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सेंट थॉमस 52 ए.डी. में भारत में आए थे कि नहीं, यह विषय कुछ वर्ष बाद चर्चा में आने वाला है। वजह यह है कि आज भी भारत में कहीं कहीं माना जाता है कि 52 ए.डी. में ईसा के कालखण्ड में उनके शिष्य सेंट थॉमस भारत में आए। उन्होंने दक्षिण भारत में ईसाई मत का प्रसार किया। केरल में आज सेंट थॉमस की कब्र भी दिखाई जाती है। बताते हैं, वहां उनकी एक हड्डी भी रखी है। इसी तरह का इतिहास दक्षिण अमरीका में वहां के तीन-चार बडे़ देशों में बताया जाता है, जिसका कारण उनकी बड़ी पुरानी परंपरा बताई जाती है। इस इतिहास पर तीन वर्र्ष पूर्व प्रकाशित 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने कई प्रमाण देकर रोशनी डाली है इसलिए कई विद्वानों का मानना है कि इस विषय की पुन: जांच होनी चाहिए।
वास्तव में दो हजार वर्ष पूर्व के इतिहास में अनेक भ्रांतियों की संभावना रहती है। लेकिन पिछले 200 वर्षों से दक्षिण भारत के अनेक विद्यालयों में यह बताया जा रहा है कि 'वहां के सभी हिंदू मंदिरों की मूर्तिकला, वहां का संगीत और संत-महंतों की संस्कृति भी सेंट थॉमस से शुरू होती है'। उससे दक्षिण अमरीका के बारे में फैलाए झूठ की काट मिलती है। दक्षिण अमरीका के इतिहास की तो पुनर्रचना भी शुरू हो चुकी है। वास्तव में तो 15वीं सदी में कोलंबस के अमरीका पहुंचने से पहले और उसी दौरान वास्को डि गामा के भारत में आने से पहले भी ईसाई मत का प्रचार भारत में किया जाता था। ईसाई मिशनरियों द्वारा ही यह साबित करने की कोशिशों में से यह विषय सामने आया है। सेंट थॉमस भारत आए अथवा दक्षिण अमरीका गए, इसका कोई प्रमाण किसी अधिकृत इतिहास में नहीं है। इसलिए उस बारे में पुन: जांच होनी जरूरी है। कोई हमारे देश पर कई सदियों पहले से हक जता रहा हो तो उसका पूरी ताकत से विरोध करना आवश्यक है। वास्तव में भारत और दक्षिण अमरीका में थॉमस का अस्तित्व दिखाने वाले दोनों इतिहास झूठे हंै, यह खुद उन स्थानों का अध्ययन करने वालों का कहना है। इसकी अहम वजह है कि सेंट थॉमस के नाम से जो स्थानीय परंपरा जोड़ी जाती है, वह 15वीं सदी की है।
दक्षिण भारत में वूल्फगंग हस्से और मेयेर रिनहोल्ड ने इस विषय पर सर्वप्रथम रोशनी डाली थी। उनका कहना था कि उस वक्त की स्थानीय 'झूम' नामक संस्कृति को 'टॉम' संस्कृति से जोड़ा गया और बाद में धीरे धीरे 'टॉम' यानी 'थॉमस संस्कृति' शुरू कर दी। कबोई, कामे, टामू, झूम, कॅरीब टामू, पराग्वे झूम जैसी परंपराएं हैं, उनमें से झूम व्यापक मान्यता प्राप्त परंपरा है। इसे15वीं सदी में वहां गए मिशनरियों ने चुना था जिसमें 'टॉम संस्कृति' मिल गई। दक्षिण अमरीका की स्थानीय संस्कृति 'इंडियन' नाम से ही जानी जाती है। उस प्रदेश में मिशनरियों के पहंुचने पर पहले स्थानीय देवी-देवताओं के साथ सेंट थॉमस एवं ईसा के चरित्र से कुछ बातें लेकर जोड़ी गईं। बाद में धीरे धीरे 'टॉम संस्कृति' को अधिक महत्व दिया गया, स्थानीय देवताओं की प्रतिमाएं हटाई गईं। मुख्य रूप से पेरू एवं मेक्सिको में 'इंडियन डेइटी' नाम से परिचित क्विजलकोटल को, जिसमें कुछ शिल्प थे, प्राथमिकता दी गई। आज भी अमरीका, कनाडा और दक्षिण अमरीका में सेंट थॉमस के नाम पर अनेक संस्थाएं हैं, विश्वविद्यालय हैं और अनेक परिसर हैं। सेंट थॉमस ईसाई परंपरा के एक व्यक्तित्व हैं इसलिए पूरी दुनिया में उनके स्मारक हैं ही, लेकिन अमरीका में ये काफी तादाद में है। कैरेबियाई इलाके में एक द्वीप का नाम उन पर ही है। भारत में उनके नाम पर बने ज्यादातर स्थान दक्षिण भारत में हैं।
