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अपनी बात-मातृभूमि में रमा मन

by
Jan 3, 2015, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 03 Jan 2015 13:31:02

कुरियन वर्गीस। केरल में कितने ही होंगे इस नाम के, लेकिन जिन कुरियन की यहां हम चर्चा कर रहे हैं उन्होंने कुछ ऐसा किया है जो उन्हें बाकी कुरियन वर्गीस से अलग करता है। बहरीन में रहने वाले 52 साल के कुरियन जन्मे तो तमिलनाडु में थे, लेकिन यहां से इंजीनियरिंग करने के बाद 1986 में बहरीन चले गए। और आज वहां चिकित्सा, शिक्षा, होटल, लोक निर्माण आदि क्षेत्रों में गजब का काम कर रहे हैं। आज वह एक बड़े उद्योग समूह के मालिक हैं। कहने वाले कह सकते हैं, तो क्या? बाहर जाकर पैसा कमाने वाले बहुत देखे हैं। लेकिन जिन वर्गीस की बात हम बता रहे हैं उन्होंने बेशक अपने जतन और लगन से खूब पैसा कमाया, नाम कमाया, लेकिन बड़ी बात यह है कि वह अपने वतन और उस केरल को नहीं भूले जहां उनका वंश फला-फूला। वहां की गरीबी देख उन्होंने मुंह नहीं फेरा और अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा केरल में सरकारी/गैर सरकारी संस्थाओं के माध्यम से उन गरीबों के लिए घर बनाने पर खर्च करते हैं। 500 से ज्यादा बेघरों के सिर पर छत और 500 से ज्यादा गरीब परिवारों की बेटियों की शादी के लिए पैसा देना कोई मामूली बात नहीं है। केरल सरकार की आवास परियोजना में बनने वाले पहले 100 आवासों के लिए 2 लाख रु. प्रति आवास देना उन्हें उन पैसे वालों की भीड़ से अलग करता है जिनके लिए 'कमाओ और अपने पर उड़ाओ' की मानसिकता हावी रहती है। 2014 मंे वर्गीस कुरियन को भारत सरकार ने प्रवासी भारतीय सम्मान दिया था।
इसी तरह मूलत: गुजराती डा. अब्दुल वकील मोजाम्बिक में तमाम उच्च सरकारी पदों पर रहे हैं। मोजाम्बिक, पुर्तगाल और लंदन में बैंकिंग क्षेत्र में नई ऊंचाइयों को छुआ है और आज भी वित्त मामलों के अग्रणी सलाहकार के नाते जाने जाते हैं। इसमें संदेह नहीं कि डा. वकील ने विदेशी धरती पर भारतीय मेधा का परचम फहराया है। 2007 में उन्हें भी प्रवासी भारतीय सम्मान से अलंकृत किया गया था। एक, दो नहीं, ऐसे अनेक नाम हैं जिन्होंने विदेश में रहते हुए भारत की साख को बढ़ाया है, अपनी माटी की चिंता की है, उस सनातन संस्कृति का गौरवगान किया है जो उनके रक्त में रची-बसी है।
इन भारतवंशियों का जिक्र करते हुए ध्यान आता है महात्मा गांधी का जीवन, जिन्होंने विदेश में पढ़ाई की, वकालत की और सब छोड़-छाड़कर 1915 में भारत लौटकर अपने देश को आजाद कराने के संघर्ष में शामिल हो गए। इस साल उनकी वतन वापसी का सौवां साल है और इसीलिए इस बार का प्रवासी भारतीय दिवस कार्यक्रम गांधी जी के जन्मस्थान गुजरात में आयोजित किया जा रहा है। यह ऐसा मौका होता है जब त्रिनिदाद-टोबैगो, फिजी, मारीशस, मालदीव से लेकर एशिया के तमाम देशों, खाड़ी देशों, अमरीका, ब्रिटेन, यूरोप और अफ्रीका महाद्वीप के अनेक देशों में बसे भारतवंशी एक मंच पर आकर अपने वतन के आनंद में आनंदित होते हैं और दुख को साझा करते हैं। इतना ही नहीं, वे अपने अपने प्रयासों से वतन की तरक्की में चार चांद लगाने का संकल्प करते हैं।
उनमें यह भाव कैसे जगा? यह भाव जगा उन संस्कारों से जो यहां की हवा में रचे-बसे हैं; यहां के सामाजिक-सांस्कृतिक मूल्यों से, जो सनातन संस्कृति से उपजे हैं, जिसका जयघोष स्वामी विवेकानंद ने 11 सितम्बर, 1893 के दिन शिकागो में विश्व धर्मसंसद में किया था। उन्होंने तब उद्घोष किया था कि वे उस हिन्दू धर्म के प्रतिनिधि हैं जो सर्वे भवन्तु सुखिन: की कामना करता है और जो वसुधा को एक कुटुम्ब मानता है।
अमरीका की धरती पर स्वामी विवेकानंद ने अपने पंथ को ही सर्वोच्च मानने वालों को सत्य का भान कराया और भारत की मेधा की एक छोटी सी झलक दिखाई थी।
आज विदेशों में बसे भारतवंशी अपने कौशल और परिश्रम से जिन ऊंचाइयों को छू रहे हैं वह असाधारण है और इस सबके साथ, अपनी माटी के लिए उनमें जो सम्मान का भाव है, वही है जो उन्हें भारत के साथ नेह-डोर से जोड़े रखता है। ल्ल

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