लोकतंत्र का वसंत -कृष्ण कहते हैं- ऋतुओं में मैं वसंत हूं
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लोकतंत्र का वसंत -कृष्ण कहते हैं- ऋतुओं में मैं वसंत हूं

by
Jan 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jan 2015 14:22:58

 

अजय विद्युत
संत है… वर्षों बाद यह लोकतंत्र का वसंत भी है और यह जन-गण के मन का बन सके, सनातन और नित नूतन… तो हमें कृष्ण की शरण में जाना ही पड़ता है जिनका पूरा जीवन और दर्शन इसी को समर्पित रहा है- राष्ट्र सर्वोपरि, धर्म सर्वोपरि। लोकतंत्र जिनकी अवधारणा का केंद्रीय बिंदु है।
तो गीता में अर्जुन पूछ रहे हैं कृष्ण से कि किन भावों मैं आपको देखूं? कहां आपको खोजूं? कहां आपके दर्शन होंगे? तब कृष्ण कहते हैं कि अगर तुझे मुझे स्त्रियों में खोजना हो तो तू कीर्ति में, श्री में, वाक् में, स्मृति में, मेधा में, धृति में और क्षमा में मुझे देख लेना। तथा मैं गायन करने योग्य श्रुतियों में बृहत्साम, छंदों में गायत्री छंद तथा महीनों में मार्गशीर्ष का महीना, ऋतुओं में मैं वसंत हूं।
ओशो ने बड़ी प्यारी व्याख्या की है कि अंतिम, वसंत ऋतु पर दो शब्द हम ख्याल में ले लें। कृष्ण बता रहे हैं कि ऋतुओं में खिला हुआ, फूलों से लदा हुआ, उत्सव का क्षण वसंत है। परमात्मा को रूखे-सूखे, मृत, मुर्दाघरों में मत खोजना। जहां जीवन उत्सव मनाता हो, जहां जीवन खिलता हो वसंत जैसा, जहां सब बीज अंकुरित होकर फूल बन जाते हों, उत्सव में, वसंत में मैं हूं। अब हम इसे आज के भारत के परिप्रेक्ष्य में देखें तो वसंत पतझड़ के बाद आता है। समाज, राजनीति से लेकर नैतिक स्तर तक पर एक लंबे पतझड़ के बाद अब देश ने आत्मविश्वास से सिर उठाना सीखा है। नौजवानों का उत्साह, चेतना और शक्ति अगर सही दिशा में लगे तो दुनिया को हमारा लोहा मानते देर नहीं लगती और यह हमारा अभी का अनुभव भी रहा है। मानवतावादी पवन सिन्हा कहते हैं कि कौशल, चातुर्य, बुद्धि, शौर्य और प्रजातांत्रिक मूल्यों की स्थापना से धर्म व राष्ट्र को दुनिया में अग्रणी बनाने के लिए आज श्रीकृष्ण जैसे नेतृत्व की ही जरूरत है। शायद इसीलिए हमारे लिए कृष्ण से ज्यादा प्रासंगिक और कोई नहीं है। राष्ट्र में धर्म की स्थापना हो, यह कृष्ण चाहते हैं और इसके लिए निरंतर प्रयासरत रहते हैं। और धर्म क्या 'धर्मेव धारयति' वाला धर्म। यानी कर्तव्यनिष्ठा, ईश्वर कार्य, उनकी स्थापना राष्ट्र में होनी चाहिए। राष्ट्र शक्तिशाली हो, वहां शांति हो, प्रजा खुशहाल हो और राष्ट्र आततायियों के हाथ में कभी नहीं होना चाहिए। आज के देश के नेतृत्व को यह स्पष्ट मार्गदर्शन देते हुए दिखाई देते हैं श्रीकृष्ण। ईश्वर सिर्फ उन्हीं को उपलब्ध होता है, जो जीवन के उत्सव में, जीवन के रस में, जीवन के छंद में उसके संगीत में, उसे देखने की क्षमता जुटा पाते हैं। उदास, रोते हुए, भागे हुए लोग, मुर्दा हो गए लोग, उसे नहीं देख पाते। ओशो बड़ी बारीकी से व्याख्या करते हैं कि पतझड़ में ईश्वर को देखना बहुत मुश्किल है। देश के समाज में, जीवन में लंबे ठहराव, भटकाव का जो लंबा पतझड़ रहा उसमें परमात्मा को देखना वाकई बहुत मुश्किल था। मौजूद तो वह वहां भी है… लेकिन जो वसंत में उसे नहीं देख पाते, वे पतझड़ में उसे कैसे देख पाएंगे? वसंत में जो देख पाते हैं, वे तो उसे पतझड़ में भी देख लेंगे। फिर तो पतझड़ भी पतझड़ नहीं मालूम पड़ेगा, वसंत का ही विश्राम होगा। फिर तो