओं के साथ, एक विमान एक टॉवर से टकराया, तो स्वतंत्र-बाजारपेक्षी मीडिया के लिए यह एक सीधा निर्देश था कि वह अपने कैमरे और अपनी सीधा प्रसारण करने वाली ओबी वैन लेकर 10-15 मिनट में घटनास्थल पर पहुंच जाए। जब सबकुछ तैयार हो गया, तो दूसरा विमान दूसरे टॉवर से टकराया, और यह दृश्य दुनिया के हर ड्राइंगरूम में पहुंच गया। आज भी आईएसआईएस के आतंकवादी जब कोई बड़ी हरकत करते हैं, तो उसकी वीडियोग्राफी करके उसे दुनिया को जारी कर देते हैं। क्यों?
अब देखिए, आप अपने कानूनी और प्रणालीगत दायरे में रहते हुए न तो किसी एनजीओ पर पूरी तरह नकेल कस सकते हैं, और न किसी वैचारिक प्रचार को रोक सकते हैं। न आप बेरोजगारों को एक सीमा के बाद देशहित की दुहाई दे सकते हैं और न मीडिया को रोक सकते हैं। इसके बावजूद, जो लोग राष्ट्रीय सुरक्षा के प्रति चिंता करते हैं, वे यह जरूर चाहेंगे कि इन घटनाओं से होने वाली क्षति को कम से कम नियंत्रित जरूर किया जाए। आतंकवादी हमलों का पूर्वानुमान लगाना कठिन हो सकता है, लेकिन अगर अनुभव, ज्ञान और समझदारी से काम लिया जाए, तो इस कठिनाई के स्तर को जरूर कम किया जा सकता है। लिहाजा वे देश आतंकवाद से ज्यादा सुरक्षित रह सकते हैं, जहां आतंकवाद विशेषज्ञ बड़ी संख्या में हों। आतंकवाद विशेषज्ञ, या वास्तव में किसी भी क्षेत्र के विशेषज्ञ बड़ी संख्या में तभी उपलब्ध हो सकते हैं, जब ज्ञान व्यापक आधार पर मौजूद हो। जाहिर है, वह आधार और ज्ञान-दोनों सुरक्षित भी होने चाहिए। यह ज्ञान और सुरक्षा के बीच की सीधी कड़ी है।
इससे भी अधिक महत्वपूर्ण तौर पर, लोकतांत्रिक प्रणाली में भौतिक सुरक्षा के निर्णय, युद्ध और शांति के निर्णय, किसी प्रकार के आक्रमण की स्थिति में दिए जाने वाले प्रत्युत्तर के निर्णय, खतरों के आकलन पर निर्णय राजनैतिक स्तर पर किए जाते हैं। राजनैतिक नेतृत्व निर्णय तो करता है, लेकिन उस निर्णय को विलंब से, कमजोरी से, अनमने व्यवहार से बचाने वाला कोई सुरक्षा चक्र लोकतांत्रिक प्रणाली में उपलब्ध नहीं होता है। अस्थिर राजनैतिक स्थितियों में, कई बार कायरता ही राजनैतिक चतुराई बन जाती है, और ऐसी स्थिति में राजनैतिक नेतृत्व हित-अनहित, जय-पराजय में भेद करने में भी सक्षम नहीं रह जाता है।
इसे राजनेताओं की रीढ़विहीनता कहना अर्धसत्य है। वास्तव में यह उस जनता की ज्ञानविहीनता भी है, जो प्रथम तो लोकतांत्रिक व्यवस्था में अस्थिर परिस्थितियों के निर्माण के लिए जिम्मेदार होती है, और दूसरे वह अपनी राजनीतिक व्यवस्था में लगातार होते पतन को देख सकने में अक्षम होती है। उदाहरण के लिए, भारत की राजनीति में जिस तरह संस्थाओं का पतन होता गया, जिस तरह खुशामद राजनैतिक कर्मठता का पर्याय बनती गई-वह सब आम लोगों की ज्ञान सुरक्षा की कमजोरी के बूते होता रहा। उस पर जनता मूक दर्शक क्यों बनी रही? वह संभवत: दर्शक भी नहीं थी, वह खेल से ही अनजान थी। यह राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा की कमजोरी है। अगर आपके देश के लोगों के बीच कोई व्यक्ति या दल गलत तथ्यों, गलत आंकड़ों या गलत वायदों के आधार पर चुनाव जीत सकता हो, या (पूरी तरह शांतिपूर्ण और लोकतांत्रिक) अस्थिरता पैदा करके दूसरे ढंग से सवार्ेच्च पदों तक पहुंच सकता हो, फिर वह वहां से राष्ट्र की प्राथमिक या द्वित्तीयक सुरक्षा के संदर्भ में खतरनाक निर्णय लेता हो- तो इसे किस सेना और किस तंत्र की पराजय माना जाना चाहिए? आधारभूत स्तर पर यह लोगों की जानकारी या समझदारी की विफलता होगी, यह राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा की विफलता होगी, जो पूरे देश की सुरक्षा को खतरे में डाल देगी।
