|
विजय कुमार
पाठक अंग्रेजी शीर्षक के लिए क्षमा करें; पर पिछले दिनों मैंने एक खबर पढ़ी। कई लोग वायुयान, जलयान, रेल, कार, साइकिल आदि से या फिर पैदल ही दुनिया घूमते हैं; पर एक आदमी ने पीठ की दिशा में चलकर दुनिया घूमने का निश्चय किया। उसने इसे नाम दिया 'अराउंड दि वर्ल्ड, बैकवर्ड'। उस व्यक्ति की यात्रा कब पूरी होगी, पता नहीं; पर भारत में कई नेता और राजनीतिक दल लगातार इसी तरह चल रहे हैं। लगता है वे शीघ्र ही अपनी यात्रा पूरी कर इतिहास की वस्तु हो जाएंगे।
सर्वप्रथम देश की महान खानदानी पार्टी को लें। 'बैकवर्ड' चलने के मामले में इसकी गति कमाल है। पिछले चुनाव में वह सत्ता में थी; पर इस बार नेता विपक्ष की कुर्सी के भी लाले पड़े हैं। कुछ लोगों का मत है कि सन् 1900 से पंद्रह साल पहले एक विदेशी द्वारा स्थापित कांग्रेस की 'अंत्यक्रिया' सन् 2000 के पंद्रह साल बाद एक विदेशी के हाथों होना ही ठीक है। इससे इतिहास का एक महत्वपूर्ण चक्र पूरा होगा। मैडम सोनिया और राहुल बाबा इसी 'देशसेवा' में जुटे हैं। इसके लिए लोग उन्हें सदा याद रखेंगे।
अब मुलायम सिंह और उनकी घरेलू समाजवादी पार्टी की बात करें। कहते हैं कि चार समाजवादी मिलकर पांच दल बनाते हैं। समाजवाद का अर्थ ही है – मैं पहले, समाज बाद में। मुलायम सिंह के घर में भी उनके बेटे और भाई के दो दल हैं। अब उनकी छोटी पुत्रवधू भी अलग रास्ते पर है। खुदा खैर करे!
जहां तक 'बैकवर्ड' चलने की बात है, तो उन्होंने इसके सब रिकार्ड तोड़ दिये हैं। वे शान-शौकत में मायावती से कम थोड़े ही हैं! उन्होंने अपनी 75 वीं वर्षगांठ रामपुर में मनायी। इसके लिए इंग्लैंड से विशेष विक्टोरिया बग्घी मंगायी गयी। इस तमाशे पर हुए खर्च की बात न पूछेंं, वरना 'नवाब-ए-रामपुर' आजम खां नाराज हो जाएंगे; और उनकी नाराजगी मुलायम जी को बहुत भारी पड़ती है। हां, इतना जरूर है कि भारत में समाजवाद के पुरोधा आचार्य नरेन्द्र देव और डॉ़ राममनोहर लोहिया आज होते, तो वे अपने इस मानसपुत्र की बग्घी में घोड़ों की जगह स्वयं लग जाते। आखिर इसी तरह तो भारत से समाजवादी कलंक दूर होगा।
अपने जन्मदिन को राजसी अंदाज में मनाने वाली मायावती जी को कौन नहीं जानता? उनके मार्गदर्शक काशीराम जी ने शून्य से राजनीति शुरू की थी, सो हाथी पर सवार मायावती जी भी पिछले लोकसभा चुनाव में शून्य पर पहुंच गयी हैं। पीठ से पीठ लग जाने के बाद अब 'बैकवर्ड' होने की गुंजाइश ही कहां है?
उ़ प्ऱ से लगा हुआ बिहार है। किसी समय वहां लालू का जंगलराज था। फिर नीतीश कुमार ने सुशील मोदी के साथ मिलकर उसे साफ किया; पर अब नीतीश जी फिर उस जंगल में घुसने को कमर कस रहे हैं। वे इसमें घुसकर बाहर निकल पाएंगे या फिर स्थायी रूप से 'वनवासी' हो जाएंगे, यह भी अगले साल पता लग जाएगा।
ममता बनर्जी की बात न करना उनके साथ अन्याय होगा। किसी समय उन्होंने देशद्रोही वामपंथियों को बंगाल की खाड़ी में फेंकने का संकल्प लिया था; पर अब वे उन्हें फिर गले लगाने को तैयार हैं। 'सारदा चिटफंड घोटाले' में उनके कई खास साथी जेल की हवा खा रहे हैं। हो सकता है कि कल उनका नंबर भी आ जाए। ऐसे में वाममार्गी ही उनका सहारा बन सकते हैं। महाराष्ट्र में शरद पवार और उद्घव ठाकरे को चुनाव के एक महीने बाद भी पता नहीं कि वे सरकार के साथ हैं या विरोध में? यदि ऐसे ही चलता रहा, तो उनके लिए कोई 'बीच की श्रेणी' बनानी पड़ेगी।
दिल्ली में रहकर केजरी 'आआपा' को भूलने का पाप मैं नहीं करूंगा। उनकी झाड़ू मोदी ने छीन ली और मफलर का मौसम अभी आया नहीं। शपथ लेते समय तो उनके अधिकांश विधायक मैट्रो से आये थे; पर विधानसभा समाप्ति के फोटो सत्र में सब महंगी गाडि़यों से उतरते दिखे। लोगों का कहना है कि यदि सब आम आदमी ऐसे ही उन्नति करें, तो भारत फिर 'सोने की चिडि़या' बन जाएगा।
कल शाम पार्क में जब इस विषय पर चर्चा हुई, तो शर्मा जी भड़क गये। बोले – जिन मुद्दों पर तुम्हारे 'परिवार' के लोग बहुत बोलते थे, उन पर भी तो मोदी चुप हैं। इस 'बैकवर्डनैस' पर भी तो कुछ कहो।
मैंने कहा- शर्मा जी, थोड़ा धैर्य रखिये। इस सरकार के छह महीने के काम पर दुनिया भर के लोग कह रहे हैं-
जिस तरफ उनके कदम हैं बढ़ रहे
सब उसे ही रास्ता हैं कह रहे॥
टिप्पणियाँ