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यह भारतीय इतिहास की बड़ी विडम्बना है कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का जन्मदाता एक ब्रिटिश नौकरशाह ए.ओ. ह्यूम था जिसने 1885 ई. में ब्रिटिश राज्य की सुरक्षा, दृढता तथा स्थायित्व और भारत में आने वाले भयंकर हिंसात्मक विद्रोह की आशंका से बचने के लिए भारत भूमि पर इसकी स्थापना की। कांग्रेस की सदस्यता के लिए केवल दो गुण अनिवार्य थे- अंग्रेजी भाषा का ज्ञान तथा ब्रिटिश शासन के प्रति संदेह से परे वफादारी। पहले बीस वर्षों तक इसके सदस्यों ने इसका अक्षरश: पालन किया। प्रत्येक कांग्रेस अधिवेशन में अंग्रेजी शासन को एक वरदान तथा भारत में ब्रिटिश राज्य की न केवल अपने जीवन में, बल्कि अपने बच्चों के जीवनकाल में स्थायी रूप से बने रहने की कामना की है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कांग्रेस ने भारत में पूर्ण स्वतंत्रता की कभी मांग नहीं की केवल डोमिनियन स्टेट्स की बात की थी। 1929 का पूर्ण स्वराज्य का प्रस्ताव एक ढोंग मात्र था।
इसी भांति कम्युनिस्ट पार्टी आफ इंडिया का जन्म भारत से बाहर विदेशभूमि रूस के ताशकन्द नामक स्थान में 1920 ई. में हुआ। इसके जन्मदाता एक भारतीय मानवेन्द्रनाथ राय तथा कुछ मुस्लिम मुजाहिर थे। मोहम्मद शफीक इसका पहला सचिव था। ताज्जुब है जिस सोवियत रूस ने मार्क्स के लिए मीनारें नष्ट करवा दीं, हजारों मस्जिदों को हमाम बना डाला, हज की यात्रा पर प्रतिबंध लगा दिया, उसी कम्युनिज्म की अनेक मुस्लिम मुजाहिरों ने, भारत में स्थापना की। अनेक प्रमुख मुसलमानों को प्रचार के लिए समूचे भारत के विभिन्न स्थानों पर भेजा गया। इनका भी भारत के धर्म, संस्कृति, राष्ट्रीयता या स्वतंत्रता से कुछ लेना देना नहीं था। वे सदैव सोवियत रूस तथा बाद में चीन- अपने मायके से दिशा तथा निर्देश लेते रहे।
भारतीय इतिहास में कांग्रेस- कम्युनिस्ट के परस्पर संबंधों की कहानी एक विचित्र संयोग है। यह कभी टकराव, कभी ज्यादा घालमेल, कभी गठबंधन तथा कभी अपूर्ण तलाक की रही। यह कभी भी संदेह, अविश्वास तथा अवसरवादिता से मुक्त न रही। कम्युनिस्टों का एकमात्र टकराव देश के महानतम नेता महात्मा गांधी से हुआ। सोवियत रूस के सर्वोच्च नेता लेनिन ने प्रारंभ में, कांग्रेस के बुर्जुआ आंदोलन से समझौता करने का निर्देश दिया (देखें लेनिन, कलैक्टैड वर्क्स, भाग 30, पृ0 162) पर साथ ही इसे पूर्णत: अस्थायी समझौता करने का निर्देश दिया (देखें, भाग 31, पृ. 151-152) परन्तु महात्मा गांधी के अहिंसक असहयोग आन्दोलन ने लेनिन के पांव भारत में जमने न दिये और तभी से भारतीय कम्युनिस्टों का महात्मा गांधी द्वारा संचालित विभिन्न आन्दोलनों तथा गांधी जी के प्रति विषवमन तथा निम्न स्तर की गालियों का सिलसिला प्रारंभ हुआ। लेनिन का गांधी जी को रूस आने का निमंत्रण देने (जियोफ्रे ऐश, गांधी, पृ. 