|
तुफैल चतुर्वेदी
नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की एक किताब से मेधा पाटकर पर लिखे पाठ को हटाये जाने को ले कर नई रुदाली फिल्म की शूटिंग शुरू हो गयी है। मृतप्राय वामपंथी, स्वयं को राजनैतिक कार्यकर्ता कहकर, स्वयं को नए मुखौटे में छिपाकर हू-हू करके अपने फेफड़ों में हवा भर रहे हैं और जहरीला, काला धुआं उगल रहे हैं। उनके निकट ये सहिष्णुता और विचारों की स्वतंत्रता पर मुश्किल खड़ी किया जाना है। घटना ये है कि अमदाबाद के एक वरिष्ठ समाजसेवी श्री वी.के़ सक्सेना ने उनके इस पुस्तक में होने पर विरोध व्यक्त किया और मेधा जी वाले पाठ को हटाया गया। ज्ञातव्य है कि सक्सेना सरदार सरोवर के प्रबल समर्थक हैं और विकास की मूलभूत आवश्यकताओं को समझते हैं।
उल्लेखित पुस्तक भारत के उन चर्चित व्यक्तित्वों के बारे में है, जिनके जीवन से बच्चे प्रेरणा ले सकें। इस पल आवश्यक होगा कि मेधा पाटकर के बारे में जाना जाये और समझा जाये कि वह किस कारण से नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की एक किताब में आने की पात्रता रखती थीं। मेधा पाटकर नर्मदा नदी पर बने सरदार सरोवर बांध के विरोध में आंदोलन को लेकर चर्चा में आयी हैं।
नर्मदा भारत की बड़ी नदियों में से एक है और मध्य प्रदेश तथा गुजरात से होकर अरब सागर तक जाती है इस नदी के पानी के बंटवारे को लेकर दोनों प्रदेशों में विवाद चलता आ रहा था तो केंद्र सरकार ने इस विवाद को सुलझाने के लिए छह अक्तूबर 1969 को एक ट्रिब्यूनल बना दिया। 12 दिसंबर 1979 को ट्रिब्यूनल ने नर्मदा पर तीस बड़े बांध, एक सौ पैंतीस मझोले बांध और चार हजार छोटे बांधों को बनाये जाने की संस्तुति की।
आगे बात बढ़ाने से पहले आवश्यक है कि नदियों और बांधों के बारे में विचार किया जाये। नदियां क्या हैं? पानी का स्वभाव है कि वह नीचा तल ढूंढता है। नदियां ऊंचाई के क्षेत्र के पानी को नीचे के क्षेत्र तक जाने का मार्ग हैं। नदियां किसी भी देश की भौगोलिक संरचना का प्रमुख हिस्सा हैं। चूँकि उनका पानी जीवन के लिए अनिवार्य है अत: वे राष्ट्र की बड़ी संपत्ति हैं़ यानी पर्वतों से उतरता उनका पानी समुद्र में फेंकने के लिए नहीं है। मनुष्यता के विकास के साथ मानव ने इस बहकर नष्ट हो जाने वाले पानी के उपयोग के सृष्टि के उषा काल से ही तरीके ढूंढे हैं। सबसे प्राचीन सभ्यताओं में बांध बनाने के उल्लेख हैं।
बांध इस बह कर नष्ट हो जाने वाले पानी का मानव जीवन के हित में प्रयोग करने का कौशल है। प्रकृति के विनाशी स्वभाव पर लगाम लगाने का मनुष्य की मेधा का उपक्रम है। कभी पटना जा कर गंगा या पुनपुन नदी का फैलाव देखिये़ एक बार आप पुल पर चढ़ेंगे तो दसों मील निकल जाने पर भी पाट का दूसरा छोर नहीं दिखाई देता। ये नदी द्वारा समुद्र तक जाने के मार्ग में वर्षा काल में अनियंत्रित हो कर बाढ़ से धरती को बंजर बना दिए