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सामयिक : विकास की धुरी बने गांववैश्विक संकट के दौर में 'नीति और आयोग' से देश की अपेक्षाएं

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Jan 10, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 10 Jan 2015 14:31:33

प्रमोद जोशी
नीति आयोग बन जाने के बाद जो शुरुआती प्रतिक्रियाएं हैं उनके राजनीतिक आयाम को छोड़ दें तो इतना दिखाई पड़ता है कि इसमें राज्य अपनी भूमिका खोज रहे हैं। देश की संघीय व्यवस्था परिभाषित होना चाहती है। नीति आयोग के नवनियुक्त उपाध्यक्ष अरविन्द पनगढि़या ने पिछले साल 11 फरवरी को 'नेशनल काउंसिल ऑफ एप्लाइड रिसर्च' के सीडी देशमुख स्मारक व्याख्यान में इस बात को रेखांकित किया कि पहली बार एक राष्ट्रीय दल ने प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के रूप में नरेंद्र मोदी को उतारा है, जिनके जीवन का लगभग पूरा प्रशिक्षण और अनुभव एक राज्य के नेता के रूप में है। फिर भी उन्होंने हौसला जताया है कि उन्हें अवसर मिला तो वे अभी तक के सभी प्रधानमंत्रियों से अलग हटकर काम को अंजाम देंगे।
स्वतंत्रता दिवस के भाषण में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने जब योजना आयोग की समाप्ति की घोषणा की तब काफी लोगों को विस्मय हुआ। इसका अनुमान काफी लोगों को था, इस पर फैसला इतनी तेजी से होगा इसका अनुमान नहीं था। अरविंद पनगढि़या को बाजार व्यवस्था का समर्थक माना जाता है। उनका वह व्याख्यान लोकसभा चुनाव के ठीक पहले हुआ था। उन्होंने इस बात पर रोशनी डाली थी कि भावी सरकार की प्राथमिकताएं क्या होनी चाहिए। मोटे तौर पर उनका कहना था कि भारत को 1991 से शुरू हुए सुधार कार्यक्रमों को तेजी से बढ़ाना चाहिएं। उन्होंने कहा हमें चाहिए उच्च कोटि की शिक्षा देने वाले लाखों स्कूल, सर्वश्रेष्ठ अस्पताल, राजमार्ग, हर घर तक बिजली, पानी और सफाई की व्यवस्था। इन सब कायोंर् के लिए हमारे पास साधन नहीं हैं इसलिए फिलहाल रोजगारपरक आर्थिक संवृद्घि की कोशिश और स्वास्थ्य तथा शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की जरूरत है। सवाल है कि क्या हम आठ फीसद विकास दर को निकट भविष्य में, या यों कहें कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना के दौरान, हासिल कर पाएंगे? नीति आयोग की नई संरचना क्या इसमें कोईमदद करेगी?
नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति?
नए साल पर सरकार ने योजना आयोग की जगह 'नेशनल इंस्टीट्यूशन फॉर ट्रांसफमिंर्ग इंडिया'(राष्ट्रीय भारत परिवर्तन संस्थान) अंग्रेजी अक्षरों से संक्षेप में'नीति' आयोग बनाने की घोषणा की है। कुछ लोगों ने इसे छह दशक से चले आ रहे नेहरूवादी समाजवाद की समाप्ति के रूप में लिया है। यह राजनीतिक प्रतिशोध है या भारतीय रूपांतरण के नए फार्मूले की खोज, इसके बारे में अभी कुछ कहना जल्दबाजी होगी।फिलहाल सवाल यह है कि बारहवीं पंचवर्षीय योजना का क्या होगा? पंचवर्षीय योजनाओं की व्यवस्था रहेगी या कोई नई चीज सामने आएगी? राष्ट्रीय विकास परिषद रहेगी या खत्म होगी? साथ ही नीति आयोग की जिस नई संरचना की घोषणा की गई है वह क्या शक्ल लेगी?अभी स्पष्ट नहीं है कि नई व्यवस्था किस रूप में काम करेगी।