245) तथा उनके प्रति सकारात्मक आलोचनात्मक रुख अपनाने का प्रयत्न हुआ पर पूर्णत: निष्फल रहा। असहयोग आन्दोलन यद्यपि विफल रहा, परन्तु यह सोवियत संघ के भारत में इरादों की कब्र साबित हुआ। कम्युनिस्टों ने असहयोग आन्दोलन को मध्यमवर्गीय आन्दोलन कहा (देखें, आर पी दत्त, इंडिया टुडे, पृ. 341-42) गांधी द्वारा चौरी-चौरा घटना से असहयोग आन्दोलन की वापसी को क्रांतिकारी शक्तियों के साथ विश्वासघात बतलाया (देखें जी अधिकारी, डाक्यूमेंट्स आफ कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (1917-1922, भाग एक, पृ. 427) गांधी के प्रभाव को नष्ट करने के लिए मास्को से श्री मानवेन्द्र नाथ राय ने श्री अमृत डांगे को कई पत्र लिखे (देखें, होम पालिटिकल डिपोजिट) फाईल नं. 125/1922 व 421/1924) गांधी के बारदोली प्रस्ताव को जमींदारों और साम्राज्यवादियों के हित में बतलाया। सविनय अवज्ञा आन्दोलीन की कटु आलोचना की। गांधीजी को ब्रिटिश बिल्ली का पंजा कहा। इसी भांति 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन में कम्युनिस्टों ने अंग्रेजों से मिलकर राष्ट्रद्रोहितापूर्ण नीति अपनाई तथा भारत के नेताओं को पकड़वाने में ब्रिटिश गुप्तचरों अथवा मुखवरी का शर्मनाक कृत्य किया। गांधीजी को शांतिवादी दुष्ट प्रतिमा कहा। वे 1920-1948 तक गांधी जी को मनमानी गालियां देते रहे। उन्हें प्रतिगामी, देशद्रोही, ब्रिटिश चमचा, प्रतिक्रियावादी, पूंजीवादियों का गुलाम, मुक्ति आन्दोलन का दुश्मन आदि कहते रहे। परन्तु गांधीजी की 1948 में मृत्यु के पश्चात जब स्टालिन ने कहा, पलटो, तब तुरन्त उन्होंने गिरमिट की तरह रंग बदला। गांधीजी को महान देशभक्त, मानववादी, जनता की निस्वार्थ सेवा करने वाले साम्राज्य विरोधी कहने लगे। जब रूस रंगमंच पर खुश्चैव तथा बुलगानिन आये तो पुन: भारतीय कम्युनिस्ट बुद्धिजीवी भी गांधीजी की आरती उतारने लगे। अब गांधीजी को एक आध्यात्मिक जटिल व्यक्तित्व कहा जाने लगे।
नेहरू तथा भारतीय कम्युनिस्ट
अपने अनुयायी नेहरू को व्यक्तिगत हस्तक्षेप कर गांधी जी ने चार बार क्रमश: 1929, 1936, 1937 तथा 1946 में कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। नेहरू कम्युनिस्ट विचारों की चकाचौंध से सदैव भ्रमित रहे। अपनी यूरोप की दूसरी यात्रा में नवम्बर 1927 में चार दिन के लिए सोवियत रूस गये। उन्होंने वहां पंचवर्षीय योजना तथा नागरिकों की परेड को देखा जो स्वतंत्रता के पश्चात उन्होंने भारत में भी अपनाई। दिसम्बर 1927 में कांग्रेस के चेन्नई अधिवेशन में जिसके महासचिव जवाहरलाल नेहरू थे कुछ प्रसिद्ध कम्युनिस्टों जोगलेकर निम्वकर तथा फिलिप सप्रट ने भाग लिया। अधिवेशन में रूसी क्रांति की वर्षगांठ पर बधाई भेजने तथा देशव्यापी हड़ताल करने के प्रस्ताव आये, पर कोई स्वीकृत न हुआ। पर नेहरू कांग्रेस में वामदल के नेता बन गए क्योंकि वे कांग्रेस मंच पर समाजवाद को आदर्श बताने वाले प्रथम व्यक्ति थे। पं. मोतीलाल नेहरू के अत्यधिक आग्रह पर, गांधी जी ने 1929 में उन्हें कांग्रेस का अध्यक्ष बनाया। वस्तुत: गांधी जी को भी यह डर था कि अन्यथा कहीं जवाहरलाल नेहरू लाल (कम्युनिस्ट) न हो जायें।
