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'इंडिया जर्नी ऑफ कम्पैशन' जैसी ईसाई संस्थाएं खुद इस बात की घोषणा कर रही हैं कि इस वर्ष वे भारत में 80 हजार लोगों को ईसाइयत की तरफ खींचने में सफल रहे।
आगरा की एक खस्ताहाल बस्ती। 18 दिसंबर को यहां छोटे से हवन कुंड में घर वापसी की एक सामूहिक आहुति क्या पड़ी दिल्ली में सेकुलर दुकान ताने बैठे लोगों के तम्बू-कनात में आग ही लग गई। अमन और गंगा-जमुनी जुमलों के नकाब उतर गए। शांति के सफेद चोगों की बाजुएं चढ़ने लगीं। टीवी चैनलों पर बहस छिड़ी थी। घर वापसी को कन्वर्जन रटते सेकुलर समझदारों का निशाना था विश्व हिन्दू परिषद् और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ। लेकिन अब मीडिया को घर वापसी और कन्वर्जन का फर्क दिल्ली के आर्चबिशप अनिल काउतो से पूछना चाहिए, जिन्होंने घोषणा की है कि यदि 'एंटी कन्वर्जन लॉ' लाया जाता है तो वे उसका विरोध करेंगे। अब सब साफ है। घर वापसी के विरोधी कन्वर्जन के पक्षधर हैं और यही दोमुंहापन उनका असल चरित्र है। आगरा प्रकरण सेकुलर बिल्ला लगाकर समाज को बांटने में लगे लोगों के लिए धक्का है, चोट है। चीखने-चिल्लाने का बड़ा मौका है। लेकिन, सबसे बड़ी बात, यह एक घटना राष्ट्रांतरण में जुटी ताकतों के लिए उनकी सबसे बुरी आशंका की दस्तक है। यह घर वापसी नहीं, उनके शाश्वत डर की वापसी है-यदि यह देश अपनी पहचान, अपने आत्मगौरव के साथ खड़ा हो गया तो??
साझी पहचान, साझे पुरखे। देश पर हमला करने वाले शत्रुओं के बांटे भाइयों का फिर कंधे से कंधा मिलाकर साथ खड़ा होना…यह कल्पना भी कुछ लोगों को डराती है। सिहरन पैदा करती है। आर्चबिशप के अहाते में अफरातफरी है। तब्लीगी तैश में हैं। सेकुलर सन्नाटे में हैं। और जैसा कि होना ही था…वामपंथी वमन जारी है।
इस देश को अपने पूर्वज, अपनी परंपराएं याद आ गईं तो क्या होगा? गर्दन पर तलवार रखकर तैयार किए 'मजहबी रेवड़' अगर सदियों बाद अपने पुरखों की पहचान के लिए जागने लगे तो क्या होगा? बाबर-औरंगजेब जैसों का हत्यारा चेहरा, गुरुओं का बलिदान, अपनी मांओं का जौहर अगर उनके बेटों को याद आ गया तो क्या होगा? अगर यह देश अपनी मूल पहचान को समग्रता से समेट खड़ा होने लगा तो उन मजहबों का क्या होगा जो इंसान को ईसाई या मुसलमान बनाए बगैर चैन से बैठने को तैयार नहीं हैं।
इराक में आईएसआईएस द्वारा काफिरों के गले रेतने की घटनाएं हों या पूर्वोत्तर भारत में ईसाइयत द्वारा जनजातीय पंथ-परम्पराओं का गला घोंटना, फर्क क्या है? क्या यह बहुरंगी दुनिया को एक रंग में रंगने की मजहबी साजिश नहीं है? विश्व को क्या चाहिए, विविधता और सौहार्द की संस्कृति या विद्वेष की लपटें?
विश्व को जो चाहिए उसके संकेत आगरा की छोटी सी घटना में हैं। इस हवनकुंड में वहाबी कट्टरता को 'स्वाहा' करने की शक्ति है। वनवासियों को भरमाने वाले चर्च के कुचक्र को तोड़ने का दम है। घर वापसी करने वाले मुस्लिम हों या ईसाई, इन घटनाओं का स्वागत इसलिए होना चाहिए कि समझदार होती दुनिया में लोग संकीर्णता छोड़ने का साहस दिखा रहे हैं। यह संकीर्णता ईश्वर और उसके रूप की बजाय उस सोच से ज्यादा जुड़ी है जो मनुष्य-मनुष्य में भेद करती है और 'एक किताब' के बाहर देखने को तैयार नहीं। आगरा में लोग अपनी बदली गई पहचान त्यागकर उस परंपरा में लौटे हैं जहां इंसान के लिए किसी पंथ को मानने या माने बगैर भी जिंदा रहने का अधिकार है, सम्मान के साथ समाज का हिस्सा बने रहने की गुंजाइश है।
आगरा की घटना अगर जिहाद और जन्नत के पैरोकारों को चुभी होगी तो उन लोगों को अच्छी भी लगी होगी जो खून-खराबे से परे खुद और अपने बच्चों के लिए चैन की जिंदगी चाहते हैं। चर्च और बिशप अगर बौखलाए हैं तो उन ईसाइयों को राहत की राह भी दिखी है जिन्हें वर्ग भेद के आधार पर फुसलाया गया लेकिन कभी पूरे मन से अपनाया नहीं गया। चर्च की ऊंची पदवियों को निहारते वंचित ईसाइयों और आज भी शेख के कदमों तले रौंदे जाते अंसारियों के लिए यह घटना निश्चित ही एक आशा की किरण भी है।
आर्थिक-सामाजिक हथकंडों से देश तोड़ते रहे लोगों के लिए यह बाजी पलटने जैसा है क्योंकि इस घटना ने उन सामाजिक-आर्थिक समीकरणों को सतह पर ला दिया जो आमतौर पर अनदेखे-अनजाने हैं। पहचान बदलने के बाद भी उपेक्षा का जीवन जी रहे इन लोगों का हिन्दू धर्म में लौटने का फैसला आर्थिक रूप से इसलिए हितकारी लग सकता है क्योंकि वंचित वर्ग यदि अपनी मूल पहचान वाली जाति में लौटता है तो वह उस जाति को मिलने वाले विशेषाधिकारों और सरकारी सहायता का पात्र होता है। सामाजिक तौर पर सबसे अच्छी बात यह है कि घर वापसी करने वालों को अपनी मूल पहचान मेंे लौटने के बाद स्वीकार्यता के संकेत मिले हैं। बहरहाल, ट्विटर पर कन्वर्जन की डुग्गी पीटते कीथ स्टीवंस सरीखों के लिए ईसाई बनाना अगर शह-मात का सीधा सा खेल है तो यह घटना उनके लिए 'मात' है। आखिर, प्रतिद्वंद्वी को भी खेलने का अधिकार है!
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