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मोरेश्वर जोशी
भारतीय भाषाओं, उनकी लिपियों, व्याकरण एवं साहित्य के पीछे जो प्रेरणाएं हैं, क्या वे वास्तव में भारतीय हैं? इस बारे में पूरी दुनिया में जो गलत मत फैलाया गया है, आज उसका उत्तर देने की आवश्यकता है। भारतीय भाषाएं भारतीय ही हैं, यह बताने वाली कई पुस्तकें आज भारतीय भाषाओं में भी हंै और अंग्रेजी में भी। लेकिन सरकारी स्तर पर एवं पाठशालाओं में पढ़ाए जाने वाले इतिहास में आज भी यही पढ़ाया जाता है कि 'आर्य बाहर से आए'। इसलिए माना जाता है कि सभी भाषाएं, लिपियां एवं व्याकरण भी यूरोप से आए। भारत में ब्रिटिशकाल में अंग्रेजों ने अपनी पद्धति से अपने मतलब का इतिहास लिखवाया। उनके जाने के बाद, पिछले 60-70 वर्षों से केंद्र में रहीं सरकारों ने उसमें स्थानीय प्रमाणों के आधार पर सुधार करने की कोशिश नहीं की। इसका परिणाम यह हुआ कि वही भ्रष्ट इतिहास आज पूरी दुनिया में अधिकृत इतिहास के तौर पर माना जाता है। साथ ही, भारत में नए सिरे से संशोधित हो रहे इतिहास की जानकारी पूरी दुनिया में न पहुंचे, इसलिए यूरोप की नामी संस्थाएं भ्रम फैलाने में लगी हैं कि सभी भारतीय भाषाएं यूरोप से ही भारत में आई हैं। महाभारत युद्घ में से भगवद्गीता जैसा नवनीत निर्माण हुआ, विश्व के सभी विद्वानों का यह मत होने के बावजूद महाभारत के युद्ध को कुछ पुरोहितों और हड़प्पा सभ्यता केआमजन के बीच वर्ग संघर्ष दिखाया जाता है ताकि भारतीय संस्कृति की महानता विश्व के सामने न आने पाए। अब हमें बलपूर्वक स्थापित करना होगा कि हमारी संस्कृति वह है जो अनेक ऋषि-मुनियों की तपश्चर्या से विकसित हुई है, जिसने दासता के काल में खुद को बचाए रखा। क्योंकि तथाकथित विद्वानों और अनेक विश्वविद्यालयों ने यही फैलाया है कि दासता के समय में भारत में मूलत: कुछ भी नहीं था। पिछले 60-70 वर्षों में वही झूठ आगे बढ़ाया जाता रहा है। आज पूरे देश में नया माहौल है। भ्रष्ट इतिहास का सही स्वरूप विश्व के सामने लाने का यही समय है।
दुनिया में जब भी भारत के इतिहास की बात आती है तब यह भ्रम फैलाया जाता है कि दक्षिण भारत की भाषाओं में से कुछ हड़प्पा के रास्ते यूरोप में आईं और कुछ भाषाएं रोम से अफ्रीका होते हुए भारत में आईं। भारत के कुछ लेखक और यूरोप के भी आठ-दस लेखक कहते रहते हैं कि भारत में मूलत: ताम्रयुगीन वनवासी हुआ करते थे, यहां यूरोप से आए आयोंर् ने संस्कृति की नींव डाली। उनकी इस मुहिम के उत्तर में पर्याप्त प्रमाणों सहित आगे आना होगा। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने इस विषय पर अलग से दो प्रकरण और परिशिष्ट दिए हैं। इरावतम महादेवन ऐसा ही एक नाम है जो यह भ्रम फैलाने में लगे हैं। थाईलैण्ड में पले-बढ़े एवं मूलत: तमिलनाडु से संबद्ध इरावतम महादेवन का विषय है 'सिंधु नदी के तट पर भाषाओं की लिपियां'। ब्राह्मी लिपि, भारतीय लिपियां और सिंधु संस्कृति में लिपियों का तुलनात्मक अध्ययन उनके शोध का विषय है। लेकिन उसका सार देखा जाए तो यही दिखाने का प्रयास है कि, देवनागरी लिपि किस तरह अन्य भारतीय लिपियों से अलग है और ब्राह्मी, तमिल और हड़प्पन लिपि में ही किस तरह समानता है। वे इंडियन काउंसिल ऑफ हिस्टोरिकल रिसर्च के शोधकर्ता हैं। पश्चिमी जगत