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जीवन में ऐसी अनेक घटनाएं घटती हैं, जो दिलोदिमाग पर अपनी अमिट छाप छोड़कर इतिहास का पन्ना बन जाती हैं। 1914 में कामागाटामारू जहाज की भारत से कनाडा की ऐतिहासिक यात्रा भी इतिहास की एक ही दिलचस्प और रोमांचित कर देने वाली कहानी है। यह ऐसी घटना है जिसे हर भारतीय बार-बार पढ़ना चाहेगा और उस समय के भारतीयों की त्रासदी की पीड़ा को महसूस कर सकेगा।
देश उस समय अंग्रेजों का गुलाम था और भारतवासियों को हीन दृष्टि से देखा जाता था। कनाडा में अनेक बाहरी लोगों को बसने के लिए प्रोत्साहित किया जाता था। कनाडा की सरकार विभिन्न तरीकों से भारतीयों को परेशान करती थी। उसने भारतीयों के अपने यहां प्रवेश पर भी प्रतिबंध लगा दिया था। 8 जनवरी, 1908 को 'ऑर्डर इन कांउसिल' के तहत वहां की सरकार ने एक ऐसा अप्रवासी कानून बनाया जिसके अनुसार केवल वही भारतीय कनाडा में प्रवेश कर सकता था, जो भारत से सीधे कनाडा आया हो। कनाडा सरकार का यह अप्रवासी कानून अत्यधिक सख्त था क्योंकि उन दिनों ऐसी कोई नौपरिवहन व्यवस्था नहीं थी, जो इस प्रकार किसी क ो जलमार्ग द्वारा भारत से सीधे कनाडा पहंुचा सकती हो।
कनाडा जाने के लिए उन दिनों म्यंामार (बर्मा), हांगकांग, शंघाई और जापान के तटीय जलमार्गों से भारतीय जहाजों को गुजरना पड़ता था। लेकिन नवम्बर 1913 में कनाडा के सर्वोच्च न्यायालय ने 35 ऐसे भारतीयों को कनाडा में प्रवेश करने की अनुमति दे दी, जो सीधे और लगातार यात्रा करके कनाडा नहीं पहंुचे थे। इससे उत्साहित होकर सिंगापुर में ठेकेदारी का काम कर रहे एक भारतीय सिख बाबा गुरदीत सिंह संधु ने जापान से कामागाटामारू नामक एक जहाज किराये पर लिया और भारत तथा दक्षिण पूर्व एशिया में रह रहे ऐसे लोगों को कनाडा ले जाने का फैसला किया, जो वहां जाने के इच्छुक थे। बाबा गुरदीत ने जनवरी, 1914 को कामागाटामारू जहाज जापान से किराये पर लिया। उनकी योजना मार्च माह में यात्रा शुरू करने की थी, लेकिन उन पर गैरकानूनी ढंग से टिकट बेचने का आरोप लगा और उन्हें हांगकांग प्रशासन ने गिरफ्तार कर लिया। अन्तत: 3 अप्रैल,1914 को हांगकांग बंदरगाह से कामागाटामारू की यात्रा शुरू हुई। उस समय जहाज में 165 यात्री सवार थे। 8 अप्रैल को शंघाई से यात्रा शुरू करने से पहले इसमें और भी यात्री सवार हो गए। 14 अप्रैल को जहाज जापान के योकोहामा बंदरगाह पहुंच गया। 3 मई, 1914 को जब कामागाटामारू ने योकोहामा से अपनी ऐतिहासिक यात्रा शुरू की तब तक इसमें 376 यात्री सवार हो चुके थे। इनमें 340 सिख, 24 मुस्लिम और 12 हिन्दू थे। योकोहामा में गदर क्रांतिकारी इन यात्रियों से मिले। उन्होंने उत्तेजक भाषण दिए और यात्रियों के बीच भारत की स्वाधीनता संबंधी पर्चे वितरित किए। उसी समय पंजाब प्रेस ने भी चेतावनी जारी की कि यदि इन भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति नहीं मिली तो उसके गंभीर परिणाम होंगे। ऐसी चेतावनी की प्रतिक्रिया पर बैंकुवर के अखबार चुप नहीं बैठे और उन्होंने इसे कनाडा में अतिक्रमण की संज्ञा प्रदान की। इसी बीच कनाडा सरकार ने एक काम और कर दिया कि उसने अपने उस अप्रवासी कानून की उन कमियों को दूर कर लिया जिसके तहत वहां के न्यायालय ने पहले 1913 में 35 भारतीयों को कनाडा में प्रवेश की अनुमति दे दी थी। इस प्रकार कामागाटामारू के यात्रियों के साथ कनाडा सरकार ने संघर्ष की रूपरेखा अच्छी प्रकार से तैयार कर ली थी।
कामागाटामारू जब 23 मई, 1914 को बैंकुवर (कनाडा) पहंुचा तो इसे बंदरगाह से दूर ही रोक दिया गया और कनाडा पुलिस ने जहाज की घेराबंदी कर ली। इससे यात्रियों का परेशान होना तय था। लंबी यात्रा, थकान और अनिश्चितता की वजह से उनमें रोष व्याप्त हो गया, लेकिन कनाडा की सरकार ने एक भी यात्री को जहाज से उतरने की अनुमति नहीं दी। कनाडा सरकार के प्रवासी अधिकारी फ्रैड साइक्लोन टेलर ने कामागाटामारू के यात्रियों का जमकर विरोध किया। वहां के सांसद एच. एच. स्टीवेन्स ने सार्वजनिक सभाएं आयोजित कर कामागाटामारू के बैकुंवर पहंुचने पर इसे कनाडा में अतिक्रमण करार दिया। उन्होंने