समसामयिक:आरिब की अक्ल और इस्लाम का पत्थर
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समसामयिक:आरिब की अक्ल और इस्लाम का पत्थर

by
Dec 6, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 06 Dec 2014 15:03:24

तुफैल चतुर्वेदी
इसी साल 23 मई को आरिब अपने तीन दोस्तों अमन, फहद और साहिम के साथ आतंकी संगठन आई़ एस़ आई़ एस़ में शामिल होने के लिए मुंबई से फरार हो गया था। अभी पिछले दिनों ये लड़का वहां के आई़ एस़ आई़ एस. के लड़ाकों द्वारा अपने यौन-शोषण से तंग आ कर भारत वापस लौट आया है। मैं निजी रूप से इन लड़कों को नहीं जानता मगर शर्त लगा सकता हूं कि ये लड़के या तो किसी देवबंदी मदरसे के पढ़े हुए होंगे या इनके घर पर कोई देवबंदी मुल्ला कुरआन पढ़ाने आता रहा होगा अथवा ये किसी तब्लीगी समूह का सक्रिय हिस्सा होंगे। यहां इन लड़कों से यह प्रश्न पूछा जा सकता है कि 'तुम लोग गाजी बनने के लिए इतना सा भी कष्ट नहीं उठा सके', जबकि इन तब्लीगियों के प्रिय पात्र बुतशिकन महमूद गजनवी का सेनापति और प्यारा गुलाम अयाज तो बाकायदा इस गुण को अपने जीवन का हिस्सा बनाये हुए था। प्रमाण के रूप में इन्हीं के दूसरे प्रिय पात्र शायर अल्लामा इकबाल की पंक्ति प्रस्तुत है- 'न वो गजनवी में तड़प रही न वो खम है जुल्फे-अयाज में'। किसी भारतीय का भारत से बाहर के ऐसे युद्घ में लड़ने के लिए जाना, जिस संघर्ष से उसका दूर-दूर का वास्ता भी नहीं, अकारण नहीं हो सकता। ये तभी संभव है जब कि उन लड़कों की राष्ट्रीयता में खोट हो। बंधुओ, ये कोई नई बात नहीं है। बोस्निया और हर्जेगोविना, जिनकी चर्चा पिछले दशक में इस्लामी उत्पात के सन्दर्भ में बहुत हुई थी, को लेकर अक्तूबर 1912 से मई 1913 तक पहला बाल्कन युद्घ हुआ था। इस युद्घ के कारण ही भारत में गांधी जी की कांग्रेस और मुस्लिम लीग के सामूहिक नेतृत्व में 1919 से 1924 तक खिलाफत आंदोलन चला। इसी खिलाफत आंदोलन ने भारत के मुसलमानों को भयानक कट्टर बनाया। इसी खिलाफत आंदोलन ने देश के विभाजन की नींव रखी। इस बाल्कन युद्घ पर कांग्रेस और मुस्लिम लीग, दोनों के नेता हसरत मोहानी की प्रसिद्घ नज्म की प्रारंभिक पंक्ति ही 'जान देने का मजा लेना है तो बाल्कन चल' है। ये पंक्ति गांधी जी की खिलाफत आंदोलन में सहभागिता बल्कि नेतृत्व करने के कारण उनके सामने ही गायी जाती थी।
इन चार लड़कों या कुछ सूत्रों के अनुसार, आईएसआईएस ने अल-हिंदी समूह ही बना रखा है, जिसके 100-50 लड़कों का इस युद्घ में भाग लेना पहली दृष्टि में कोई बड़ी बात नहीं लगती मगर ये एक विराट ज्वालामुखी से निकलती हुई बहुत छोटी सी धुएं की लकीर है। यहां उपयुक्त होगा कि राज्य, देश और राष्ट्र संज्ञाओं पर विचार किया जाये। राज्य से अभिप्राय शासन प्रणाली से है। देश उस राज्य द्वारा शासित भू-भाग को कहते हैं और राष्ट्र देश में निवास करने वाली प्रजा को कहते हैं। कई बार राष्ट्र के पास देश नहीं