में उन्हें सम्मान का स्थान प्राप्त है। लेकिन तमिल, हड़प्पन और ब्राह्मी लिपियों का उद्गम उत्तर भारतीय लिपियों से अलग है, यह दिखाने के प्रयास में उन्होंने यही बताया है कि भारत की सभी लिपियां यूरोप से आई हैं। पश्चिमी जगत में इसी तरह का काम करने वाले हार्वर्ड विश्वविद्यालय के माइकल विट्जल और इसी तरह के शोध को समर्पित तमाम संगठनों से उनका निकट संबंध था। वह 'इलेक्ट्रानिक जरनल ऑफ वैदिक स्टडीज' पत्रिका, जिसे विट्जल संपादित करते थे, के नियमित लेखक थे। संस्कृत से विद्वेष, तमिल भाषा का यूरोपीय भाषाओं से संबंध दिखाना और हिंद महासागर की लेम्यूरी संस्कृति से ही दक्षिण भारत की संस्कृति उपजी है, यह बताने का आग्रह, ये तीनों उद्देश्य वह एक ही समय में साधते थे। इसके लिए अनेक बार नकली तस्वीरों का आधार लेने में भी उन्होंने कभी संकोच नहीं किया। सन् 2002 में इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ ओशन टेक्नोलॉजी के गल्फ ऑफ केम्बे यानी खंबात की खाड़ी के अध्ययन में विशेषज्ञों को प्राचीन अवषेश मिले थे। स्वाभाविक ही उनका संबंध भारत के इतिहास से रहा होगा। लेकिन महादेवन ने जानबूझकर उस पर अंतरराष्ट्रीय स्तर के विद्वानों की प्रतिक्रिया लेनी चाही थी। पर दक्षिण के कुछ शोधकार्यों में जिन स्थानों पर उनके मत की पुष्टि करने वाली चीजें नहीं मिलीं तब उन्हें किसी पश्चिमी विद्वान का मत लेने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई।
सन् 2006 में दक्षिण में हुए कुछ उत्खनन कार्यों से देश की दक्षिणी संस्कृति के गंगा की संस्कृति से जुड़े होने की संभावना दिखते ही महादेवन ने उसकी उल्टी-सीधी तोड़ खोजने की कोशिश की। उन्होंने जिद ठाने रखी कि इस तरह के उत्खनन हड़प्पा अथवा खंबात से जुड़े होंगे। वे यहां तक कह गए कि सिंधु संस्कृति की भाषा और तमिल भाषा एक जैसी ही थीं और आयोंर् की भाषाओं से उनका कोई संबंध नहीं था। उनके इस तरह के बेसिरपैर के कथन किसी भी सम्मानित शोध के स्तर के नहीं थे, लेकिन अन्य तमिल-द्रविड़ संस्थाओं से संबंधित शोधकर्ता एवं अफ्रीकी-द्रविड़ विशेषज्ञ उसे 'मौलिक शोध' का दर्जा देने से नहीं चूके। ऐसे लोगों ने किताबों में छापा हुआ है कि तमिल संस्कृति उत्तर भारतीय संस्कृति से न जुड़ी होकर यूरोप से जुड़ी है। इसलिए इस तरह का कोई भी शोध राजनैतिक मोड़ ले लेता है। इस तरह के मामले कई बार हुए हैं। ऐसे शोधकार्यों के बारे में पुरातत्व विशेषज्ञ सी. एम. पांडे ने 45 वर्ष पूर्व सचेत किया था। उन्होंने कहा था कि किसी बात को लेकर अलग-अलग दृष्टि से विचार आते ही वहां की सरकार अगर उनको पाठ्यपुस्तकों में जोड़ ले तो फिर ऐसे विषय पर शोध करना भी कठिन हो जाता है।
अनेक जानकारों द्वारा इस तरह की गंभीर चेतावनी दिए जाने के बाद भी महादेवन का भारतीय शोधकार्यों पर टीका-टिप्पणी करना जारी है। इसी कारण अमरीका के विश्वविद्यालयों द्वारा उनका सत्कार भी होता है। सन् 2009 में कुछ अमरीकी एवं भारतीय वैज्ञानिकों ने हड़प्पा संस्कृति के चिन्हों की गिनती गणित के निष्कषार्ें पर करते हुए यह जताने का प्रयास किया कि दक्षिण भारत की भाषाओं की लिपियां हड़प्पा संस्कृति की लिपियों से मिलती-जुलती हैं। ऐसा कहने से पहले और भारतीय शोधकर्ताओं द्वारा उस पर कोई टिप्पणी करने