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केन्द्र सरकार ने हमारी परम्परागत चिकित्सा पद्धतियों के लिए अलग से एक आयुष मंत्रालय गठित करने का निर्णय लिया है जिसका स्वागत किया जाना चाहिए। इस मंत्रालय का कार्य कठिन होगा, क्योंकि आयुर्वेद का उद्देश्य केवल रोग का उपचार नहीं बल्कि सम्पूर्ण जीवनशैली का सुधार है। जैसे कोई व्यक्ति देर से उठता है, व्यायम नहीं करता, स्वभाव से झूठ बोलता है, गरिष्ठ भोजन खाता है इत्यादि तो उसका रक्तचाप बढ़ जाता है। ऐसे में आयुर्वेदाचार्य उसे सलाह देते हैं कि सायंकाल हल्का भोजन करें, सुबह जल्दी उठें, सैर करें, योगासन करें, प्राणायाम करें, सत्य बोलें इत्यादि। उसका रक्तचाप इससे स्वत: नियंत्रण में आ जाएगा। औषधि की उपयोगिता केवल तात्कालिक राहत पहुंचाने की रह जाती है। एलोपैथिक डॉक्टर इन तमाम चीजों के सुधार के स्थान पर रक्तचाप कम करने की गोली देगा जिससे रोगी को राहत भी मिलेगी। परंतु उसकी जीवनशैली पूर्ववत् ही बनी रहेगी। वह झूठ बोलता रहेगा। उसका दिमाग तनाव में रहेगा। रक्तचाप ठीक हो गया तो उसे दूसरा मनोरोग पकड़ लेगा। चिकित्सा की इन दोनों पद्धतियों के वैज्ञानिक आधार भी भिन्न हैं। आयुर्वेद का पूरा ध्यान शरीर के आकार यानी एनाटॉमी पर कम और उसकी गति पर ज्यादा रहता है। इसमें वात, पित्त और कफ के संतुलन को प्रमुख माना गया है। ये शरीर की गति से संबंधित हंै। वात, पित्त और कफ का संतुलन रहेगा तो धमनियां खराब नहीं होंगी। इसके विपरीत एलोपैथी का ध्यान व्यक्ति के शरीर पर रहता है, जैसे ह्रदय की धमनियों में अवरोध हो अथवा पित्त की थैली में पथरी हो तो इन अंगों का सीधे उपचार तो कर दिया जाता है, पर इन विकारों के उत्पन्न होने के कारणों पर ध्यान नहीं दिया जाता। धमनियों में रक्त संचार बढ़ाने के लिए स्टन्ट लगा दिये जाते हैं, परन्तु कुछ समय बाद समस्या पुन: प्रकट हो जाती है। दोनों पद्धतियों के बीच यह अंतर वैसा ही है जैसे ब्रिटिश स्टैण्डर्ड (बीएस) तथा आइएसओ के बीच फर्क। बीएस में उत्पाद के आकार को प्रमाणित किया जाता है, जैसे कागज इतने ग्राम का है, इसकी ताकत अथवा सफेदी इतनी है इत्यादि। इसके विपरीत आइएसओ में कागज के आकार को प्रमाणित किया ही नहीं जाता है। प्रमाण इस बात का होता है कि फैक्ट्री द्वारा उत्पादन के समय कागज के वजन में अंतर मापने की क्या व्यवस्था है अथवा ब्लीचिंग के लिए क्लोरीन की गुणवत्ता की जांच करने की क्या व्यवस्था है। यदि यह प्रक्रिया सही है तो मान लिया जाता है कि कागज ठीक ही बनेगा। इसी प्रकार आयुर्वेद में प्रक्रिया पर ध्यान दिया जाता है न कि एनाटॉमी पर। सम्पूर्ण विश्व आज बीएस से आइएसओ की तरफ बढ़ रहा है। बेशक, आने वाले समय में इसी प्रकार हम एलोपैथी से आयुर्वेद की ओर बढ़ेंगे।
