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आलोक बंसल
आज की दुनिया में, किसी देश का कद अपनी सीमाओं से दूर की घटनाओं को प्रभावित कर सकने की उसकी क्षमताओं पर सीधे तौर पर निर्भर है। एक वैश्विक शक्ति के रूप में उभरने की भारत की महत्वाकांक्षा सिर्फ उसके सतत आर्थिक विकास और अपने सभी नागरिकों के लिए जीवन की एक न्यूनतम गुणवत्ता पर ही निर्भर नहीं है, बल्कि एक ऐसी सैन्य शक्ति पर भी निर्भर है जिसमें विश्व स्तर पर शक्तिशाली प्रहार करने या अपनी ताकत जताने की क्षमता हो। पाकिस्तान और चीन के साथ संघषोंर् का परिणाम भारतीय रक्षा बलों के एक असीमित विकास में निकला है। हालांकि, पाकिस्तान और चीन के साथ ही भारत के पास भी परमाणु हथियार हैं और परमाणु हथियारों से लैस देशों के बीच लंबे समय के युद्घ की संभावना अत्यंत कम ही दिखाई देती है, पर इससे किसी पारंपरिक युद्घ की गुंजाइश पूरी तरह खत्म नहीं हो जाती। पाकिस्तान का पतन हो रहा है और इसके परिणामस्वरूप भारत के लिए एक पारंपरिक सैनिक खतरा बनने की इसकी क्षमता बहुत कम हो गई है। यही कारण है कि यह छद्म युद्घ में लिप्त है।
दूसरी ओर, चीन कई छलांगंे लगाकर बहुत आगे निकल गया है, लेकिन जनसांख्यिकीय अभावों ने इसकी आर्थिक वृद्धि दर धीमी कर दी है और इस बिंदु पर वह अपनी अर्थव्यवस्था को पुनर्जीवित करने पर ध्यान केंद्रित कर रहा है। अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वह यह मानता है कि उसे संयुक्त राज्य अमरीका और उसके सहयोगियों द्वारा घेरा जा रहा है। लिहाजा भारत के संदर्भ में उसका प्राथमिक उद्देश्य भारत को पश्चिम का एक सहयोगी बनने से रोकना है। अगर कोई संघर्ष हुआ, तो वह निश्चित रूप से भारत को अमरीका के साथ गठबंधन में धकेल सकता है और चीन निश्चित रूप से यह नहीं चाहता होगा। फिर भी, एक विवादास्पद सीमा या अचिन्हित वास्तविक नियंत्रण रेखा (एलएसी) को देखते हुए संघर्ष से इंकार भी नहीं किया जा सकता है।
भारत को भविष्य में जिस सबसे बड़े खतरे का सामना करने की संभावना है, उनमें से एक वैश्विक इस्लामी कट्टरवाद है। दुनिया भर में मुसलमानों की तीसरी सबसे बड़ी आबादी भारत में है और अपने पड़ोसियों-बंगलादेश और पाकिस्तान-के साथ दुनिया भर में मुसलमानों का सबसे बड़ा घनत्व यहां है। लंबे समय तक यह विश्वास करके भारतीय खुद को धोखा देते रहे कि देश में प्रचलित पंथनिरपेक्ष और उदार माहौल ने भारतीय मुसलमानों को वैश्विक आतंकवादी संगठनों में शामिल होने से रोक रखा है। बहरहाल, इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक एंड लेवांत (आईएसआईएल) के उद्भव के साथ यह सब बदल गया, जो अब वैश्विक मंच पर स्वयं को इस्लामिक स्टेट (आईएस) कहता है। मोसुल पर कब्जे और खलीफत की उद्घोषणा के साथ एक परिवर्तन हुआ, क्योंकि नए खलीफा ने अपने अधिकार इस्लाम के भीतर मुल्लाओं द्वारा पुष्टि किए जाने के जरिए प्राप्त करने की कोशिश की। उसका नाम,उसकी हैसियत, संसाधन और पैगंबर के परिवार का वंशज होने का दावा किए जाने से दुनिया भर से अनेक युवा आईएस की ओर झुकने लगे हैं। पश्चिम अफ्रीका के बोको हराम और तहरीके तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के कुछ गुटों सहित दुनिया भर में कई इस्लामी संगठन पहले ही अपनी निष्ठा अल कायदा, के बजाए खलीफा