लेकिन असल में उस सदी में कोई ईसाई मिशनरीभारत अथवा दक्षिण भारत में आया था इसका कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि सन् 1498 से पूर्व यानी वास्को डि गामा के आने से पहले भारत में कोई ईसाई मिशनरी आया ही नहीं था। लेकिन सेंट थॉमस दक्षिण भारत गए, इस विषय को ईसाई मिशनरियों ने इतनी प्रमुखता इसलिए दी क्योंकि15वीं सदी में कोलंबस के अमरीका जाने से पहले ही विश्व पर यूरोप का प्रभाव जम चुका था। थॉमस पहली सदी में यूरोप से बाहर गए एवं वहां उन्होंने अपने प्रभाव से दुनिया खड़ी की, यह दिखाने का ही वह प्रयास था। 15वीं सदी से लेकर आज तक पूरी दुनिया यूरोप-केंद्रित यानी यूरोसेंट्रिक है। 15 वीं सदी में यूरोप के युवा विश्व के विभिन्न देशों में गए। कोई व्यापार के बहाने तो कोई हीरे-मोती खोजने के बहाने। लेकिन सबका आदर्श कोलंबस ही था। यानी उद्देश्य उन देशों को लूटना ही था। आगे 400-500 वर्ष तक लूट ही की गई। ऐसे समय में बाइबिल की नोहा की कहानी के आधार पर 'विश्व को जीतना और लूटना ही हमारा अधिकार है', यह घोषित करते हुए उन्होंने पूरे विश्व में फैलना शुरू किया। संक्षेप में, नोहा की कहानी इस प्रकार है-पुराने समय में महाप्रलय के दौरान केवल नोहा नामक व्यक्ति जीवित बचा। उसके साम, हाम और जेपेथ नाम के तीन बेटे थे। एक बार नोहा शराब पिए घर में निर्वस्त्र स्थिति में पड़ा था। उसे हाम नामक बेटे ने इस हालत में देख लिया। इस पर वह खूब हंसा। तब नोहा ने हाम को शाप दिया कि वह दक्षिण की ओर जाएगा और उसका रंग काला होगा। बाद में उसके वंशज साम के वंशजों की पीढ़ी दर पीढ़ी सेवा करेंगे।
ऐसी कहानियां अनेक परंपराओं में होती हैं, लेकिन यूरोपीय देशों ने लूट के बहाने विश्व से जुड़ने पर नोहा की कहानी की आड़ में यह दुष्प्रचार किया कि 'यूरोपीय लोगों को दुनिया लूटने का अधिकार है'। सेंट थॉमस जहां जहां गए वे स्थान मुख्य रूप से 'हेमेटिक वर्ल्ड' माने जाते हैं, जैसे अफ्रीका। उस समय यानी अफ्रीका से बडे़ पैमाने पर लोग भारत एवं अमरीका में गए। उनमें से जो भारत में आए वे अनार्य और जो दक्षिण अमरीका में गए वे स्थानीय वनवासी कहलाए। बाद में यह दिखाने का प्रयास किया गया कि यूरोपीय आक्रमण के बहाने उन्हें लूटना तो सेमेटिक-हेमेटिक कथा के अनुसार यूरोपीय लोगों का अधिकार ही था। यूरोप के अनेक विश्वविद्यालय आज भी सेमेटिक-हेमेटिक परंपरा को ही विश्व का इतिहास मानते हैं।