पहली नजर में यह कदम प्रतीकात्मक है और व्यावहारिक रूप से संघीय व्यवस्था को रेखांकित करने और राष्ट्रीय प्राथमिकताओं को नए सिरे से परिभाषित करने की कोशिश है। कुछ लोगों ने इसे 'राजनीति आयोग' बताया है। ज्यादातर राज्य अभी इसके व्यावहारिक स्वरूप को देखना चाहते हैं। इस साल वार्षिक योजनाओं पर विचार-विमर्श नहीं हुआ है। असम सरकार ने छठी अनुसूची के तहत आने वाले क्षेत्रों के लिए साधनों को लेकर चिंता व्यक्त की है। वहीं आंध्र सरकार अपना नीति आयोग बनाने की योजना बना रही है। तेलंगाना सरकार की समझ कहती है कि अब राज्य को बगैर किसी योजना आयोग की शतोंर् से बंधे सीधे धनराशि मिलेगी। देखना होगा कि नीति आयोग किस तरह काम करेगा। इतना लगता है कि इसके पीछे का विचार इतना अविचारित नहीं, जितना कुछ लोग साबित कर रहे हैं।
विकेंद्रीकरण और विविधता
योजना आयोग मूलत: सलाहकार संस्था थी, अक्सर राज्यों की शिकायत थी कि उनके साथ भेदभाव होता है। यह विविधताओं से भरा देश है। दक्षिण के लिए जो उचित है वह उत्तर के पहाड़ी राज्यों पर लागू नहीं होता और जो राजस्थान के रेगिस्तानी इलाके के लिए उचित है वह सागर तटीय राज्यों के लिए जरूरी नहीं होता। यानी हमें नीति और योजना के स्तर पर विकेंद्रीकरण की जरूरत है।
योजना आयोग के पूर्व सदस्य सचिव राजीव रत्न शाह के अनुसार, 'यह बात सबको समझ में आती थी कि आयोग ने स्वयं को पुनर्परिभाषित नहीं किया तो उसका पतन अवश्यंभावी है।' उनके अनुसार योजना प्रक्रिया उलटी थी, इसमें स्थानीय जरूरत के अनुसार संसाधनों का वितरण नहीं होता था और न यह देखने की कोई प्रक्रिया थी कि सम्बद्घ क्षेत्र को लाभ मिला या नहीं। सिद्घांत रूप में सरकार अब यही करना चाहती है, होगा या नहीं अभी कहना मुश्किल है। ज्यादातर विशेषज्ञ मानते हैं कि आयोग को संसाधन आबंटित करने वाली संस्था के रूप में काम करने के बजाय योजना के क्रियान्वयन को सुनिश्चित करने वाली संस्था के रूप में तैयार किया जाना चाहिए।
योजना माने कोई एक संस्था है तो वह अब खत्म हो गई। पर इसका मतलब यह भी नहीं कि राष्ट्रीय व्यवस्था की फौरी और दूरगामी नीतियां बनाने का काम भी खत्म हो गया। योजना आयोग का 64 साल का अनुभव हमारे पास है। आयोग की 10 साल तक सदस्य रहीं सैयदा हमीद ने हाल में लिखा है, आयोग के महत्व को पूरी तरह नकारा नहीं जा सकता। पिछले दस साल में योजना आयोग में काफी बदलाव हुआ है। योजना भवन के एकांतवास से बाहर निकालकर महसूस किया जाता था कि इस व्यवस्था में बदलाव होना चाहिए।
इसके राजनीतिक फलितार्थ भी हैं। कांग्रेस भले ही इस बदलाव की आलोचना करे, पर इसकी शुरुआत संप्रग सरकार ने ही कर दी थी। योजनागत और गैर-योजनागत व्यय में अंतर को खत्म करने की सिफारिश रंगराजन समिति ने की थी, जिसकी शुरुआत पिछले साल पी चिदंबरम के बजट से ही हो गई थी। उस बजट में तमाम केंद्र प्रायोजित योजनाओं को राज्य सरकारों को हस्तांतरित कर दिया गया था। राज्यों को धनराशि के आवंटन में योजना आयोग की भूमिका पहले से ही कम हो गई थी।अब चौदहवें वित्त आयोग की रपट का इंतजार है, जिसके सुझाव 1 अप्रैल 2015 से 31 मार्च 2020 तक लागू रहेंगे।
राज्यों को संसाधनों के वितरण के बाबत अब कुछ महत्वपूर्ण नीतिगत निर्णयों का इंतजार है। इस प्रकार मोदी सरकार का पहला बड़ा अध्याय खुलेगा। केंद्र सरकार के वित्त मंत्रालय में भी भारी बदलाव होने जा रहे हैं। नए मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यम आर्थिक सर्वेक्षण का रंग-रूप पूरी तरह बदलने की योजना बना रहे हैं।
आर्थिक उदारीकरण की भूमिका
सन 1950 में जब योजना आयोग बनाया गया था तब यह महसूस किया गया कि देशी पूंजी का विकास ही नहीं हो पाया है। स्वदेशी बचत इतनी थी ही नहीं कि वह औद्योगीकरण कर पाती। ऐसे में सरकार को ही उद्यमी या कारोबारी की भूमिका अदा करनी थी। व्यवस्थाओं की तरह भारत में भी सरकार ने अपने कारोबार खड़े करने का फैसला किया। पर हमारी व्यवस्था मिश्रित अर्थ-व्यवस्था थी। अस्सी के दशक तक हमारे सार्वजनिक उद्योग ही अर्थ-व्यवस्था के मुख्य इंजन थे। साइकिलों, स्कूटरों और डबलरोटी तक के कारखाने सरकारी थे। पर सन 1991 से लागू उदारीकरण कार्यक्रम राष्ट्रीय निर्माण में निजी क्षेत्र और बाजार की ताकतों को शामिल करने के इरादे से ही शुरू किया गया था।