कोई समाज कितना समृद्ध हो सकता है, यह उसके अपने मूल्यों, उसकी सामाजिक पूंजी, उसके लोगों के व्यवहार और आदतों पर बहुत हद तक निर्भर करता है। इसी प्रकार कोई समाज कितना सुरक्षित रह सकता है, यह भी उसके लोगों की ज्ञान संबंधी सामाजिक आदतों पर, उनके सामूहिक ज्ञान पर (भी) निर्भर करता है। सामूहिक ज्ञान की कमजोरी, उसके आधार क्षेत्र में होने वाला सिकुड़ाव किस तरह पूरे देश को किसी मदरसे में बदल सकता है-पाकिस्तान इसका उदाहरण है, जहां शीर्ष नेतृत्व भी उन अर्धसत्यों पर विश्वास करता देखा गया है, जो स्वार्थगत कारणों से गढ़े गए थे। जैसे कारगिल युद्ध में मुशर्रफ का यह मानकर चलना कि शाकाहारी भारतीय जवाब दे ही नहीं सकेंगे। लेकिन शायद हमारी सामाजिक पूंजी के एक हिस्से के तौर पर, हम भारतीयों को भी राजनैतिक/सैन्य स्थितियों के भावी संभव पैटर्न्स की तांक-झांक करने वालों में सामान्य तौर पर नहीं गिना जाता है। मुशर्रफ कारगिल युद्घ में विफल हुए, तो हम उसका पूर्वानुमान लगाने से लेकर उसका त्वरित उत्तर देने तक में विफल हुए थे। वास्तव में, हम कल्याणकारी योजनाओं और लोकतंत्र के भावी समीकरणों जैसे अपने पसंदीदा विषयों की तरह सुरक्षा विषयों के भावी समीकरणों के बारे में शायद ही कभी चिंता करते हों। कई बातें भी हमें लंबी अवधि की स्थितियों पर गंभीर ध्यान देने से हतोत्साहित करती हैं। इनमें सरकार का कार्यकाल पांच वर्ष का निर्धारित होना शामिल है, जिसके कारण छह साल की अवधि वाली परियोजनाएं असमय काल-कवलित हो जाती हैं (उदाहरण के लिए राष्ट्रीय राजमार्ग परियोजना)। इसके अलावा, निर्धारित नीतियों की निरंतरता सुनिश्चित करने की कोई प्रणाली न होना एक बड़ी बाधा है। सारा दोष योजनाकारों का नहीं है, और अगर है, तो बहुत बड़े स्तर पर है, क्योंकि पूर्वानुमान लगाने में जोखिम निहित होता है, और उसकी प्रक्रिया के लिए संस्थागत समर्थन की कमी स्पष्ट तौर पर है। इन कारणों से, अपनी सामाजिक आदतों के एक हिस्से के तौर पर, हम या तो वर्तमान के बारे में बात करके चुप हो जाते हैं, या सिर्फ निकट भविष्य की बात कर लेते हैं।
लेकिन चाहे संस्थागत समर्थन का अभाव हो, वैचारिक और अन्य मुद्दे हों, पांच साल तक ही विचार कर सकने की बाध्यता हो, निरंतरता की कमी हो-यह सब आपकी अपनी करनी है। आपका बचाव करने के लिए आपके शत्रु आगे नहीं आएंगे, लेकिन आपकी कमजोरियों का लाभ जरूर उठाएंगे। पानीपत की तीसरी लड़ाई में हारने के पीछे कुछ वैचारिक और सामाजिक कारण भी थे। और इस कारण थे, क्योंकि सामाजिक आदतों के प्रतिरक्षा पर पड़ सकने वाले असर के प्रति जानकारी का अभाव था, ज्ञान सुरक्षा खतरे में थी।
कई वषोंर् से, विशेष तौर पर स्वतंत्रता के बाद से इस 'फास्ट फूड' चिंतन पद्धति ने लोगों में और सरकार में उन सूक्ष्म-पोषक जानकारियों का गंभीर अभाव पैदा कर दिया है, जो कई विफलताओं में प्रकट हो चुका है। देश का वर्तमान जनसांख्यिकीय ढांचा इसका एक और उदाहरण है। यह सही है कि युवाओं का वर्चस्व वाला देश होने के नाते हम कई मायनों में दुनिया में सबसे बेहतर स्थिति में हैं। लेकिन इसी का दूसरा पहलू यह है कि इस जनसंख्या का बहुत बड़ा वर्ग उन लोगों का है, जिन्होंने 1980 के बाद जन्म लिया है। अब चूंकि हम भारतीय आजादी के बाद का भारतीय इतिहास स्कूलों में नहीं पढ़ाते हैं, लिहाजा स्कूली शिक्षा प्राप्त लोगों के बीच भी, आपातकाल के बारे में सिर्फ सतही समझ मौजूद है (और इस प्रकार अपने लोकतंत्र की रक्षा करने के लिहाज से यह पीढ़ी ज्ञान स्तर पर अपनी पिछली पीढ़ी से कमजोर है)। जितने लोग आपातकाल के बारे में जानते होंगे, उनसे भी कम लोगों को 1962, 1965 या 1971,1965 या 1962 के युद्धों के बारे में पता होगा। हमने वह भी नहीं पढ़ाया। भारत के विभाजन की कहानी तो और भी बड़ी संख्या में लोगों के लिए किसी परी कथा की तरह है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में इतिहास 1947 पर जाकर रुक जाता है। इसे न तो जानकारी का अभाव माना जा सकता है और न ही यह मानव संसाधन विकास मंत्रालय को सुझाने के लिए कोई नुस्खा है। यह ज्ञान की दृष्टि से राष्ट्रीय सुरक्षा के उत्तरोत्तर कमजोर होने का मामला है। यह राष्ट्रीय ज्ञान सुरक्षा का मामला है। यह लक्ष्मी और काली के उपासकों को सरस्वती की याद दिलाने वाला एक उदाहरण है। सरस्वती के बिना दुर्ग रक्षसि दुर्गा नहीं होतीं।

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