भारत में उसके आगे निकलते हुए यह स्थापित करने का प्रयास किया गया कि सेमेटिक-हेमेटिक परंपरा हिंदू सभ्यता से पूर्व की है। यह प्रयास मुख्य रूप से दक्षिण भारत में हुआ। 'भारत में सेंट थॉमस का आगमन ए.डी. 52 में हुआ था, दक्षिण में द्रविड़ परंपरा ईसाई परंपरा से उपजी है', यह दिखाने का प्रयास मुख्य रूप से ब्रिटिशों के समय में हुआ। ब्रिटिशों और ईसाई मिशनरियों को दिखाना था कि भारत में एक-दो राज्यों में 'मूल परंपरा ईसाई परंपरा ही थी'। इसलिए पहले तमिलनाडु को चुना गया। प्रथम द्रविड़ आंदोलन अनायोंर् का आंदोलन है, यह दिखाने का प्रयास हुआ। दक्षिण अफ्रीका में रहने वालों का भारतीयों से सांस्कृतिक संबंध था, यह दिखाने के लिए गढ़ा गया कि हिंद महासागर में लेमुरिया नामक एक भारत जैसे संस्कृति ही बहुत विशाल द्वीप पर थी। अफ्रीका से लेमुरिया और लेमुरिया से दक्षिण भारत, इस तरह का संबंध जोड़ा गया। सन्1916 में मद्रास प्रांत में जस्टिस पार्टी नामक एक राजनैतिक दल की स्थापना हुई। उसका उद्देश्य ही यह साबित करना था कि दक्षिण के द्रविड़ मूलत: अफ्रीका से आए ईसाई थे। आज की द्रविड़ मुन्नेत्र कड़गम और एआईएडीएमके पार्टियां उसी जस्टिस पार्टी से निकली हैं। उन्होंने सेंट थॉमस को पहली बार इतिहास के रूप में मान्य किया था। उसी तरह यह स्थापित किया जाने लगा कि संत तिरुवल्लुवर के साहित्य पर सेंट थॉमस द्वारा दी गई बाइबिल की शिक्षा का प्रभाव है।
दक्षिण भारत में मंदिर परंपरा, भरतनाट्यम परंपरा, शैव परंपरा, दक्षिण भारतीय संगीत परंपरा आदि सब सेंट थॉमस परंपरा से आए हैं, यह निष्कर्ष निकालने वाले अनेक प्रबंध आज दक्षिण भारत के कई विश्वविद्यालयों में स्वीकृत किए गए हैं। यह विषय इस स्तर तक पहुंचाया गया है ताकि कहा जा सके कि 'वेद वाङमय और संस्कृत भाषा भी सेंट थॉमस परंपरा से आए हैं'। वास्तव में कुछ ईसाई संगठनों और कुछ न्यायालयों ने इस सिद्घांत को नकारा है। फिर भी तमिलनाडु राज्य सरकार की नीति के अनुसार, आज भी सेंट थॉमस को ही अधिकृत परंपरा माना जाता है। अनेक महोत्सव उसी के आधार पर होते हैं।
भारत में तमिलनाडु राज्य में आज भी थॉमस परंपरा को अधिकृत माना जाता है और अन्य राज्यों में वह उतनी स्वीकार्य नहीं है। लेकिन सेंट थॉमस को भारतीय इतिहास का हिस्सा माना जाता है। पिछले 20 -25 वर्षों में विश्व से जो शोधकार्य आगे आ रहा है उसके अनुसार सेंट थॉमस भारत अथवा अमरीका में गए थे, इसके प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। उसी तरह सेमेटिक व हेमेटिक कहानियों का भी कोई ऐतिहासिक आधार नहीं है। विश्व के अनेक देशों ने सेमेटिक व हेमेटिक परंपरा पूरी तरह नकार दी है। भारत में आर्य एवं अनार्य नाम से जिस इतिहास की रचना की गई है वह मुख्य रूप से सेमेटिक-हेमेटिक परंपरा से आया है।
भारत में आज भी 'आर्य बाहर से आए', यही इतिहास बताया जाता है। लेकिन सेमेटिक-हेमेटिक परंपरा को विश्व द्वारा नकारने वाले संदर्भ जोडे़ जाएं तो साफ हो जाता है कि 'आर्य बाहर से आए' के सिद्घांत के पीछे ब्रिटिशों का मकसद यह दिखाना था कि भारत पर उनका वर्चस्व था। 'ब्रेकिंग इंडिया' पुस्तक ने सेंट थॉमस से जुड़े इस 'इतिहास' की भ्रामक बातों पर प्रभावी रोशनी डाली है। इस पुस्तक के पन्नों में समाविष्ट ये बातें केंद्र सरकार एवं भारत के अन्य राज्यों की सरकारों की नीतियों तक पहुंचें, इसके लिए प्रत्येक संस्था और प्रत्येक व्यक्ति को कदम बढ़ाने की आवश्यकता है। – मोरेश्वर जोशी
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