केंद्रीय नियोजन का मतलब होता है कोटा-लाइसेंस राज। अब इसमें बाजार यानी निजी क्षेत्र भी महत्वपूर्ण भूमिका में है। इस व्यवस्था में अब तक केंद्र सरकार की केंद्रीय भूमिका थी। अब राज्यों की भूमिका भी सामने आ रही है। नई व्यवस्था का मतलब यह भी नहीं है कि नियोजन या प्लानिंग की अर्थ-व्यवस्था में भूमिका खत्म हो जाएगी। खबर है कि भारत सरकार ने अगले सात साल में सौर ऊर्जा पर 100 अरब डॉलर के निवेश की योजना बनाई है। लक्ष्य है सौर ऊर्जा की क्षमता एक लाख मेगावाट करना। भारत में सात लाख से 21 लाख मेगावट तक सौर बिजली बनाने लायक यानी यूरोपीय देशों के मुकाबले दुगुनी धूप उपलब्ध है। देश में 30-50 मेगावाट प्रति वर्ग किलोमीटर छायारहित खुला क्षेत्र होने के बावजूद उपलब्ध क्षमता की तुलना में देश में सौर ऊर्जा का दोहन काफी कम है (जो 31-5-2014 को 2647 मेगावाट थी)। विदेशी कम्पनियां भारत में निवेश तभी करेंगी जब उन्हें नौकरशाही, कानूनों और नीतियों के मकड़ज़ाल में फांसने का डर नहीं होगा। इस लिहाज से सरकार और संस्थाओं की भूमिका वही नहीं होगी, जो पहले थी।
राजनीतिक संस्था?
योजना आयोग सीधे प्रधानमंत्री के प्रति जवाबदेह था। देश के अनेक राज्य केंद्र से भी बेहतर काम करते रहे हैं। राजकोषीय घाटे को कम करने में उनका प्रदर्शन बेहतर रहा है। बावजूद इसके नीति-निर्धारण और साधनों के आबंटन में वे मार खाते रहे। कुशल और अकुशल राज्य अक्सर एक पलड़े में तोल दिए जाते थे। अब यदि आंध्र प्रदेश सरकार अपना नीति आयोग बनाना चाहती है तो इसका मतलब यह है कि वह साधनों का इस्तेमाल खुद करना चाहती है। देश में साधनों के बंटवारे की एक अलग व्यवस्था है, जिसका सूत्रधार वित्त आयोग है, जिसकी स्थापना संवैधानिक नियमों से होती है। कई कारणों से यह संस्था योजना आयोग के सामने फीकी पड़ती थी। अभी तक राज्यों को उनकी योजना बनाकर केंद्र सरकार दे रही थी जबकि होना इसके उलट चाहिए। यानी गांव के स्तर पर योजना बननी चाहिए और उसे ऊपर जाना चाहिए। इसके अलावा अलग-अलग इलाकों की जरूरत के हिसाब से काम होना चाहिए। केरल की जरूरत वही नहीं है जो उत्तराखंड की है। बेहतर हो कि राज्यों को केंद्रीय राजस्व में से उनका हिस्सा देकर उन्हें योजना बनाने को बढ़ावा दिया जाए। सिद्घांतत: एक राष्ट्रीय विकास परिषद भी है, जिसमें राज्यों की हिस्सेदारी होती है, पर उनकी बात सुनता कौन था? कहना मुश्किल है कि अब सुनवाई होगी या नहीं। इसके लिए हमें नीति आयोग की रीति-नीति का इंतजार करना होगा।
नीति आयोग की घोषणा करने के पहले केंद्र सरकार ने दिसम्बर में मुख्यमंत्रियों की बैठक इस सिलसिले में बुलाई थी। नई व्यवस्था के अनुसार राष्ट्रीय स्तर पर और क्षेत्रीय स्तर पर गवनिंर्ग काउंसिल होंगी, जिनमें राज्यों के मुख्यमंत्री भी होंगे। इसकी शक्ल और काम करने के तरीके के बारे में आने वाला समय ही बताएगा, पर आने वाले बजट में इसकी छाप दिखाई देगी, क्योंकि अब योजनागत और गैर-योजनागत खचोंर् का फर्क नजर नहीं आएगा।
यह सिर्फ संयोग नहीं था कि दिसम्बर में बुलाई गई मुख्यमंत्रियों की बैठक में नरेंद्र मोदी ने मनमोहन सिंह को खास तौर से उद्घृत किया। नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त के अपने भाषण को भी याद दिलाया और कहा कि योजना आयोग के स्थान पर ऐसा संगठन लाया जाना चाहिए जो सृजनात्मक रूप से सोच सके, संघीय ढांचे को मजबूत कर सके और राज्यों में ऊर्जा का संचार कर सके।
आर्थिक संवृद्घि या सामाजिक विकास?
