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स्वामी विनय चैतन्य
सेमेटिक मजहबों का प्रादुर्भाव यरूशलम से हुआ और ये तीन मत हैं. जो करणीय और अकरणीय की सीमारेखा खींचते हैं। इनमें सबसे पुराने यहूदी हैं। उन्हीं से भयानक खूनखराबे के बाद एक शाखा फूटी जो ईसाई कहलाई।
इसी का अरबी, युद्ध-प्रिय रूपांतरण इस्लाम कहलाया। ईसाई मत को छोड़ दें तो यहूदी और इस्लाम मजहबों का खुदा बहुत नृशंस, हिंसक, बलि प्रथा को चाहने वाला, रक्तप्रिय और कठोर है। ईसाई मत पर बौद्ध प्रभाव के कारण वह अधिक मानवीय और तुलनात्मक रूप से कम असभ्य है मगर अपने उत्स के कारण वह भी गलत-सही की अपनी ही परिभाषा करता है। उसके अनुयाइयों ने जैसे इस्लाम फैलाने वालों ने भी संसार भर में जघन्य हत्याकांड किये, खूनखराबा किया है। किसी व्यक्ति का मुसलमान, ईसाई और यहूदी होना कुछ विशेष कार्यों की कसौटी पर तय होता है। जैसे कोई व्यक्ति जो शूकर खाता है मुसलमान नहीं हो सकता। जिसका खतना नहीं हुआ वह यहूदी नहीं हो सकता। जो बाइबिल को ईश्वरीय पुस्तक नहीं मानता वह ईसाई नहीं हो सकता। मगर धर्मों के सन्दर्भ में ऐसा नहीं है। मैं ईश्वर को मानता हूं, उसके साकार रूप की उपासना करता हूं और हिन्दू हूं। आर्यसमाजी ईश्वर को निराकार मानते हैं, यज्ञ करते हैं और हिन्दू हैं। जैन केवल तीर्थंकरों और कर्मकांडों को मानते हैं फिर भी हिन्दू हैं। बुद्ध इस प्रश्न को अनिर्वचनीय कहकर टाल गए। उनके अनुयायी बड़े पैमाने पर उनकी और बहुत से अन्य देवताओं की मूर्ति बनाते और पूजते हैं, उन्हीं के कुछ अनुयायी मूर्तिपूजा का विरोध करते हैं, मगर हिन्दू हैं। सिक्ख दस गुरुओं को मानते हैं। गुरुग्रन्थ साहब को प्रधानता देते हैं। सैद्धांतिक रूप से कर्मकांडों का विरोध करते हैं। इस्लाम के उत्पात से धर्मरक्षा के लिए योद्धा समूह बने हैं और हिन्दू हैं।
बाहर से देखने पर हिन्दू धर्म एक बहुत ढीला झोल-झाल सा ढांचा दिखाई पड़ता है. मगर इसका एक बड़ा लाभ यह है कि मेधा को विराट चिंतन के लिए आवश्यक स्वतंत्र वातावरण मिल जाता है। यह अकारण नहीं है कि इस्लाम के प्रादुर्भाव के बाद जिन-जिन देशों में ये मत फैला वे ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में तभी से बिलकुल कोरे हैं। ईसाई मत भी अपनी कट्टरता के अर्थ में ढेर हो चुका है। जबसे उसने अपने मूढ़पन को छोड़ा उसकी उन्नति हुई है।
यहूदी मत वाले चूंकि धर्मान्तरण नहीं करते तो उनके उत्पात अपने अंदर ही रहे। कुछ सदियों से ठुकते-पिटते रहने के कारण, कुछ…..साथी समाज के विकास के कारण उनकी कुरीतियां छूटती चली गयीं।
वर्तमान भारत बल्कि वृहत्तर भारत का प्रारम्भ से ही यह वैशिष्ट्य रहा कि उसकी ज्ञान संबंधी खोजों को किसी के प्रति जवाबदेही नहीं रखनी पड़ी। यही कारण रहा कि षड्दर्शन को खोजने वाले ऋषियों ने नास्तिकता को भी आस्तिकता के बराबर ही सम्मान दिया। नास्तिक चार्वाक भी आस्तिक ऋषि वशिष्ठ की तरह ऋषि ही कहलाये। लोग आश्चर्य करते हैं कि भारतभूमि पर ही ईश्वर के अवतार क्यों हुए और जंगली जीवन जीने और उसके प्रति आग्रही समाजों को पैगम्बर ही क्यों मिले? अगर मन में पूर्वाग्रह न हों तो इसे समझना कठिन नहीं है। यही उन्मुक्त प्रज्ञावान वातावरण था जिसके कारण केवल इस भूमि को ईश्वर के अवतरण का सम्मान मिला जबकि सेमेटिक मतावलम्बियों को केवल उसकी बातों को लाने वाले पैगम्बर मिले।
पैगम्बर अर्थात पैगाम लाने वाला, आप इसका स्वयं बिम्ब बना कर देख सकते हैं। जैसे छात्र वैसा मास्टर। इसी सदियों से चलते आये विराट ज्ञानवान चिंतन का परिणाम गीता है। वेदों, ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों के श्रेष्ठ अवगाहन और निचोड़ का नाम गीता है। गीता की तुलना किसी रेगिस्तान में मिले साफ, ठंडे मीठे पानी के स्रोत से की जा सकती है। गीता अपने पाठक, विश्वासी अथवा निंदक से किसी करणीय-अकरणीय की अपेक्षा नहीं करती।
सम्पूर्ण विश्व के सर्वश्रेष्ठ योद्धाओं के मध्य युद्ध प्रारम्भ होने से केवल कुछ पहले शुरू हुई बातचीत कब संसार के श्रेष्ठतम विचार-विमर्श में बदल गयी इसे पढ़ना-देखना आज भी आश्चर्य-चकित करता है। संसार के वरिष्ठतम विचारक इस ग्रन्थ के दीवाने रहे हैं। इस मीठे चश्मे के पानी ने सबकी प्यास बुझाई है। किसी अन्य मजहबी ग्रन्थ की तरह जो विश्वासी और अविश्वासी की सीमा-रेखा खींचकर मनुष्यों के आखेट आह्वान करता है की जगह गीता लोक में उत्तम व्यवहार से लेकर ईश्वर की प्राप्ति के सारे उपायों को घेरते हुए उस ज्ञान के बीज रूप को तैयार करती है। इसके कारण ही गीता आस्तिक-नास्तिक, विश्वासी-अविश्वासी, शांतिप्रिय-युद्धप्रिय, ऐश्वर्यप्रिय-त्यागी, सारे समूहों के लिए अपने भण्डार में कुछ न कुछ रखती है. गीता को केवल हिन्दुओं की पुस्तक मानना ही इसे संसार के प्रत्येक व्यक्ति का ग्रन्थ बना देता है चूंकि हिन्दू विश्वभर के हर विचार को स्वयं में समेटे हुए हैं। ऐसा अद्भुत ग्रन्थ मानवता की थाती है, इस पर संसार भर के प्रत्येक मनुष्य का अधिकार है।
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