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वसंत ने खिलाईं नई कोपलें
सुभाष. सी. कश्यप
मैं इस वसंत को लोकतंत्र के वसंत के रूप में देखना चाहूंगा। पुराने पत्ते झड़े हैं और नई कोपलें निकली हैं। नई कलियां देखने को मिल रही हैं। जनता में आकांक्षाओं, अपेक्षाओं का, आशाओं का उबाल आया है। इसके दो पक्ष हैं। लेकिन अभी जिस तरह का जन-मन मैं देख रहा हूं उसमें आशा और उत्साह है। उसे पूरी उम्मीद है कि एक नया सवेरा आने वाला है। आजादी मिली, सत्ता का हस्तांतरण हुआ, लेकिन जनता तक अभी भी नहीं पहुंचा। अब पहली बार लोगों को लग रहा है सत्ता उनके हाथों तक पहुंचेगी और जनहित का सुशासन उन्हें देखने को मिलेगा। यह वसंत अभी का ताजा है और आधी शताब्दी के इंतजार के बाद आया है।
लोगों को लग रहा है कि माहौल में बदलाव दिखने की पहल हो रही है, नीतियां बन रही हैं। सफाई की बात देश में किसी ने अब तक नहीं की थी इस पैमाने पर और इस भावना से। प्रधानमंत्री ने जो पहल की है, जो खाका बनाया है, उसे जमीन पर भी दिखना चाहिए। आर्थिक क्षेत्र में भी पहल हुई है। लेकिन आर्थिक सुधारों को जनहित से जोड़ना जरूरी है। जमीनी स्तर पर यह जितना अधिक होगा, जनता का आशीर्वाद शासन को मिलेगा, लेकिन ऐसा होना जनता को दिखना और लगना भी चाहिए।
जैसे काले धन का मामला लें। जांच के लिए समिति गठित हो गई, यह सरकार की अच्छी पहल है। बाकी जटिलताएं अपनी जगह पर कुछ काम तो तुरंत किए जा सकते हैं। जितने भी भारतीय नागरिक हैं और जिनका विदेशों में खाता है, वे शपथपत्र दें कि उनका वहां कितना पैसा है- इतनी बात को हम अपने नागरिकों को कह ही सकते हैं जिसके लिए कोई विदेशी समझौता आड़े नहीं आएगा। यहां से विदेश जाने वाले लोग, जाने से पहले यह घोषणापत्र दें कि उनका विदेश में कोई खाता नहीं है और अगर है तो उसकी जानकारी दें। हम अंतरराष्ट्रीय समझौतों की बाध्यता छोड़ भी दें तो ऐसी तमाम बातों के लिए तो हमें किसी से पूछने की जरूरत नहीं है।
प्रधानमंत्री के स्तर पर तो प्रेरणा दी जा सकती है, लेकिन चीजों को लागू करना जिस प्रशासन का जिम्मा होता है, वह शायद अभी पूरे मन से काम को अंजाम देने का मन नहीं बना पाया है।
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी अच्छी बात कही थी कि योजना आयोग सरकारी ढर्रे वाला संस्थान बनकर रह गया है। अभी तक राज्यों के मुख्यमंत्री आते थे, दो-चार मिनट में बारी-बारी अपनी बात रखते थे। फिर राज्यों की योजनाओं पर दिल्ली में प्रधानमंत्री और मंत्रिमंडल उस पर फैसला करते थे। उन्होने कहा कि अब नीति आयोग में प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री बैठकर राज्यों की विकास योजनाओं पर चर्चा करेंगे, फैसला करेंगे। नीति आयोग बन गया, लेकिन अभी जैसा इसके नाम में देखने को मिल रहा है उसमें न तो 'नीति' है, न 'आयोग'। यह'नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर ट्रांसफार्मिंग इंडिया' या (राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) है जिसके अंग्रेजी अक्षरों का संक्षेप एन.आई.टी.आई यानी नीति होता है। और ये संस्थान है, आयोग कहां है। दोनों की कार्यप्रणाली में जमीन-आसमान का अंतर है। इसे हम नौकरशाही के योगदान के रूप में भी देख सकते हैं। नीति का मतलब 'पॉलिसी' और आयोग का मतलब 'कमीशन' हुआ। तो पॉलिसी कमीशन होना चाहिए था।
शासन की इच्छा चाहे कितनी भी अच्छी क्यों न हो, यह नौकरशाही अपनी अहमियत बरकरार रखने के लिए हर काम में बारीक पेंच फंसा देती है। अधिकारी वर्ग एक ऐसा वर्ग है, जिसने काफी हद तक अभी भी परतंत्रता के दिनों का अपना वर्चस्व और ओहदेदारी का हठ नहीं छोड़ा है। किसी भी नई या जनसापेक्ष पहल में बहुधा उसका रवैया सकारात्मक नहीं रहा है। इस मामले में जरा गौर करना ही पड़ेगा। प्रधानमंत्री ने चुनाव के पहले ही साफ कर दिया था कि सरकार चलाने के लिए देश का संविधान हमारी गीता होगा। उसके अक्षरों और उनमें निहित भावनाओं का हम पूरी श्रद्धा से, परिश्रम से पालन करेंगे और उसे सरकार की क्रियाओं और आचरण में लाएंगे।
अभी तक जो व्यवस्था हम चलाते आए हैं उसमें संविधान-विरोधी कार्य होते रहे हैं। जैसे केंद्र सरकार, यह संवैधानिक नहीं है। देश के संविधान में तो केंद्र शब्द है ही नहीं। वह इस शब्द को और उससे संबद्ध अवधारणा को ही पूरी तरह खारिज करता है। वहां भारत के रूप में संघ की बात है और हर जगह संघ ही लिखा गया है। केंद्र अंग्रेजों के समय की देन है।
1919 में जो कानून लागू हुआ उसमें यह था। तो हम निरंतर अपने असंविधान प्रतिकूल आचरण करते आए हैं और वह इरादतन किया गया है, जिसे ठीक करने का यह सबसे उचित समय है। संविधान कहता है कि संबंध जो होंगे वे संघ और राज्यों के बीच होंगे। यहां केंद्र आ गया। संघ यानी पूर्ण वृत्त और केंद्र यानी उसका केंद्रीय बिंदु। सरकारिया आयोग भी केंद्र-राज्य संबंधों की बात करता है। यह घोर असंवैधानिक है। दिल्ली में जो सरकार पूरे देश का कामकाज चलाने में मदद करती है, वह पूरे देश की चुनी हुई सरकार होती है। वह संघ सरकार है, केंद्र सरकार नहीं। जैसे ही आप संघ सरकार बोलते हैं, भाव कैसे बदल जाता है। लेकिन हमने पुराना केंद्र सरकार यानी 'सेंटर गवर्नमेंट' ही जारी रखा। इसे तुरंत बदलना चाहिए क्योंकि यह संविधान सम्मत नहीं है।
अब दूसरा पक्ष उस आशंका का है कि अगर जनता की आशाएं पूरी न हुईं और जनता के सपने टूटे तो देश, लोकतंत्र और जनता के लिए इससे बड़ा दुर्भाग्य और कोई नहीं हो सकता। जो पीढ़ी इस समय सत्ता में आई है उसके सामने असफलता एक विकल्प है ही नहीं। जनता का भी इस बार सब कुछ दांव पर लगा है। यदि उसके संजोये सपनों की असमय मौत हुई तो लोकतांत्रिक व्यवस्था से ही उनका विश्वास उठ जाएगा।
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