कनाडा के तत्कालीन प्रधानमंत्री सर रॉबर्ट बोरडेन से अपनी शिकायत में कामागाटामारू के यात्रियों को किसी भी सूरत में कनाडा में प्रवेश की अनुमति न देने को कहा। इन्होंने उन भारतीयों के खिलाफ भी आवाज बुलंद की, जो कि कनाडा में रह रहे थे या जहाज पर सवार यात्रियों के पक्ष में बोल रह थे। बैकुंवर गुरुद्वारा के मुख्य ग्रंथी बलवंत सिंह और बरकतउल्ला यात्रियों के पक्ष में आवाज उठाने वालों में अग्रणी थे। यात्रियांे के अधिकारों के लिए लड़ने के लिए गदर पार्टी के हुसैन रहीम, सोहनलाल पाठक और बलवंत सिंह ने एक 'शोर कमेटी' बनाई। इसके माध्यम से उन्होंने यात्रियों की सहायता के लिए चंदा इकट्ठा किया क्योंकि यात्रियों की हालत दिन-प्रतिदिन बदतर होती जा रही थी। शोर कमेटी ने कनाडा सरकार के खिलाफ विरोध सभाएं भी करनी शुरू कर दीं। यही नहीं गदर पार्टी के नेताओं ने भारत में अंग्रेजी सरकार के खिलाफ बगावत की धमकी तक दे डाली। अमरीका में रह रहे गदर पार्टी के कार्यकर्ताओं-भगवान सिंह, बरकतउल्ला, रामचन्द्र और सोहन सिंह के नेतृत्व में प्रभावी आंदोलन छेड़ा गया और भारतीयों से विद्रोह के लिए तैयार रहने के लिए कहा गया। 6 जुलाई, 1914 को कनाडा के न्यायालय ने अपने आदेश में कामागाटामारू के बैकुंवर पहंुचने को अवैधानिक बताया और इसके वापसी का आदेश दे दिया। लेकिन क्रोधित यात्रियों ने जापानी कप्तान को ही मुक्त कर दिया और वापस लौटने से मना कर दिया। इससे यात्रियों और पुलिस के बीच संघर्ष की स्थिति उत्पन्न हो गई। वहां के अखबार 'द सन' के अनुसार हिन्दू यात्रियों ने पुलिस पर ईंटों और कोयले के ढेलों से हमला कर दिया। 24 यात्रियों को कनाडा में प्रवेश करने की अनुमति देकर शेष 352 यात्रियों को वहां की रायल नेवी ने जबरन कामागाटामारू सहित 23 जुलाई, 1914 को वापस भेज दिया। ब्रिटिश सरकार ने इस जहाज के यात्रियों को अपने लिए खतरा समझा। जिस समय ये वापसी में जापान पहंुचे, तब तक प्रथम विश्व युद्ध शुरू हो चुका था। अंग्रेज सरकार ने आदेश पारित किया कि कामागाटामारु को सीधे कोलकाता लाया जाए। एक भी यात्री को बीच में न उतरने दिया जाए, वहां भी नहीं जहां से वे जहाज में सवार हुए थे। कामागाटामारु जिस-जिस बंदरगाह से होकर गुजरता, अंग्रेजी सरकार के खिलाफ भारतीयों के मन में प्रतिशोध की आग सुलगती थी।
29सितम्बर,1914 को यह जहाज कोलकाता के निकट बजबज पहंुचा, जहां तुरंत ही ब्रिटिश गनबोट ने उसे अपने कब्जे में ले लिया। पुलिस को देखकर गुस्साए और परेशान यात्रियों का गुस्सा और भड़क उठा। हद तो तब हो गई कि जब सभी यात्रियों को पंजाब जाने के लिए रेलगाड़ी में बैठने को कहा गया। ब्रिटिश सरकार को शक था कि यात्री गदर पार्टी से मिले हुए हैं और अंग्रेजी शासन के लिए खतरा हंै। 60 यात्री तो आदेश मानने के लिए तैयार हो गए थे, लेकिन बाकी यात्रियों ने ऐसा करने से मना कर दिया और संघर्ष करने के लिए तैयार हो गए। ब्रिटिश सरकार ने उन यात्रियों की मनोस्थिति का जरा सा भी ख्याल न रखा। उसके सैनिकों ने गोली चला दी जिससे 19 यात्री मारे गए। 202 यात्रियों को कारागार में डाल दिया गया और शेष भाग गए। भागने वालों में गुरदीत सिंह भी शामिल थे। वह 1922 तक पुलिस की पकड़ मंे नहीं आए। 1922 में महात्मा गांधी के कहने पर उन्होंने स्वयं को पुलिस के सुपुर्द कर दिया। उन पर मुकदमा चला और पांच साल की सजा सुनाई गई। कामागाटामारू प्रकरण ने ब्रिटिश सरकार की निरंकुश नीति, अन्यायपूर्ण आचरण, अमानुष व्यवहार और हठधर्मिता की पोल खोल दी। दुनिया भर में इस प्रकरण को लेकर कनाडा और ब्रिटिश सरकार की कड़ी आलोचना हुई। इस घटना में मारे गए लोगों की याद में 1951 में भारत सरकार ने बजबज में एक स्मारक बनवाया। 23 जुलाई, 1989 को इस घटना के 75 वर्ष पूरे होने पर सिख गुरुद्वारा बैकुंवर में भी स्मारक बनवाया गया। कामागाटामारू प्रकरण का अध्ययन भारतीय इतिहास के विद्यार्थियों द्वारा बड़े कौतुहल के साथ किया जाता है। इस घटना ने भारतीयों को स्वतंत्रता के लिए अधिक प्रेरित कर दिया था। -कुमुद कुमार
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