पतझड़ वसंत के विपरीत भी नहीं मालूम पड़ेगा, वसंत का आगमन या वसंत का जाना होगा। लेकिन देखना हो पहले, तो वसंत में ही देखना उचित है। वसंत में जो फूल खिलते हैं, जो आशाओं और अपेक्षाओं का नया अहसास जगा है, अगर वे सब फल में रूपान्तरित हो सकें तो देश में जो खुशहाली और आत्मविश्वास की रसधारा बहेगी वही ईश्वर का प्राकट्य स्वरूप है। शायद पृथ्वी पर हिन्दुओं का अकेला ही ऐसा एक धर्म है, जिसने उत्सव में प्रभु को देखने की चेष्टा की है। एक उत्सवपूर्ण, एक फेस्टिव, नाचता हुआ, छंद में, और गीत में, और संगीत में, और फूल में। तो कृष्ण वसंत ऋतु में बसते हैं। जहां सुरक्षा, समृद्धि, न्यायप्रिय व्यवस्था, सबका साथ सबका विकास और महिलाओं का सम्मान जैसी बातें देश के शीर्ष नेतृत्व के एजेंडे में हों और जनता उसमें भागीदारी का न सिर्फ संकल्प ले बल्कि मलकियत का अधिकार भी अपने पास रखे, ऐसे वातावण के बनने की सुगंध का उठना ही वह वसंत है जिसमें हम कृष्ण को ढूंढ सकते हैं, जिसमें कृष्ण ने अपने होने की घोषणा की है। पवन जी इसे अपने ढंग से देखते है। जिस संकट के समय से भारतीय गुजर रहे हैं, यह संकट का समय है, संघर्ष बहुत है, और हमारी लड़ाई केवल धन के लिए नहीं है, केवल आराम के लिए नहीं है, हमारी लड़ाई इस वक्त अस्तित्व के लिए भी है। भारतीयों की लड़ाई अपने अस्तित्व के लिए है, भारत के अस्तित्व के लिए है। हमारे अगल-बगल हमारे लिए खतरा बने हुए देश हैं, पूरे विश्व में हमारे लिए खतरा बने हुए कई देश हैं। इस समय हमें योगीराज श्रीकृष्ण की जरूरत है। दिनचर्या, मन, मस्तिष्क, इन्द्रियां और शरीर एकाग्र न हो तो हम अपना कर्म कुशलता से कर ही नहीं सकते। कर्म कुशलता से नहीं करेंगे, फिर भी फल की इच्छा रखेंगे, तो फल मिलेगा नहीं। ऐसे में क्रोध का प्रतिफलन होता है। यह श्रीकृष्ण कहते हैं। लिहाजा हमें यहां पर श्रीकृष्ण योग: कर्मसु कौशलम् का सूत्र देकर यही सिखा रहे हैं कि आप सोचिए, फिर अपने मन, मस्तिष्क , इन्द्रियों व संपूर्ण शरीर को एकाग्र कीजिए। और इस तरह एकाग्र करके आप जो कार्य करते हैं उसमें कुशलता प्राप्त करते हैं, अन्यथा आप कुशलता और प्रवीणता प्राप्त नहीं कर सकते। जो कुशल नहीं है, वह क्रोधी होगा। जो कुशल नहीं है वह समाज के लिए विध्वंसक होगा। समाज, राजनीति और नीति के साथ विश्व में सफल व सबल होने का ऐसा सिद्धांत संभवत: और कहीं मिलना मुश्किल है। वसंत में हम कृष्ण के उस योगेश्वर स्वरूप को अपने भीतर उतारें तो यही वह श्रीकृष्ण है जो हमको जीत दिलवाएगा और जो हमको जीवन में कभी नहीं हारने देगा। क्या यही वह वसंत है जिसमें लंबे पतझड़ या नैराश्य के क्लांत भाव के बाद आमजन लोकतंत्र में पगे समृद्ध और शक्तिशाली राष्ट्र के लिए नवसंरचना के बौर देख रहा है? पाञ्चजन्य ने इसी पर पाठकों के लिए एक वासंती गुलदस्ता तैयार किया है जिसमें आपको मिलेंगे भारतीय अध्यात्म को अधुनातन कलेवर में दुनिया और खासकर पश्चिमी देशों के बीच लाने वाले प्रसिद्ध लेखक अमीष त्रिपाठी, लोकसभा के पूर्व महासचिव और संसदीय व संवैधानिक मामलों के विशेषज्ञ डॉ.सुभाष कश्यप, भारतीयता में पगे गीतों से युवालोक के चहेते बने कैलाश खेर, लोकगायिका और उत्तर प्रदेश के लिए चुनाव आयोग की ब्रांड एम्बेसडर मालिनी अवस्थी तथा नाटकों व व्यंग्य की दुनिया के प्रतिनिधि हस्ताक्षर उर्मिल कुमार थपलियाल।

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