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आशुतोष भटनागर
ब्बाराम की बूढ़ी आंखों में एक रोशनी सी कौधती है और फिर बुझ जाती है। उसे पता चला है कि उनकी स्थिति का आकलन करने के लिए वर्ष 2013 के अन्त में सांसदों की जो समिति आई थी उसकी रपट सार्वजनिक हो गई है। गृह मंत्रालय की वेबसाइट पर यह रपट उपलब्ध है लेकिन लब्बाराम का तो इंटरनेट से कोई वास्ता ही नहीं। उसे खबर तो तब मिलती है जब कश्मीर घाटी में इस पर बवाल खड़ा हो जाता है।
रपट का विरोध हो रहा है क्योंकि इसमें विभाजन के बाद 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए शरणार्थियों को जम्मू-कश्मीर में स्थाई निवासी प्रमाणपत्र दिए जाने के साथ ही सभी नागरिक अधिकार दिए जाने की सिफारिश की गई है। नेशनल कांफ्रेंस और पीडीपी सहित अपने आप को मुख्यधारा का बताने वाले कश्मीर घाटी के सभी राजनीतिक दलों ने इस मुद्दे पर अलगाववादियों के साथ जुगलबंदी शुरू कर दी है। वे लोग इसे कश्मीर में जनसांख्यिक परिवर्तन की साजिश बता रहे हैं।
1947 में हुए देश के बंटवारे की रेखा खींची अंग्रेजों ने, बंटवारा स्वीकार किया नेताओं ने, लेकिन बंटवारे की कीमत चुकानी पड़ी उन्हें, जिनका कोई अपराध नहीं था। घर-बार छूटा, अपनों से बिछुड़े, सब कुछ गंवाकर सरहद पार कर चले आए ठौर की तलाश में। इस सपने के साथ कि इसे अपना देश कह सकेंगे। पूरे देश में यह हुआ भी, लेकिन जम्मू-कश्मीर में यह न हो सका।
वे पाकिस्तानी कभी नहीं थे। जिस दिन उन्हें पता लगा कि उनके अपने घर, अपने गांव का ही नाम पाकिस्तान हो गया है, तो वे चल पड़े भारत की ओर, क्योंकि वही उनका देश था। पुरखों की धरती छोड़ी ताकि इतिहास पराया न हो जाए, संस्कृति का प्रवाह खण्डित न हो जाए। लेकिन जिस पाकिस्तान को वे पीछे छोड़ आए थे वह उनके नाम के साथ ऐसा चिपका कि आज तक छूटा ही नहीं। बात उन पचास हजार से अधिक लोगों की है जो विभाजन की त्रासदी से बच कर पाकिस्तान में चले गए स्यालकोट जिले और उसके आस-पास से विस्थापित होकर भारत के जम्मू-कश्मीर राज्य में आ बसे। उनकी जनसंख्या आज ढ़ाई लाख से अधिक है।
मामले की शुरुआत 2013 में हुई जब संसद की 'गृह कार्य संबंधी स्थायी समिति' ने जम्मू -कश्मीर के विस्थापितों के पुनर्वास संबंधी रपट (क्ऱ 137) के कार्यान्वयन के अध्ययन के लिए एक उप समिति बना दी। यह उप समिति 5 से 7 नवम्बर, 2013 को राज्य के दौरे पर गई, जहां उससे पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थी, पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के विस्थापित तथा 1965 और 1971 के छम्ब के विस्थापितों के प्रतिनिधिमण्डल भी मिले। उप समिति ने अनुभव किया कि इन समूहों की समस्याएं और पृष्ठभूमि विस्थापित कश्मीरी हिन्दुओं से अलग हैं। अत: मुद्दों की जटिलता और लंबे समय से उनके लंबित होने को ध्यान में रखते हुए समिति ने पश्चिमी पाकिस्तान के शरणार्थियों तथा पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर और छम्ब के विस्थापितों के मामलों को एक पृथक रपट के रूप में प्रस्तुत किया। संयोग से देश में आम चुनाव होने के कारण पिछली समिति इस रपट पर विचार नहीं कर सकी।