के पक्ष में बदल चुके हैं। जो अल कायदा तालिबान के अमीर-उल-मोमिनीन मुल्ला उमर के नेतृत्व में एक वैश्विक जिहाद का प्रचार कर रहा था। अल कायदा और इस्लामिक स्टेट के उभरने के साथ दक्षिण एशिया में मुस्लिम युवा कट्टरपंथी होते जा रहे हैं और समय आने पर भारत की सुरक्षा के लिए गंभीर खतरा बन सकते हैं। लंबे समय से पाकिस्तान कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों का उपयोग भारत के खिलाफ एक हथियार के रूप में करने की कोशिश करता रहा है और यहां तक कि इन 'फ्रेंकस्टाइन' राक्षसों के हाथों जख्मी होने के बावजूद पाकिस्तानी सत्ता प्रतिष्ठान के महत्वपूर्ण हिस्सों द्वारा उनका पोषण करना जारी है। यद्यपि इस्लामी कट्टरवाद का यह खतरा काफी समय से उपस्थित रहा है, लेकिन भारतीय सुरक्षा प्रतिष्ठान इसे कानून-व्यवस्था के एक मुद्दे के रूप में देखता रहा है। इस बात का अहसास किए बगैर कि यह एक वैचारिक युद्ध है जिसे केवल मस्तिष्क में जीता जा सकता है, वह ऐसा मानता था कि इससे लाठी-गोली से निपटा जा सकता है। कट्टरपंथी संगठनों का विश्वास है कि उनका मक्सद 'खुरासान' में लड़ना है, जिसमें इस्लामिक स्टेट (आईएस) द्वारा हाल ही में प्रसारित नक्शे के अनुसार गुजरात और जम्मू-कश्मीर के कुछ हिस्सों को शामिल बताया गया है। इससे भी अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि उनकी मान्यताओं के मुताबिक 'खुरासान' में जीत के बाद 'गजवा ए हिंद' या भारत के लिए लड़ाई होगी। लिहाजा यह बिल्कुल स्पष्ट है कि कट्टरपंथी इस्लामी संगठनों के रडार पर भारत है और इसी के परिणामस्वरूप, जहां तक इस क्षेत्र का संबंध है, आईएस और अल कायदा के बीच एक प्रकार की प्रतियोगिता है। अब इन दोनों ही संगठनों की ओर से कुछ सिरफिरे भारतीय मुस्लिम भी लड़ रहे हैं।अयमान अल जवाहिरी द्वारा भारतीय उपमहाद्वीप में अल कायदा (एक्यूआईएस) के निर्माण की घोषणा और तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान (टीटीपी) के पूर्व उग्रवादी नेता को 'खलीफा' द्वारा आईएस के खुरासान चैप्टर के कमांडर के तौर पर नियुक्त किए जाने से स्थिति की गंभीरता का पता चलता है। इन खतरों का मुकाबला करने के लिए भारत को मनोवैज्ञानिक अभियान चलाने की कला में माहिर बनना होगा। कट्टरपंथ से बाहर निकालने का एक ठोस और प्रभावी कार्यक्रम केवल शिक्षित और समझदार योद्धाओं द्वारा शुरू किया जा सकेगा, जो अपने मस्तिष्क का इस्तेमाल, ज्यादा नहीं तो कम से
इन नए खतरों के साथ, जिन क्षेत्रों में वे राज्य को निशाना बना सकते हैं, उस क्षेत्र का भी विस्तार हो गया है। न केवल हमारी हवाई और अंतरिक्ष संपत्ति खतरे में हैं, बल्कि साइबर आतंकवाद एक गंभीर खतरा बन गया है। प्रौद्योगिकी के आगमन के साथ इंटरनेट और कंप्यूटर पर निर्भरता बढ़ती जा रही है और इससे साइबर युद्घ एक शक्तिशाली हथियार बन जाता है। ज्यादा महत्वपूर्ण तौर पर, मुंबई हमलों ने हमारी तटीय सुरक्षा की कमजोरी को उजागर कर दिया है। आज भी समुद्र की ओर से खतरा नहीं कम हुआ है और तटीय सुरक्षा को सुदृढ़ करने के लिए बहुत कुछ किया जाना चाहिए। इसी तरह हमारे द्वीप क्षेत्र गैर सरकारी और सरकारी हमलावरों की घुसपैठ के लिहाज से असुरक्षित बने हुए है। वहां बड़ी संख्या में निर्जन द्वीप समूह हैं, जो आसानी से आतंकवादी ठिकाने बन सकते हैं, और उनमें से कुछ तो भारतीय मुख्य भूमि से अन्य देशों की तुलना में ज्यादा दूर हैं। महत्वपूर्ण तौर पर, भारतीय अर्थव्यवस्था जैसे-जैसे आगे बढ़ेगी, भारत के हितों का भी विस्तार होता जाएगा, जिसमें भारतीय बलों के हस्तक्षेप की आवश्यकता होगी, न केवल भारत के महत्वपूर्ण हितों की रक्षा करने के लिए, बल्कि अंतरराष्ट्रीय समुदाय के एक महत्वपूर्ण सदस्य के रूप में वैश्विक जिम्मेदारियां निभाने के लिए भी।