जाने का सामान्य उदाहरण है। ये दृश्य किसी भी नदी के पुल पर जाकर देखा जा सकता है। मीलों तक दायें-बायें वीरान बंजर धरती, कृषि योग्य भूमि के कटाव के दृश्य नदी को नाथने और बांधों के पक्ष में सोचने के लिए बाध्य करते हैं। मानव सभ्यता जल के प्रबंधन तथा अपशिष्ट पदाथोंर् और दूषित जल के निस्तारण से ही बनी और विकसित हुई है। जीवन के लिए पानी इतना आवश्यक है कि सरस्वती नदी का प्रवाह अवरुद्घ हो जाने पर वेदों में बड़े सम्मान से वर्णित सरस्वती नदी के तटों पर बसी विकसित सभ्यता समाप्त हो गयी। अकबर द्वारा बसाया शहर फतेहपुर सीकरी पानी की अनुपलब्धता के कारण अकबर के सामने ही वीरान हो गया। बांध मूलत: पांच काम कर सकते हैं-
1- पेयजल की उपलब्धता
2- सिंचाई के लिए पानी
3- बांधों द्वारा विद्युत उत्पादन
4- पानी को सहेजने पर बाढ़ पर नियंत्रण
5- जल परिवहन
इसके अतिरिक्त परमाणविक रिएक्टरों के लिए भी अबाध पानी चाहिए होता है। यानी परमाणु ऊर्जा का उत्पादन भी तभी संभव है जब प्रचुर मात्रा में पानी उपलब्ध हो। आज उत्तराखंड में गंगा पर बने टिहरी बांध के कारण गुड़गांव, नोएडा को पीने का पानी मिलता है़ इसी बांध से निकली नहरों से उत्तर प्रदेश की सिंचाई होती है।
ऐसा ही बांध सरदार सरोवर है। 12 दिसंबर 1979 को ट्रिब्यूनल द्वारा स्वीकृति दिए जाने के बाद बांध बनाने का कार्य शुरू हुआ और 2006 से बांध बनकर तैयार हो गया। सरदार सरोवर बांध से बारह जनपदों, बासठ ताल्लुकों, तीन हजार तीन सौ तिरानवे गांवों में फैले अट्ठारह हजार किलोमीटर क्षेत्र की कृषि भूमि की सिंचाई होती है। मूलत: ये भूमि सदियों से सूखाग्रस्त क्षेत्र कच्छ और सौराष्ट्र की है। इसके अतिरिक्त राजस्थान में सात सौ तीस किलोमीटर के बाड़मेर और जालौर जनपदों में सिंचाई हो रही है। इसके अलावा चौदह सौ पचास मेगावाट विद्युत का उत्पादन हो रहा है। सर्वोच्च न्यायालय द्वारा वर्ष दो हजार में दिये गए निर्णय के अनुसार इस बांध के कारण दो करोड़ लोगों को घरेलू पेयजल तथा औद्योगिक जल उपलब्ध हो रहा है। सत्तर हजार उद्योगों को विद्युत आपूर्ति की जा रही है। ग्रामीण क्षेत्रों में सिंचाई के लिए चौबीस घंटे विद्युत उपलब्ध है। गुजरात में चौबीस घंटे बिजली की उपलब्धता इसी बांध के कारण है। इसी के कारण वहां के उद्योग चल रहे हैं। मेधा पाटकर इस विकास को संभव बनाने वाले बांध के विरोध के कारण चर्चा में आयी हैं।
चौबीस घंटों के टी़ वी़ चैनलों ने समाज में बहुत से कागज के शेर पनपा दिए हैं। मेधा पाटकर भी उन्हीं में से एक हैं। उनका आंदोलन कभी भी लोकप्रिय नहीं रहा। उनके साथ, जिन लोगों के हित के नाम पर वे अला-बला बोलती हैं, धरने, प्रदर्शन, अनशन करती हैं, ने कई बार उद्दंडता की है़ उन्हें मारा-पीटा है। मेधा पाटकर सौराष्ट में भी नरेंद्र मोदी का विरोध करने गयीं। गुजरात की शांत और अहिंसक जनता ने उन्हें दो दिन, जी हां केवल दो दिन नहीं टिकने दिया। अगर नरेंद्र मोदी जी की पुलिस उनकी सुरक्षा नहीं करती और स्वयं मार खा कर मेधा पाटकर को बचा कर न निकालती तो सरदार सरोवर के लिए उनकी सरदार सरोवर के जल से सिंचित क्षेत्र में ही आहुति हो गयी होती।
