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बात ज्यादा पुरानी नहीं मगर उन दिनों की है जब न तो आजकल की तरह 'स्मार्ट क्लास रूम' थे और न ही विद्यार्थी गूगल गुरु के शरणागत। तख्ती की विदाई के बाद भी पहाड़े सुनाना प्राथमिक विद्यालय के छात्रों का ऐसा काम था जिसे टाला नहीं जा सकता था। पहाड़ा सुनाने में कोई छात्र कहीं अटका तो संटी चटकाने से पहले शिक्षक आमतौर पर चार सवाल समेटे एक मुहावरा पूरी कक्षा की तरफ उछालते थे-
'घोड़ा अड़ा क्यों? पान सड़ा क्यों?
रोटी जली क्यों? विद्या भूली क्यों?'
कक्षा तीन शब्दों के भीतर समवेत् स्वर में जवाब देती-
'फेरा नहीं था।'
फेरना यानी पुनर्भ्यास। फेरना माने दोहराना, चलाना, घुमाना। फेरना माने कर्म। यदि फेरा है तो आपको किसी शिक्षक की किसी संटी का डर नहीं और नहीं फेरा तो यह उम्मीद मत पालो कि तुम्हारे बदले पहाड़ा कोई और सुना देगा। गीता तब पढ़ी नहीं थी। कर्म सिद्धांत में तब सिद्धांत की समझ से ज्यादा संटी का डर था। लेकिन अब लगता है पहला सबक वही था। वैसे, हर व्यक्ति को कर्म के लिए प्रेरित करती और अपने-अपने काम के लिए जिम्मेदार ठहराती गीता में क्या अखिल विश्व के इकलौते शिक्षक की सी गूंज नहीं है?
कुरुक्षेत्र की कक्षा में भगवान श्रीकृष्ण शिक्षक हैं। वहां अर्जुन से जो कहा जा रहा है वह सिर्फ अर्जुन के लिए नहीं, पूरी कक्षा के लिए सच है। कक्षा के बाहर भी इस सत्य को कोई काट नहीं सकता क्योंकि कक्षा तो है ही ज्ञान प्राप्ति के लिए। ज्ञान की क्या काट, ज्ञान से किसी को क्या परहेज?
गीता ऐसा ही विशुद्ध ज्ञान है। खास बात यह कि इस ज्ञान-सिन्धु में कुछ भी ऐसा नहीं कि इसे सिर्फ हिन्दुओं या भारतीयों के लिए आरक्षित रखा जाए। अकर्मण्यता के खोल तोड़कर जिंदगी की लड़ाई में पूरी शक्ति से जूझना किसकी जरूरत नहीं?
मजदूर सोचता है, 'काम करूं तो दिहाड़ी बनेगी।'
मिल मालिक सोचता है- 'मशीन चलेगी तो मुनाफा मिलेगा।'
खिलाड़ी सोचता है-'मुकाबला करो या मरो का है।'
क्या कामगार, व्यापारी या खिलाडि़यों को धर्म के आधार पर बांटा जा सकता है? जिंदगी के सूत्र, इसके सबक साझे होते हैं। सबके लिए बराबर। गीता बैठे-ठाले का भजन नहीं है। बाइबिल या कुरान की तरह जीवन की आचार संहिता या रामायण की तरह पुरुषोत्तम, आदर्श जीवन का आख्यान भी गीता नहीं है। यह इन सबसे अलग है। किसी अन्य श्रद्धा ग्रंथ से इतर व्यावहारिक जीवन का सार गीता में है। जीवन के समर में कूद पड़ने की प्रेरणा है। चुनौतियों का सामने से, डटकर मुकाबला करने का आह्वान है। गीता का कर्म सिद्धांत हर मनुष्य के जीवन को गति देता है। यहां बात अर्जुन या हिन्दू की नहीं, मानवता की है। लेकिन सेमेटिक पंथों, सेकुलर-ग्रंथि से पीडि़तों का क्या कीजै! वहां तो सब समान हो ही नहीं सकते। पहला काफिर को इंसान मानने के लिए तैयार नहीं तो दूसरे की दुकान ही अल्पसंख्यक की पैरोकारी कर उसे बहुसंख्यक से लड़ाने पर चलती है!
सो, गीता कुछ लोगों को खटकती है। अगर सब समान हैं तो दुकान कैसे चलेगी?
बहरहाल, एक सवाल खुद से पूछिए-क्या मास्टर जी की बात सिर्फ उस बच्चे के काम की है जिसका स्कूल में नाम लिखा है, बाहर वाले बच्चे क्या इससे बहक जाएंगे? यह सवाल उनसे पूछिए जो इस तरह के सवाल उठाते हैं।
गीता के स्वाध्याय और उस पर चिंतन का अपना आनंद है, क्योंकि आत्मा सर्वव्यापी है, नित्य है। (देखें, पृ.16)। और नित्य आत्मा के रहते, अनित्य शरीर को कर्म में रत रखना होगा, शेष सब चिंता छोड़कर। (देखें, पृ.18)
'कर्मण्येवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन…' हर इंसान के लिए यह जिंदगी का पहाड़ा है। याद करना, न करना अपनी-अपनी मर्जी।
हितेश शंकर सम्पादक
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