ऐसे में यह काफी स्पष्ट हो जाता है कि भारत की रक्षा के लिए भावी चुनौतियां काफी भिन्न रहने वाली हैं, और समय के इस मोड़ पर हमारे रक्षा बल उनका सामना करने के लिहाज से तैयार नहीं किए गए हैं। भविष्य के युद्घ 1965 या 1971 के युद्घों की तरह नहीं रहने वाले हैं, जो मूलत: जमीनी युद्ध थे और नौसेना और वायु सेना की भूमिका सिर्फ मददगार वाली थी। भविष्य के संघषोंर् के संक्षिप्त और तीव्र रहने की संभावना अधिक है, जिसमें साइबर सहित, संभवत: अंतरिक्ष, या यहां तक कि परमाणु बलों सहित सभी बलों को एक साथ या एक के बाद एक तैनात किया जा सकता है। इस कारण विभिन्न सेनाओं की संयुक्त रूप से कार्रवाई करने की क्षमता निर्णायक होगी। और महत्वपूर्ण तौर पर, एक महत्वाकांक्षी शक्ति होने के नाते, भारतीय सेना को राष्ट्र के तटों से बाहर जाकर कार्रवाई करने के लिए बुलाए जाने की और अधिक संभावना है। इसलिए यह आवश्यक है कि भारतीय सेना की प्रणालियां, प्रक्रियाएं, कमान और नियंत्रण इतने लचीले हों कि उन्हें जल्दी से समुद्र पार तैनात किया जा सके। इसके अलावा हमारे सामरिक बलों को हमारे युद्घ लड़ने के सिद्घांत के साथ एकीकृत करने की जरूरत है।
इसलिए भारतीय रक्षा बलों को पुनसंर्गठित करना आवश्यक है। एक संभव संरचना अमरीका जैसी हो सकती है, जिसमें संयुक्त युद्धक्षेत्र कमांड होती है, जो सीधे कैबिनेट के प्रति जिम्मेदार होती है, और तीनों सेनाओं के प्रमुख सिर्फ हथियारबंद करने, संगठित करने और प्रशिक्षण देने के लिए जिम्मेदार होते हैं। एक अध्यक्ष अथवा ज्वाइंट चीफ ऑफ स्टाफ, जो तीनों प्रमुखों से पृथक हो, सरकार का एकल बिंदु सैन्य सलाहकार हो सकता है, जिससे इस काम के लिए किसी नौकरशाह की जरूरत से बचा जा सकता है। संयुक्त होना एक अहम जरूरत है, हालांकि दुनिया में कहीं भी तीनों सेनाएं स्वेच्छा से एक साथ नहीं आई हैं। ऐसे महत्वपूर्ण परिवर्तन हमेशा से राजनीतिक नेतृत्व द्वारा निर्देश देकर कराए जाते हैं, और अब भारत में किए जाने चाहिए। यह भी विचारयोग्य है कि क्या रक्षा बलों को कभी भी आंतरिक गड़बडि़यों के लिए इस्तेमाल किया जाना चाहिए, क्योंकि आवश्यकताएं काफी अलग हैं और इससे सेना की युद्घ लड़ने की क्षमता कुंद होती है। भारत 21 वीं सदी में वैश्विक नेतृत्व का सपना देखता है, इसलिए यह आवश्यक है कि उसका राजनीतिक नेतृत्व भारत की सुरक्षा के रणनीतिक आयामों को समझे। राजनैतिक नेताओं को सैनिक सूचनाओं या नौकरशाही की सलाह पर निर्भर हुए बिना भविष्य की चुनौतियों की कल्पना करने में सक्षम होना चाहिए। भारतीय सेना का पुनर्गठन एक ऐसी आवश्यकता है, जिसकी कल्पना राजनीतिक नेतृत्व को करनी होगी।
-प्रद्युत बोरा के साथ।
(लेखक इंडिया फाउंडेशन में सुरक्षा और
रणनीति केंद्र के निदेशक हैं।)
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