आवरण कथा / सुरक्षा पर संवादचुनौती से मुकाबले के लिए मजबूती चाहिए
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आवरण कथा / सुरक्षा पर संवादचुनौती से मुकाबले के लिए मजबूती चाहिए

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Jan 22, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 22 Jan 2015 11:13:59

मेजर जनरल ध्रुव सी. कटोच
रतीय रक्षा और सुरक्षा के मुद्दों के आधुनिकीकरण में सबसे बड़ी बाधा स्वतंत्रता के बाद से इनको समझने की रही। विशेषकर भारत के राजनीतिक नेतृत्व और उससे ज्यादा उस पर पकड़ रखने वाली नौकरशाही व्यवस्था ने। सैन्य शक्ति में विशेष रूप से सामरिक संस्कृति का अभाव दिखाई देता है। ज्यादातर इसलिए क्योंकि इन सेवाओं से संबंधित विषयों को सुधारने के ठोस प्रयत्न नहीं हो पाए। ऐसी संस्कृति के विकास के लिए जरूरी है कि रक्षा अकादमियों में ऊर्जावान अधिकारी, ठोस प्रशिक्षण के साथ उनकी प्रगति पर स्वयं उचित निगरानी यहआवश्यक है। ये सभी चीजें एक सक्षम अधिकारी के पूरे करियर में काम आती हैं। दुर्भाग्य से ऐसे ठोस प्रयत्न नहीं हो पाते। किसी सेवा का पूर्व प्रमुख जब यह बात रखे कि व्यूह रचना के मुद्दे पर कनिष्ठ और मध्य स्तर के अधिकारियों वाला मामला विचारणीय नहीं होता। जबकि बिना आजीवन अध्ययन के जो अधिकारी ऊंचे उत्तरदायित्वों पर रहते हैं वे अपने रेफ्रेशर कोर्स अथवा अद्यतन ज्ञान को बढ़ाने की चिंता नहीं करते। हालांकि परिवर्तन आसानी से नहीं हो सकता। लेकिन यह बहुत आवश्यक है यदि भारत को इन वर्षों में एक बड़ी सैन्य ताकत बनना है।
सैन्य शक्ति के लिए मात्र बाहरी ढांचा और विनिर्माण वस्तु ही नहीं चाहिए बल्कि इससे भी ज्यादा एक व्यापक एवं दृढ़ दृष्टिकोण होना चाहिए। आज सख्त जरूरत है कि हम उस विरासत, सांगठनिक ढांचे और प्रशिक्षण के मुद्दों को देखते हुए वर्तमान और भविष्य की सबल चुनौतियों को स्वीकारते हुए राष्ट्रीय सुरक्षा की चिन्ता करें। जबकि आज भी सैन्य शक्ति का पूरा जोर परम्परागत रूप में देश की सार्वभौम एकता, आन्तरिक सुरक्षा और आतंकवाद पर ही केन्द्रित है। अब हमें अपने नजरिए को विस्तार देना होगा। इसमें अंतरिक्ष, साइबर स्पेस और इलेक्ट्रोमैग्नेटिक स्पैक्ट्रम तथा मिसाइल तकनीक और अन्य प्रकार के स्वसंचालित हथियारों के खतरों से भी बचने के उपाय सोचने होंगे। इसके साथ ही सूचना युद्ध के खतरों के विविध पक्षों जिनमें परिवेश गत सूचना एवं रेखीय भी शामिल है- ये कुछ ऐसे महत्वपूर्ण क्षेत्र हैं जिन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है।
व्यूह रचनात्मक नवीनता