से पूर्व ही वह विषय पश्चिमी पत्रिकाओं में प्रकाशित भी हुआ। वास्तव में भारतीय भाषाओं के व्याप पर गौर करें तो उनका कोई तर्क टिकने वाला नहीं है। सभी भारतीय शास्त्रों की विशेषता है कि उन सभी की शास्त्रीय परिभाषा एक है। योगशास्त्र, आयुर्वेद, संगीत जैसे जीवन के प्रत्येक अंग को छूने वाले ये शास्त्र एकरस थे और ऐसा नहीं है कि इनकी रचना केवल गंगा-यमुना के तटों पर ही हुई। इसके प्रमाण तमिलनाडु में तो हैं ही, लेकिन श्रीलंका में भी ये सभी विषय भारत जितने ही संपन्न हंै। आयुर्वेद का ज्ञाता अन्य शास्त्रों का भी विचार सहजता से कर सकता था। इतना ही नहीं, भारतीय भाषाओं की रचना स्वरनिर्मिति के आधार पर हुई है। भारतीय वर्णमाला के प्रत्येक अक्षर का महत्व भगवान शंकर ने पार्वती माता को सहज वार्तालाप में बताया था।
माना जाता है कि अनेक भारतीय शास्त्रों की रचना शंकर-पार्वती के बीच चौपड़ खेलते-खेलते बातचीत में हुई। यहां यह उल्लेख इसलिए किया है क्योंकि दक्षिण का संगीत, ईश्वर की स्तुति आदि सब भगवान शंकर से संबंधित हैं। संगीत, व्याकरण, योगशास्त्र के संदर्भ में भगवान शंकर के वचन आज भी सभी शास्त्रों की कसौटी पर खरे उतरते हैं। भारतीय वर्णमाला के संदर्भ में भगवान शंकर द्वारा की गई प्रत्येक वर्ण की मीमांसा आज भी नूतन प्रतीत होती है। कहते हैं, भारतीय व्याकरण के सूत्रधार महर्षि पाणिनी को भगवान शंकर के डमरू के स्वरों से व्याकरण के सूत्र आभासित हुए। ऐसी कथाओं पर विश्वास करना या न करना, यह हर एक की व्यक्तिगत सोच से जुड़ा है, लेकिन इसमें दो राय नहीं कि पाणिनी के सूत्र किसी भी भाषाशास्त्र के लिए आदर्श हैं।
सााफ है कि यह समस्या केवल भारत तक सीमित नहीं है, क्योंकि सेकुलर विद्वानों के लिए यह दिखाना जरूरी था कि यूरोपीय देश और उनमें भी चर्च संगठनों का वर्चस्व विश्व के 150 देशों में स्थापित होने के बाद पूरे विश्व पर यूरोपीय इतिहास का ही प्रभाव है। इस संदर्भ में केंब्रिज विश्वविद्यालय के विशेषज्ञ दिलीप चक्रवर्ती द्वारा व्यक्त किया गया मत गौर करने योग्य है। वे कहते हैं, 'इजिप्ट और मेसोपोटामिया की संस्कृति पर पश्चिमी विशेषज्ञों के शोधकार्यों में इजिप्ट और इराक के शोधकर्ताओं के किए शोधकार्यों को अनदेखा किया गया है।' यानी जो समस्या भारत में है वही इजिप्ट, इराक और दूसरे देशों में भी है। पश्चिमी छात्रवृत्तियां प्राप्त करने के बाद किया जाने वाला शोधकार्य पश्चिम वालों के मन का ही होता है। इजिप्ट और मेसोपोटामिया के पुरातन ताम्रयुग की ओर पूरी तरह से दुर्लक्ष किया गया है। पश्चिमी शोधकर्ता जब पाकिस्तानी शोधकार्यों के बारे में बोलते हैं तब वे केवल पाकिस्तान के लोगों द्वारा किए गए शोधकायोंर् के बारे में ही बात करते हैं। वास्तव में यह उसकी सीमाओं और पाकिस्तानी विद्वानों का सहज दृष्टिकोण परिचित होता है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद भारतीय पुरातत्वशास्त्र विभाग ने कुछ काम खुलकर किया। फिर भी पश्चिमी देशों अथवा पश्चिमी देशों की छात्रवृत्ति पर किए गए शोधकार्यों का तीसरी दुनिया के प्रति नजरिया दूषित ही होता है। इस दूषित नजरिए का असली अर्थ भारत के विशेषज्ञों और शोधकर्ताओं को समझ लेना चाहिए।
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