हमें आर्थिक संवृद्घि चाहिए या सामाजिक विकास? दूसरा सवाल यह है कि क्या इन दोनों बातों में टकराव है? इसे अमर्त्य सेन बनाम जगदीश भगवती विमर्श कहा जा रहा है। अरविन्द पनगढिया भगवती-धारणा के पक्षधर हैं। दोनों ने मिलकर मोदी के गुजरात मॉडल पर 'इंडियाज ट्रिस्ट विद डेस्टिनी' नाम से किताब लिखी है। दोनों की नवीनतम पुस्तक'ह्वाई ग्रोथ मैटर्स' है। योजना आयोग के पीछे जवाहरलाल नेहरू की दृष्टि काम करती थी। स्वतंत्रता के पहले सन 1938 के आखिर में अंग्रेज सरकार ने कांग्रेस के सुझाव पर नेशनल प्लानिंग कमेटी बनाई थी। इसके पीछे उद्योगों की रफ्तार बढ़ाने का इरादा था।
जवाहरलाल नेहरू ने डिस्कवरी ऑफ इंडिया में लिखा है, 'हमने हिसाब लगाया और देखा कि रहन-सहन के सचमुच प्रगतिशील मापदंड के लिए राष्ट्रीय सम्पत्ति को 500 से 600 फीसद तक बढ़ाना जरूरी है।' भारतीय अर्थ-तंत्र शुरू से ही सार्वजनिक और निजी क्षेत्र की मिश्रित व्यवस्था के रूप में विकसित हुआ है। तब से अब तक एक अनिर्र्णित बहस इस बात पर है कि देश के विकास का मॉडल क्या हो। वित्त मंत्री अरुण जेटली ने पिछले साल बजट पर संसद में हुई बहस का जवाब देते हुए कहा 'हमारा बजट गरीब समर्थक भी है और कारोबार समर्थक भी।' सरकार गरीबी दूर करने के कार्यक्रम लागू करना चाहती है, तो उसे संसाधन चाहिएं, और इसके लिए विकास जरूरी है। हमारे यहां गरीब समर्थक नीतियों का अर्थ होता है सरकारी छूट को जारी रखना। गरीबी दूर करने का यह सीधा फार्मूला है, जो अक्सर चुनावी वादों में सस्ते अनाज, मुफ्त बिजली और कर्ज माफी के रूप में दिखाई पड़ता है। हां विकास के अलावा संसाधनों के वितरण का सवाल भी है। किस तरह से विकास का लाभ नीचे तक पहुंचेगा?
क्या कारोबार समर्थक नीतियों का अर्थ गरीबों के खिलाफ नीतियां बनाना है? यहां पर शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य का महत्व समझ में आता है। अपने हितों की रक्षा वही कर सकता है जो शिक्षित और स्वस्थ हो। गरीबों के लिए मुकर्रर सुविधाएं गरीबों को ही मिलें यह सुनिश्चित करना एक और मुश्किल काम है। अरविन्द पनगढिया मानते हैं कि गरीबी उन्मूलन मुख्य लक्ष्य है और आर्थिक संवृद्घि उसका एक उपकरण है। हमें अगले एक दशक में नितांत गरीबी का लगभग उन्मूलन करने की दिशा में काम करना चाहिए। पन्द्रह साल के भीतर सार्वभौमिक साक्षरता और स्वास्थ्य सेवाओं को उपलब्ध कराना चाहिए।
इसकी मुख्य भूमिका राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महत्व के विभिन्न नीतिगत मुद्दों पर केंद्र और राज्य सरकारों को जरूरी रणनीतिक व तकनीकी परामर्श देना होगी।
नए आयोग के उद्देश्यों में यह स्पष्ट नहीं कि पंचवर्षीय योजनाओं की मौजूदा व्यवस्था रहेगी या नहीं।
नीति आयोग के क्रियाकलापों में मुख्यमंत्रियों तथा निजी क्षेत्र के विशेषज्ञों की अहम भूमिका होगी।
नीति आयोग में देश भर के शोध संस्थानों और विश्वविद्यालयों से व्यापक स्तर पर परामर्श लिये जायेंगे।
नीति आयोग मोदी के टीम इंडिया और सहकारी संघवाद के विचार का मूर्तरूप होगा।

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