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प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने लोकसभा में भारतीयों की बारह सौ साल की गुलामी की मानसिकता का जिक्र किया है। जे़ एऩ यू. के वामपंथी ढपोरशंखों, ए. सी. कमरों में बैठे झूठे सेकुलरों ने इसे संघ परिवार की पुख्ता विचारधारा का प्रहार अरब मुल्कों से आई उस इस्लामी सभ्यता पर माना है, जिसका एक तबका, उनके अनुसार, देश का हिस्सा बन चुका है। इतिहास की रौशनी में बात करें तो भारत पर हूणों, शकों, कुषाणों, यवनों, अरबों, ईरानियों, तुकोंर्, मंगोलों के प्रमुख हमले हुए हैं। सारे ही हमले अभी तक इतिहास में पढ़ाये जाते हैं। इनमें से कौन से हमले इतिहास से बाहर हो गए? फिर इस्लाम के सन्दर्भ में ही देश का हिस्सा बनने से क्या अभिप्राय है?
आज कोई भी व्यक्ति हूणों, शकों, कुषाणों का भारत में अस्तित्व ढूंढना चाहे तो यह संभव नहीं है। भारतीयता की वेगवती गंगा ने बाहर से आये पानी के इस रेले को कब का अपना लिया और वह पानी अब गंगा से अलग नहीं ढूंढा जा सकता। यवनों के हमले भारत की धुर पश्चिमी सीमा ईरान से लगते क्षेत्र से शुरू हो कर मथुरा तक हुए थे। माना जाता है कि मथुरा के चतुर्वेदी समाज में यवन रक्त है। अतिरिक्त गोरा रंग, नीली आंखें, धारदार तीखी नाक, जिसे आज भी यूनानी नाक कहा जाता है, इत्यादि गुण उन्हें यूनानी मूल से प्राप्त हुए हैं। मगर मथुरा के चतुर्वेदियों में यवन रक्त नहीं ढूंढा जा सकता, न ही वे अपना उत्स यूनानियों में ढूंढने में उत्सुक हैं। मंगोल दिल्ली के मुस्लिम सुल्तानों की लूट-मार, ठुकाई-पिटाई करके हमलों के साथ ही साथ वापस चले गए थे।
किन्तु अरबों, ईरानियों, तुकोंर् को आज भी भारत में पहचाना जा सकता है। उनकी भाषा में आज भी अरबी, फारसी, तुर्की के शब्दों की भरमार है। उनका पहनावा आज भी सीमा पार अपने स्रोत ढूंढता है। मुसलमानी जुलूसों में आज भी घोड़े पर सवार चार-छह लोगों को अरबी कपडे़ पहने उसका नेतृत्व करते पाया जाता है। जुलूस के आगे-आगे तलवार लिए ये लोग स्वयं को 'काफिरों को कत्ल करती हुई ऐतिहासिक गाजी मन:स्थिति' में होते हैं। जुलूस में लगने वाले नारे 'नारा ए तकबीर-अल्लाहो अकबर', 'देखो हमारे नबी की शान-बच्चा बच्चा है कुर्बान', 'देखो हमारे अली की शान-बच्चा बच्चा है कुर्बान', भी इसी बात का ढिंढोरा पीटते हैं कि हमारा इतिहास यहां का नहीं। हम आज भी नबी, अली और न जाने किन-किन से मानसिक, आत्मिक रूप से जुड़े हुए हैं.़.तो इन वामपंथी ढपोरशंखों, झूठे सेकुलरों का इस्लामी सभ्यता के देश का हिस्सा बन जाने से क्या अभिप्राय है?
क्या देश पर हमला करने के बाद हमें लूट कर वापस चले जाने वाले ही आक्रमणकारी कहलायेंगे और देश में रह कर ही लूट की सदियों व्यवस्था करने वाले देशवासी कहलायेंगे? जिस जघन्य आपराधिक व्यवस्था ने हमारे प्रत्येक महत्वपूर्ण मंदिर को तोड़ा, जिस व्यवस्था ने हमारे माथे दाग कर हमें गुलाम बनाने का महापराध किया, जिस घृणित व्यवस्था ने हमारे लाखों लोग गुलाम बना कर मध्य एशिया के बाजारों में बेच दिए, उसे देश का हिस्सा बन चुका माना जायेगा? और ऐसा तर्क, तथ्य दिए बिना केवल मनमर्जी ठूंसठांस के बल पर होगा?