भारतीय संस्कृति में जीवन का उद्देश्य आंतरिक सुख है। इसलिए आयुर्वेद में जीवनशैली पर ध्यान रहता है। जीवनशैली के सुधार से व्यक्ति का अंत:करण जागृत हो जाता है और वह सुखी रहता है। इसकी तुलना में पश्चिमी सभ्यता का उद्देश्य भौतिक जीवन स्तर में सुधार मात्र है। उस व्यक्ति को 'बड़ा' माना जाता है जो मर्सीडीज कार में सैर करता है, चाहे उसे दस रोगों ने घेर रखा हो। एलोपैथी की सफलता का मापदण्ड है कि व्यक्ति ने कितना भोग किया। इसके विपरीत आयुर्वेद की सफलता उसे भोग से निवृत्ति दिलाकर आंतरिक सुख की ओर ले जाने में नापी जाती है।
प्रश्न उठता है कि फिर एलोपैथी इतनी सफल क्यों? क्या कारण है कि भारत ही नहीं अपितु सम्पूर्ण विश्व में एलोपैथी के प्रसार के साथ-साथ नागरिकों का औसत आयु में अप्रत्याशित वृद्धि हुई है? निश्चित ही पेनसिलिन जैसी कुछ दवाओं के आविष्कार से कई रोगों पर काबू पाया जा सका है। लेकिन इसकी उपलब्धता में औद्योगिक क्रांति का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा है। आज विश्व के अधिकतर नागरिकों को दो समय भोजन एवं सोने के लिए स्थान उपलब्ध है। इससे भी औसत आयु में वृद्धि हुई है। आयु में यह वृद्धि उन परिवारों अथवा क्षेत्रों में भी देखी जा रही है जो सिर्फ आयुर्वेद पर निर्भर हैं। अत: इस वृद्धि का श्रेय केवल एलोपैथी को देना अनुचित है। इसके अतिरिक्त टीबी और मलेरिया जैसे रोगों के कीटाणु दवा के प्रतिरोधी होते जा रहे हैं और एड्स व इबोला जैसे नए रोग भी तेजी से उत्पन्न हो रहे हैं।
नए आयुष मंत्रालय को इस परिप्रेक्ष्य में अपना एजेन्डा बनाना है। विषय सम्पूर्ण जीवनशैली से जुड़ा है। आयुष मंत्रालय को चाहिए कि विभिन्न मंत्रालयों से समन्वय करे। जैसे सूचना एवं प्रचार मंत्रालय के साथ एक विज्ञापन नीति बनाई जाए। जनता को समझाया जाए कि रोग शरीर की एनाटॉमी में अवश्य होता है, परन्तु उसका कारण जीवनशैली, विचारधारा तथा भोजन होता है। खेल एवं युवा मंत्रालय से योग को खेलकूद की प्रतियोगिताओं में शामिल कराया जाए। शिक्षा मंत्रालय के माध्यम से हाईस्कूल के पाठ्यक्रम में एलोपैथी तथा आयुर्वेद के सिद्धान्तों के अंतर को पढ़ाया जाए। पर्यटन मंत्रालय से होटलों के वास्तु विज्ञान की नीति बनवाई जाए। आयुष मंत्रालय अपने कार्य में तब ही सफल होगा जब स्वास्थ्य के इन विभिन्न आयामों पर पहल की जाएगी।
साथ ही, आयुर्वेद के मूल सिद्धान्तों की व्याख्या करनी चाहिए। दोनों पद्धतियों के बीच संयुक्त शोध को बढ़ावा देना चाहिए। कुछ रोग हंै जिनमें आयुर्वेद सफल है, जैसे उदर रोग। दूसरे कुछ रोगों में एलोपैथी सफल है, जैसे संक्रामक रोग अथवा सर्जरी। इनके बीच एक विशाल दायरा है जहां दोनों पद्धतियों के प्रभावी होने का तुलनात्मक अध्ययन कराना जरूरी है। तीसरे,आयुर्वेदिक दवाओं के मानक निर्धारित करने, जांच प्रयोगशालाएं बनाने और पारम्परिक चिकित्सकों के पंजीकरण करने पर ध्यान देना चाहिए। 'एम्स'की तर्ज पर आयुर्वेदिक अस्पताल स्थापित करने चाहिए। ऐसा करने से आयुर्वेद की प्रगति होगी। प्रयास होना चाहिए कि तमाम देशों की इस क्षेत्र में विशेष उपलब्धियों का आयुर्वेद के विस्तृत घेरे में समावेश किया जाए।
-डॉ. भरत झुनझुनवाला व नरेन्द्र नाथ मेहरोत्रा
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