भी होता। यहूदी राष्ट्र के पास सैकड़ों वषोंर् तक कोई देश नहीं था। दूसरे विश्व युद्घ के बाद उन्हें इस्रायल नाम का देश उपलब्ध हुआ। दूसरे विश्व युद्घ के बाद अमरीका और रूस ने जर्मन राष्ट्र को पूर्वी जर्मनी और पश्चिमी जर्मनी दो देशों में बांट दिया था। चेकोस्लोवाकिया देश में चेक और स्लाव नाम के दो राष्ट्र समूह थे और अब ये देश इन्हीं के कारण दो हिस्सों में बंट गया है। किसी भी देश में दो समूह प्रमुख रूप से होते हैं। पहले हैं देशभक्त जो देश में बहुसंख्यक होते हैं, दूसरे हैं देशद्रोही जो बहुधा अल्पसंख्यक होते हैं। इनका अनुपात गड़बड़ाते ही देश टूट जाते हैं। प्रत्येक राज्य का उसके प्राथमिक कायोंर् में से एक होता है देश की सुरक्षा जिसके लिए राज्यव्यवस्था देश में देशद्रोहियों की संख्या कम करने और उन्हें निर्मूल करने का कार्य निरंतर करती रहती है और उसे ये करते रहना ही चाहिए। विगत कुछ शताब्दियों से ये स्पष्ट देखने में आने लगा था और पिछली शताब्दी से तो दिन के उजाले की तरह विश्व भर को समझ में आने लगा है कि बहुत से देशों में एक तीसरा वर्ग प्रमुखता से उभर रहा है। देशभक्त और देशद्रोही वर्ग से अलग ये समूह अराष्ट्रीय है। इसे देशद्रोही नहीं कहा जा सकता चूंकि ये देश को अपना नहीं मानता। ये समूह बल्कि समाज किसी भी देश में अपने आर्थिक, सामाजिक हितों के कारण निवास करता है और उस देश के हित-अहित से उसका तब तक ही लेना-देना है जब तक उसके निजी हित प्रभावित न होने लगें। आप सही समझ रहे हैं, बात इस्लाम की हो रही है। यहां निवेदन करता चलूं, कृपया इस्लाम और मुसलमानों को मिलाइये मत। बात स्पष्ट करने के लिए का एक उदाहरण ठीक रहेगा। परमवीर चक्र विजेता अब्दुल हमीद भारतीय सेना के एक सैनिक थे जो मुसलमान थे। वे इस्लाम के सैनिक बिल्कुल भी नहीं थे।
इस अराष्ट्रीय वर्ग से निबटने के लिए फ्रांस, ब्रिटेन, जर्मनी, आस्ट्रेलिया इत्यादि देश तो कानून बना रहे हैं, मगर इस समस्या से सबसे अधिक प्रभावित देश यानी भारत और इसके राष्ट्र अर्थात हम हिंदू बिल्कुल चैन से बैठे हैं। इस बात की अवहेलना करने के कारण ही हमारे मूल देश का लगभग 2.5 हिस्सा देश से अलग हो चुका है और शेष पर भी संकट के बादल मंडरा रहे हैं। आइये, इस समस्या पर प्रारम्भ से विचार किया जाये।
मुस्लिम काल का सारा इतिहास मुस्लिम लेखकों द्वारा ही लिखित है, जिसमें मुस्लिम बादशाहों, सुल्तानों, सेनापतियों के काफिरों पर विजयों, उनकी जघन्य हत्याओं, भयानक बलात्कारों के असंख्य गर्वपूर्ण वर्णन मिलते हैं। जहांगीर का समकालीन इतिहासकार इश्तियाक हुसैन कुरैशी लिखता है कि बहुत से मुस्लिम सैनिकों के पास 1000 तक हिन्दू दास हो गए हैं। मेरी बात पर सेकुलर तथा वामपंथी कांय-कांय करने लगेंगे अत: मध्यकाल के तीन संत कवियों की काव्य पंक्तियों का उल्लेख उपयुक्त रहेगा। हुमायूं और अकबर के समकालीन वल्लभाचार्य अपने ग्रन्थ कृष्णाश्रय में लिखते हैं-'म्लेच्छाक्रान्तेषु देशेषु पापनिलयेषु च' अर्थात देश म्लेच्छों से आक्रांत हो कर पाप का घर बन गया है। महाकवि सूरदास के एक पद की प्रारंभिक पंक्ति ही 'का तुम मांगत जकात' है। गोस्वामी तुलसीदास जी कवितावली-उत्तरकाण्ड में कहते हैं।