कोई मूढ़ से मूढ़ व्यक्ति भी क्या इस्रायल में हिटलर के नाम की सड़क, जैसे हिटलर मार्ग, हिटलर भवन या हिटलर के नाम के डाक टिकट की कल्पना कर सकता है? पूरी छूट लीजिये। किसी वज्र मूर्ख, परले सिरे के बुद्घू, यहां तक कि शहजादे की भी कल्पना कीजिये और उनकी ओर से उत्तर दीजिये। निश्चित रूप से महान बौड़म भी ऐसी कल्पना नहीं कर सकता। अब दिल्ली में राजपथ के दाएं-बाएं केवल पंद्रह मिनिट के लिए सड़कों पर निकलिए। आप बाबर रोड, हुमायूं रोड, अकबर रोड, शाहजहां रोड, औरंगजेब रोड पाएंगे। मैं इन वामपंथी ढपोरशंखों, झूठे सेकुलरों से इस बारे में प्रश्न करता हूं तो वे कहते हैं कि मुसलमान स्वयं को अल्पसंख्यक,उपेक्षित, दमित न मानें इसके लिए ये मानसिक उपचार है।
मेरे जानकारी के अनुसार भारतीय महाद्वीप में मुसलमान कभी भी बहुसंख्यक नहीं रहे। हमारे सारे गुलाम हिस्से जोड़ कर उनकी जनसंख्या की तुलना की जाये तो भी आज तक मुसलमान बहुसंख्यक नहीं हुए हैं। इस्लाम जब बहुसंख्यक रहा ही नहीं तो अल्पसंख्यक होने का रोना कैसा और उसके उपचार की क्या आवश्यकता? हां, इसमें एक पेंच है। अब इस्लामी ताकत सत्तासीन नहीं है और वे हमें गुलाम बना कर बेचने, हमारे मंदिर तोड़ने, हमारी स्त्रियों से बलात्कार करने, हमारे माथे दागने और हमसे जजिया वसूलने की स्थिति में नहीं हैं। यह वह ग्रंथि है जिसके उपचार की बात दबा-छुपाकर की जाती है। क्या इस ग्रंथि का ऐसा इलाज, जिससे ये और बढे़, कोई देशभक्त सोच सकता है? देश का पैंतीस प्रतिशत हिस्सा गुलाम बन चुका है, शेष को बनाने की जोर-शोर से तैयारी चल रही है। संसार भर से इस काम के लिए धन आ रहा है। जनसंख्या में परिवर्तन, मतांतरण, आतंरिक सुरक्षा पर संकट खड़े किया जाना। ़हर तरह से भारत को खंड-खंड करने का काम चल रहा है। यहां एक गंभीर प्रश्न मेरे मन में बार-बार उठता है। हम भारतवासी राष्ट्रीयता को कब परिभाषित करेंगे? किसी भी वस्तु, विचार, भाव की स्पष्ट परिभाषा न होने से उसका बिम्ब नहीं बनता। ऐसा न होने से उसके नियम, करणीय और अकरणीय, नहीं तय होते। उसके प्रति लगाव उत्पन्न नहीं होता। यह अकारण नहीं है कि सेना में सैनिकों की कमी है। यह अकारण नहीं है कि भारत के श्रेष्ठतम वैज्ञानिक, इंजीनियर, डाक्टर विदेश जाते रहे हैं। यह अकारण नहीं है कि देश का धन विदेशी बैंकों में छुपा कर रखा गया है। यह रोग का लक्षण मात्र है और इसका कारण देशवासियों का राष्ट्र के प्रति निष्ठा कम होते जाना है।
एक उदाहरण से बात और स्पष्ट हो जाएगी। अंग्रेजी के स्वनामधन्य लेखक खुशवंत सिंह, जो हिजड़े से इश्क और न जाने कौन-कौन सी अश्लील-बेहूदा कहानियां लिखने के कारण चर्चित थे, ने दिल्ली के आस-पास बसे गूजरों और जाटों को स्वाभाविक 'लुटेरी जाति' लिखा था और कहा था कि इन जातियों के लोग मुगलों को भी लूट-मार से तंग करते रहते थे। उन्हें ऐसा लिखते हुए यह ध्यान नहीं आया कि दिल्ली मुगलों की नहीं है और वे इसके स्वाभाविक उत्तराधिकारी नहीं थे।
इस बौड़म सोच का कारण ही यह है कि खुशवंत सिंह की राष्ट्रीयता की सोच गड़बड़ थी। खुशवंत सिंह ठेकेदार सोभा सिंह के बेटे थे। उन्हीं सोभा सिंह ने वर्तमान राष्ट्रपति भवन, कनाट प्लेस, लुटियंस दिल्ली के लगभग सभी मुख्य भवन बनाये हैं। अंग्रेजों से उनको ये सारे ठेके मिलने का कारण ये था कि ठेकेदार सोभा सिंह की अकेली गवाही पर शहीद भगत सिंह, शहीद सुखदेव और शहीद राजगुरु को फांसी हुई थी। देश की पीठ में छुरा भोंकने वाले ठेकेदार सोभा सिंह केंद्रीय सत्ता के बगलगीर रहे। आज तो लोग भूल चुके हैं मगर उस समय के लोगों को पता था और उस काल के समाज ने इसे सहन किया।़ यदि समाज के लोग ठेकेदार सोभा सिंह से थू-थू करते, केवल सामान्य दैनंदिन व्यवहार ही बंद कर देते तो सदैव के लिए उदाहरण बन जाता।
भारत में मुस्लिम सत्ता के इतिहास को पढ़ाने के समय मुस्लिम राजवंशों को याद कराने के लिए शिक्षक एक सूत्र का प्रयोग करते हैं। गू खा तसले में। इस सूत्र का विस्तार गुलाम वंश, खिलजी वंश, तुगलक वंश, सैय्यद वंश, लोधी वंश और मुगल वंश होता है। मैं इन वामपंथी ढपोरशंखों, झूठे सेकुलरों को तसले के इस उपयोग का प्रस्ताव नहीं दे रहा हूं, मगर एक प्रश्न निश्चित रूप से पूछना चाहता हूं कि मेरे घर में किसी ने चोरी की तो वह चोर और किसी ने मेरे घर पर कब्जा कर लिया तो घर का मालिक? आक्रमणकारी राष्ट्र का हिस्सा कैसे और कब बने? क्या देश में रहने भर से किसी को भारतीय मान लिया जाना चाहिए? इस तर्क से तो विदेशी दूतावासों में काम करने वाले सारे विदेशी भारतीय हैं। नागरिकता ही पैमाना है तो देश में घुस आये सारे बंगलादेशी, जिन्होंने कबके राशन कार्ड, वोटर कार्ड, ड्राइविंग लाइसेंस बनवा लिए, भारतीय हैं। क्या यह अनर्गल प्रलाप पेट में भरी गैस को उपयुक्त मार्ग से बाहर निकालने की जगह मुंह से निकालना नहीं है? -तुफैल चतुर्वेदी
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