गृह कार्य संबंधी स्थायी समिति का 1 सितम्बर, 2014 को पुनर्गठन हुआ। 16 सितम्बर को हुई पहली बैठक में समिति ने संबंधित रपट को विचारार्थ स्वीकार किया। 21 अक्तूबर, 2014 को सम्पन्न बैठक में समिति ने इस विषय पर गृह मंत्रालय का पक्ष सुना। इस बैठक में समिति के सदस्यों द्वारा उठाए गए प्रश्नों का उत्तर गृह सचिव तथा जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रतिनिधि द्वारा 11 नवंबर को हुई बैठक में दिया गया।
प्रक्रिया पूरी होने के उपरान्त गृह मंत्रालय द्वारा उपलब्ध कराए गए पृष्ठभूमि नोट और पूरक नोट, अधिकारियों और पक्षकारों के मौखिक बयान, विभिन्न संगठनों द्वारा सौंपे गए ज्ञापनों पर गृह मंत्रालय की टिप्पणियों तथा बैठक के दौरान समिति के सदस्यों के प्रश्नों के उत्तर के रूप में प्राप्त जानकारी को आधार बना कर यह रपट तैयार की गई। 18 दिसम्बर, 2014 की बैठक में समिति ने इस रपट को स्वीकृति प्रदान कर दी।
समिति ने अध्ययन में पाया कि 1947 में पश्चिमी पाकिस्तान से आए 5,764 परिवारों के 47,215 शरणार्थियों, जिनकी संख्या गत 67 वर्ष में बढ़ कर लगभग ढ़ाई लाख हो गई है, को जम्मू-कश्मीर राज्य में स्थायी निवासी का प्रमाणपत्र हासिल नहीं है। इसके कारण वे न तो राज्य सरकार की सेवाओं में रोजगार पा सकते हैं और न ही उनके बच्चे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश ले सकते हैं। छात्रवृत्ति और आरक्षण जैसी योजनाओं का लाभ लेने और संपत्ति खरीदने के लिए भी वे अधिकृत नहीं हैं। वे लोकसभा में मतदान के अधिकारी तो हैं किन्तु विधानसभा और पंचायतों में मतदान नहीं कर सकते। कश्मीर के विस्थापितों की कहानी भी मिलती-जुलती ही है। समिति को बताया गया कि अक्तूबर 1947 में पाकिस्तान के आक्रमण के समय अपने प्राण बचा कर वर्तमान जम्मू-कश्मीर में आने वाले 31,619 परिवारों में से 26,319 परिवार जम्मू-कश्मीर राज्य में ही बस गए और 5,300 परिवार देश के अन्य राज्यों में चले गए। चूंकि भारत सरकार पाक अधिकृत जम्मू- कश्मीर के भू-भाग को अपना ही मानती थी और जल्दी ही उसे खाली करा कर पुन: भारत में मिला लिए जाने के प्रति आशान्वित थी, इसलिए उसने इन विस्थापितों के पुनर्वास के लिए कोई नीति ही नहीं बनाई। पाकिस्तान अधिकृत क्षेत्र में उनकी छूटी हुई संपत्ति के बदले यहां पर उनसे दावे भी आमंत्रित नहीं किए गए। द डिस्प्लेस्ड पर्सन्स (कम्पेन्सेशन एण्ड रीहैबिलीटेशन) एक्ट 1954 तथा एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ इवेक्यू प्रापर्टी एक्ट 1950 जम्मू-कश्मीर में लागू नहीं है। इसलिए भी समस्या का निस्तारण कठिन बना हुआ है।
1965 में पाकिस्तान के साथ हुए युद्ध के समय छम्ब क्षेत्र, जहां भीषण संघर्ष हुआ था, से विस्थापित होकर बड़ी संख्या में लोग जम्मू क्षेत्र के गांवों में आ गए। युद्ध समाप्त होने के बाद भी वे भय के कारण वापस नहीं गए। उनका भय सही साबित हुआ। छह वर्ष बाद ही 1971 में छम्ब एक बार पुन: रणक्षेत्र बना। 1972 में हुए शिमला समझौते के अनुसार भारत ने छम्ब क्षेत्र का 39,000 एकड़ भू-भाग पाकिस्तान को सौंप दिया। इसके कारण वहां की शेष जनसंख्या को भी विस्थापित होकर जम्मू में आना पड़ा।