हमने सैन्य शक्तियों की नई तैयारियों को मात्र पाकिस्तान केन्द्रित बनाए रखा है, इस तथ्य को जानते हुए भी कि भारत एक लम्बे समय से चीन से भी चुनौती प्राप्त करता रहा है। पाकिस्तान से अब भारत संकेतन से प्रत्यक्ष रूप से दीर्घकालिक सैन्य चुनौती नहीं दिखाई देती। वह तो इस उपमहाद्वीप में अन्य देशों के साथ मिलकर केवल आतंकवाद को बढ़ावा देकर मुकाबले में बने रहना चाहता है। आज अलग-अलग क्षेत्रों में उपस्थित हो गई चुनौतियों से लड़ने के लिए रक्षा पर एक श्वेत पत्र तैयार कर संसद के पटल पर रखने की आवश्यकता है। जब तक यह नहीं किया जाता तब तक सरकार की ओर से सैन्य शक्ति को आधुनिक बनाने का दावा गले नहीं उतरेगा। परिवर्तन सैन्य शक्तियों के सांगठनिक ढांचे को चुस्त-दुरुस्त करने और शस्त्र वृद्धि की रणनीति को प्रभावी बनाने में आवश्यक है ताकि न्यूनतम मूल्य पर और सेना को अधिक प्रभावी बनाकर ऐसी बड़ी चुनौतियों का उन्हीं के अनुरूप मुकाबला किया जा सके। यह आगे रक्षा क्षेत्र के लिए एक श्वेत रक्षा पूर्ण की जरूरत पर ही आकर रुकेगा।
बड़े निर्णयों की जरूरत
विशेष कार्ययोजना मंे तीनोंं सेनाओं के आधुनिकीकरण और ठोस प्रशिक्षण के साथ उनमें युद्ध कौशल बढ़ाने ठोस व उपायों पर व्यापक अध्ययन करने की जरूरत है। यह कार्ययोजना पूरी व्यूहरचना के साथ बननी चाहिए। इस समय यदि हम देखें तो हमारे पास सामूहिक रूप से संयुक्त युद्ध कौशल का कोई ठोस सिद्धान्त या सूत्र नहीं है क्योंकि प्रत्येक सेना को अपना एक स्वतंत्र तंत्र सिद्धांत है। इससे सैन्य आधुनिकता के अभियान को झटका लगेगा। इसलिए यह आवश्यक है कि इस संक्रमण के दौर में हम पूरी तरह से एक सबल और सशक्त संयुक्त सैन्य प्रभाव अपने हित के क्षेत्रों में रखें। एक सामूहिक सिद्धांत या विचार चुनौतियों का बेहतर तरीके से मुकाबला करेगा। (चाहे वह परम्परागत युद्ध के हों या आतंकवाद के द्वारा फैलाए गए संघर्ष की एक संभावित कमी आएगी इसमें देखी जा सकती है कि किस प्रकार सेना एकीकृत आक्रमण के साथ अपना प्रभाव और उपयोगिता के द्वारा अपना आक्रामक अभियान सफल कर पाए।) हमें रक्षा मामलों को और चुस्त-दुरुस्त करना होगा। संसाधनों के अभाव के चलते जो कई बार प्रतिद्वन्द्विता में नहीं दिखाई पड़ती। एक संयुक्त प्रक्रिया द्वारा सेनाओं की अन्त: प्रतियोगिताओं और प्रतिद्वन्द्विता को समरसता तथा एकता बनाते हुए और बढ़ाना चाहिए।
उच्च रक्षा नियंत्रण संगठन
भारत का उच्च रक्षा नियंत्रण संगठन रक्षा मंत्रालय के अधीन स्थापित होकर स्वतंत्रता के बाद से बहुत कम परिवर्तित हो पाया है। कारगिल संघर्ष के बाद कभी कभार मंत्रियों के एक समूह की रपटों के आधार पर कुछ सुधारात्मक परिवर्तन हुए हैं। इनमें जो निर्णय कार्यान्वित हुए हंै उनके परिणाम के रूप में हम आज एक एकीकृत रक्षा समूह (आईडीएस) देख पा रहे हैं। एक रक्षा खरीद एजेन्सी, रणनीतिक सैन्य कमान और पहली बार गठित तीन सेवाओं वाली अंदमान और निकोबार आपरेशनल कमाण्ड। जबकि सेना मुख्यालयों और रक्षा मंत्रालय