खेती न किसान को, भिखारी को न भीख बलि
बनिक को न बनिज न चाकर को चाकरी
जीविकाविहीन सीद्यमान लोक सोच बस
कहैं एक एकन सों कहां जाएं का करी
ये पंक्तियां मुस्लिमकाल में सबसे अधिक देर तक चले शासक वंश मुगल-काल के संत कवियों की हैं। जिस वंश को लगातार शासन करना है वह गुलाम बनाने जैसे अमानवीय कार्य, बर्बर नरसंहार, भयानक बलात्कार तब तक नहीं कर सकता जब तक वह स्थानीय निवासियों के प्रति घोर घृणा के भाव से भरा हुआ न हो। और यही सच है। इस्लाम एक शुद्ध अराष्ट्रीय विचारधारा है जो अपने मूल स्वरूप में विश्व को अपने अनुसार बना लेने की कल्पना से ओतप्रोत है। अपने सिवा सभी को काफिर, वाजिबुल-कत्ल (वध के योग्य) मानती है। जहां-जहां उसका बस चला है, ऐसा ही करती रही है। अब भी विश्व भर में वह यही करना चाहती है। बंधुओ, ये विचारधारा की लड़ाई है। हर अराष्ट्रीय विचार से टकराना राष्ट्रवाद की अवश्यम्भावी नियति है।
अच्छा है इस धूल उठाती आंधी को शुरू में ही दबा दिया जाये और बवंडर न बनने दिया जाये। इसके लिए इस विचारधारा के अड्डों यानी मदरसों को तुरंत सीधे केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय के अधीन लाया जाना चाहिए। इनका पाठ्यक्रम बदला जाना आवश्यक है। इस विचारधारा के उपकरण, मुल्ला समूहों पर राज्य और समाज की चौकन्नी आंखों की निगरानी रहनी चाहिए। समाज यानी मैं और आप अपने मुसलमान मित्रों से इस विषय पर तर्क नहीं करेंगे, उन तक तथ्य नहीं पहुंचाएंगे, इस कूड़मगज बौड़मपन को चुनौती नहीं देंगे तो बदलाव कैसे आयेगा? आखिर आपके सभी मुसलमान मित्र भी देख रहे होंगे कि वहाबियत के प्रसार के लिए अकूत धन देने वाले कतर और सऊदी अरब एक भाषा बोलते हैं। उनका बिल्कुल एक खान-पान। एक मजहब, इस्लाम है मगर वे इस इस्लामी खिलाफत में अपने देशों को समर्पित नहीं कर रहे। उस क्षेत्र में अनेक देशों की ऐसी ही स्थिति है मगर कोई भी खलीफा को अपना राज्य, देश नहीं सौंप रहा। तो भारत के इन मूखोंर् को ही क्या आग लगी हुई है। सैन्य योजनाकारों के लिए दो कदम आगे बढ़ना, फिर तीन कदम पीछे हटना, फिर चार कदम आगे बढ़ना सामान्य रणनीति का हिस्सा होता है। मगर विचारधारा की लड़ाई जीती ही तभी जा सकती है जब आप लगातार तार्किक प्रहार करते हुए प्रतिपक्षी को ध्वस्त कर दें। इस द्वंद्व में एक कदम भी पीछे हटना पराजय की ओर ले जा सकता है। इस जंग में किसी भी तरह वॉकओवर दिया जाना संभव नहीं है।
चलते-चलते एक सवाल आरिब, अमन, फहद, साहिम और उस जैसे मूखोंर् से-क्या 'दमादम मस्त कलन्दऱ.़.अली दा पहला नंबर' के बाद ही अक्ल आएगी? ल्ल

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