समिति को दी गई जानकारी के अनुसार 1965 और 1971 में आने वाले छम्ब के प्राय: सभी विस्थापितों का पुनर्वास कर दिया गया है। समस्या यह है कि वे लोग जितनी भूमि छम्ब में छोड़ कर आए हैं उस अनुपात में भूमि उन्हें नहीं दी गई है। साथ ही अधिकांश मामलों में उन्हें भूमि पर कब्जा तो दिया गया है किन्तु मालिकाना हक नहीं। जानकारी हो कि जम्मू-कश्मीर के कानून के अनुसार विभाजन के समय पाकिस्तान जा चुके नागरिकों के अधिकार राज्य में अभी भी सुरक्षित हैं। वे आज भी आकर अपनी भूमि वापस ले सकते हैं। इसलिए उनके द्वारा छोड़ी गई जिस भूमि को राज्य सरकार ने छम्ब विस्थापितों को दिया है उन पर हमेशा भय की तलवार लटकती रहती है।
राज्य सरकार द्वारा समिति को दी गई जानकारी के अनुसार उन विस्थापितों को, जिन्हें भूमि की उपलब्धता न होने के कारण कम भूमि आवंटित की गई है, को नकद क्षतिपूर्ति का प्रस्ताव राज्य सरकार के पास विचाराधीन है। राज्य सरकार के अनुसार इस संबंध में एक प्रस्ताव भारत सरकार को भेजा जाएगा। केन्द्रीय गृह मंत्रालय ने इसकी पुष्टि करते हुए बताया कि वह राज्य सरकार द्वारा प्रस्ताव प्राप्त होने की प्रतीक्षा कर रहा है।
यह आशाजनक है कि गत सरकार में भाजपा नेता वैंकैया नायडू की अध्यक्षता वाली गृहकार्य संबंधी स्थायी समिति ने इस पर निर्णय लेते हुए उप समिति का गठन किया, वहीं कांग्रेस के राज्यसभा सदस्य पी़ भट्टाचार्य की अध्यक्षता वाली वर्तमान समिति ने उपसमिति की रपट को स्वीकार कर समाधान की दिशा में कदम बढ़ाया है।
संसदीय समिति की मुख्य अनुशंसाएं
केन्द्र सरकार शरणार्थियों को स्थायी निवासी का दर्जा देने के लिए जम्मू-कश्मीर सरकार को सहमत करे।
इस पर निर्णय होने तक शरणार्थियों के बच्चों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश पर लगी रोक को अस्थायी रूप से हटा देना चाहिए।
शरणार्थियों को अनुसूचित जाति और अन्य पिछड़ा वर्ग के प्रमाणपत्र जारी करने की प्रक्रिया को तीव्र किया जाए।
शरणार्थियों के बच्चों को देशभर के इंजीनियरिंग, मेडिकल तथा उच्च शिक्षा के अन्य संस्थानों में आरक्षण का लाभ देने हेतु प्रक्रिया खोजी जाए।
आवश्यक होने पर उनकी शिक्षा के स्तर को ध्यान में रखते हुए इन संस्थानों में प्रवेश की न्यूनतम अर्हता में ढील दी जाए।
मानव संसाधन विकास मंत्रालय के परामर्श से गृह मंत्रालय शरणार्थियों के बच्चों के लिए केन्द्रीय विद्यालय और नवोदय विद्यालय प्रारंभ करने की प्रक्रिया खोजे। इसे शीघ्रता से किया जाए ताकि आगामी शैक्षिक सत्र में पढ़ाई शुरू की जा सके।
केन्द्र सरकार शरणार्थियों को आर्थिक पैकेज शीघ्र जारी करने के लिए राज्य सरकार को सहमत करे। समिति का यह निश्चित मत है कि वे त्वरित सहायता के हकदार हैं और बिना देर किए उन्हें रु़ 30 लाख प्रति परिवार के अनुसार एक वर्ष के अंदर सहायता राशि निर्गत करनी चाहिए।
राज्य के मुख्यमंत्री द्वारा 2008 में दिए आश्वासन के अनुरूप पश्चिमी पाक शरणार्थी युवाओं में से चयन कर राज्य पुलिस, सेना तथा अर्ध सैनिक बलों की बटालियन गठित की जाए।
सशक्त लोकतंत्र के लिए आवश्यक है कि नागरिकों को अपना प्रतिनिधि चुनने तथा चुने जाने का अधिकार मिलना ही चाहिए।
समिति यह अनुशंसा करती है कि राज्य सरकार से बात कर राज्य की विधानसभा और विधान परिषद् में शरणार्थियों के लिए आरक्षण की व्यवस्था की जाए। इसके लिए आवश्यक होने पर राज्य के संविधान में संशोधन किया जा सकता है।
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