के विलय के मामले अभी गति नहीं पकड़ सके हैं। इसी प्रकार डिफेन्स स्टॉफ के प्रमुख की नियुक्ति की मनाही हो गयी। इसीलिए एकीकरण का आलोचनात्मक पहलू सुधारों के क्रम में अभी दूर नहीं गया। बड़े स्तर पर राजनीतिक और सैन्य मध्यस्थ के कार्यान्वयन की आवश्यकता है। तुरन्त ही डिफेन्स स्टाफ के प्रमुख की नियुक्ति होनी चाहिए जो कि सैन्य और राजनीतिक प्राधिकरण के बीच मध्यस्थता की भूमिका निभा सके। राजनीतिक तंत्र को सीडीएस से सम्बंधित एकसूत्रीय सलाह के साथ नौकरशाही को भी रक्षा सचिवालय के कार्य को बांटने की बात का नौकरशाही स्वाभाविक रूप से विरोध ही करेगी। लेकिन ऐसा निर्णय लेने से बड़े स्तर पर राष्ट्रीयहित ही सधेंगे।
सार्वजनिक क्षेत्र
रक्षा अनुसंधान और विकास संस्थान, ऑार्डिनेन्स फैर्क्ट्रीज और डिफेन्स पब्लिक सेक्टर यूनिट सैन्य शक्तियों को सभी प्रकार के साजो सामान उपलब्ध कराते हैं। बहुत अधिक मानव संसाधन होेने के कारण रक्षा बजट से अधिक भारी अनुदान इनको दिया जाता है। हम अभी भी 70 प्रतिशत से अधिक सैन्य आवश्यकताओं की पूर्ति बाहरी आयात से करते हैं। इससे अधिक महत्वपूर्ण यह है कि एक बड़ा अन्तर कई वर्षों में सैन्य शक्तियों में सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा उपलब्ध कराए गए शस्त्रों की गुणवत्ता में आया है, जो कि लगातार प्रभावहीन सिद्ध हो रहे हैं। दुख की बात यह है कि हमें आज भी छोटे-छोटे हथियार आर्टिलरी गन, टैंक और लड़ाकू जहाज प्रणाली बनाने में गंभीर चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है। सार्वजनिक क्षेत्र में उच्च स्तर की जिम्मेदारी सुनिश्चित करने के लिए ठोस कार्य करना होगा। अन्य सुधारों के क्रम में अक्षम इकाइयों को बंद करने के साथ निजी क्षेत्रों के सह विकल्प तलाशने होंगे। इनमें रक्षा आर्थिक क्षेत्र (डीईजेड) निर्माण करने के साथ सार्वजनिक क्षेत्र को निजी क्षेत्र से प्रतियोगिता करने के लिए कई वर्षों से कुछ स्वागत योग्य कदम उठाए जा रहे हैं। जैसे कि वर्ष 2002 में रक्षा खरीद प्रक्रिया को संस्थागत करना, 2006 में रक्षा ऑफसेट पॉलिसी और 2009 में एक लम्बी अवधि की रक्षा एकीकृत योजना इत्यादि एक सकारात्मक कदम कहा जा सकता है। उसके बाद विदेशी प्रत्यक्ष निवेश (एफडीआई) पर नई तरह की दृष्टि जो कि सबल रूप से रक्षा क्षेत्र को ऊर्जस्वी बनाएगी। यद्यपि सुधार सार्थक हों इसके लिए हमें संसद में एक श्वेत पत्र लाना चाहिए और उसके बाद रक्षा मंत्रालय को उसका अनुकरण करते हुए सार्वजनिक क्षेत्र में सुधार का प्रयास करने के साथ भारत की रक्षा जरूरतों के अनुरूप निजी क्षेत्र के साथ खुली प्रतियोगिता का अवसर उपलब्ध कराना चाहिए।
(ल्ेाखक सेंटर फॉर वारफेअर स्टडीज के पूर्व निदेशक हैं।)

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