चलिए कुछ पल के लिए मान लेते हैं कि गुजरात की जनता शायद उतनी शिक्षित नहीं थी सो उनकी बात पूरी तरह समझ नहीं पायी होगी। मेधा पाटकर ने आम आदमी पार्टी के टिकट पर मुंबई से लोकसभा का चुनाव लड़ा। मुख्य मुकाबले में आना तो दूर वह भारतीय जनता पार्टी के विजयी उम्मीदवार किरीट सोमैया के हाथों जमानत भी जब्त करा बैठीं। इस तरह की हाय-हत्या योरोप, कनाडा में भी होती थी। बेलगाम प्रेस वहां भी अपनी टी़ आऱ पी़ बढ़ाने के लिए इन मुद्दों को हवा देता था। रूस और चीन के इशारे और पैसे के बल पर बरसों ये बन्दर-नाच वहां भी तब तक होते रहे जब तक कि वहां की जनता ने भी तंग आकर ऐसे उत्पातियों को सबक सिखाना शुरू नहीं किया। जनता ने इन ऐसे लोगों की शब्दश: ताड़ना की और फिर विकास का चक्र चल पाया।
इस विषय में बांध विरोधियों का एक प्रबल तर्क भी है। बांध की एक बड़ी समस्या भी है। बांध का पानी जिस क्षेत्र में फैलेगा, जो उसके जल-संग्रहण का क्षेत्र होगा, वहां जाहिर है लोग रहते हैं। उस इलाके में उनके खेत हैं। उनके गांव हैं,अत: डूबे क्षेत्र के लोगों के पुनर्स्थापन का कार्य होना ही चाहिए। उनकी उपयुक्त व्यवस्था होनी ही चाहिए मगर क्या इसके लिए बांध रोक दिए जाएं?
भारत अविकसित रहे, निर्धन रहे, अपनी आवश्यकताओं के लिए संसार भर में गिड़गिड़ाता रहे, ये हर विकसित देश की हार्दिक अभिलाषा है। ये भारत के खिलाफ संसार भर के देशों का षड्यंत्र है। हम विश्व की सबसे पुरानी, सबसे प्रखर सभ्यता हैं।
भारत यूं ही सोने की चिडि़या नहीं कहलाता था। संसार भर का सोना भारत में खिंचकर आता था और उसका कारण संसार के उत्पादन और व्यापार पर हमारा वर्चस्व था। अपने विकास के चरम काल में विश्व के उत्पादन का सत्तर प्रतिशत हिस्सा हमारा था। वह स्थिति अगर हमने फिर प्राप्त कर ली तो हम पर कौन दबाव दे सकेगा?
हम किसकी धौंस सहेंगे? अपनी मनमर्जी के ऊटपटांग निष्कर्ष निकाल कर, समाज के विकास की धारा को अवरुद्घ करने के आरोप में जिन लोगों को दण्डित किया जाना चाहिए उनके जीवन के बारे में नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की एक किताब लेख क्यों छापती है?
मेधा पाटकर जैसे लोग इतिहास के कूड़ेदान में फेंके जाने के पात्र हैं। वही कूड़ेदान जहां वे राष्ट्र को फेंकने के षड्यंत्र का हिस्सा बने हुए हैं। ये और इसी तरह के लोग देश के विकास के मार्ग में कांटे बोने का काम कर रहे हैं। नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया की एक किताब से निकालना ही नहीं इस तरह के षड्यंत्रकारियों को हर तरह से पराभूत करना, देश हित का काम है।
टिप्पणियाँ