नेहरू ने अपने विविध अध्यक्षीय भाषणों में समाजवाद की बेलगाम प्रशंसा की, जिसे गांधी जी ने जरा भी पसंद न किया। परन्तु नेहरू का समाजवाद का एकाकी प्रेमालाप चलता रहा। सन 1934 में वे कांग्रेस के अंतर्गत कांग्रेस समाजवादी दल के निर्माताओं में थे, परन्तु स्वयं वे उसका सदस्य न बने। 1939 में सुभाष चन्द्र बोस ने उनके इस ढोंगी समाजवाद की एक लम्बा पत्र लिखकर कटु आलोचना की। सच तो यह है कि सोवियत रूस के प्रसिद्ध इतिहासकारों-प्रोफेसर आर. उल्यानोवास्की तथा ओरिष्ट मार्टिगन ने (देखें, जवाहरलाल नेहरू एण्ड हिज पालिटिकल व्यूज, मास्को, 1989, पृ. 11) कटु आलोचना की तथा उनके समाजवाद को व्यक्तिगत, असंगत तथा अशिष्ट कहा। उनकी समाजवाद के प्रति अपनी संकल्पना की चरम सीमा 1930-1936 तक रही।
गांधीजी के मरते ही नेहरू ने कांग्रेस का लक्ष्य समाजवादी समाज की स्थापना बताया (देखें 1955 का कांग्रेस अधिवेशन) 1949 में चीन में कम्युनिस्ट शासन स्थापित होने पर भारत एशिया का पहला देश था जिसने उसका भावपूर्ण स्वागत किया। इतना ही नहीं भारत एकमात्र देश था जिसने नौ बार चीन को संयुक्त राष्ट्र संघ का सदस्य बनाने की वकालत की। विस्तारवादी चीन के नापाक इरादों के बारे में संघ के द्वितीय सरसंघचालक श्री गुरुजी ने कांग्रेस सरकार को सावधान किया। सरकार ने उन्हें पागल कहा।
गृहमंत्री सरदार पटेल ने चीन को भारत का दुश्मन नं. एक माना, पर विदेश मंत्री नेहरू कहां सुनने वाले थे। चीन बार-बार भारत की सीमाएं लांघता रहा, सरकार छुपाती रही, परिणाम अक्तूबर 1962 भारत की विश्व में शर्मनाक हार के रूप में जगप्रसिद्ध है जिसे भारतीय इतिहास का कोई विद्यार्थी कभी भुला न सकेगा।
इसी भांति नेहरू सोवियत रूस के प्रति मोह ग्रस्त रहे। इस संदर्भ में वर्तमान में कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय में सोवियत संघ की गुप्तचर संस्था केजीवी के हजारों गोपनीय दस्तावेजों के सार्वजनिक होने से कांग्रेस-कम्युनिस्टों के संबंधों की पोल पटरी खुल गई है। 1950-1953 तक मास्को के निर्देश पर नेहरू सरकार को उखाड़ने के प्रयत्न होते रहे। दूसरी ओर नेहरू सोवियत संघ की छवि बनाने में लगे रहे। कृष्ण मेनन को भारत का रक्षा मंत्री बनाना भी सोवियत संघ की सफलता का परिचायक था, जिसे बाद में नेहरू को भारी मन से हटाना पड़ा।
यद्यपि भारतीय कम्युनिस्ट राष्ट्रीय कांग्रेस से विपरीत विचारधारा के थे परन्तु उनकी प्रारंभ से ही कांग्रेस में घुसपैठ की नीति रही। 1922 में गया कांग्रेस अधिवेशन में भी उन्होंने बोल्शेविक प्रोग्राम सफल कर कांग्रेस पर कब्जा करने का असफल प्रयास किया था। 1934 में सरकार द्वारा कम्युनिस्ट पार्टी पर प्रतिबंध लग जाने से अनेक भारत के प्रमुख कम्युनिस्ट, कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के सदस्य बन गये थे। स्टालिन ने कांग्रेस कम्युनिस्ट संबंधों को प्रोत्साहन दिया था। आखिर जयप्रकाश नारायण ने भारत के कम्युनिस्टों को विश्वासघाती तथा कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का शत्रु घोषित कर बड़ी मुश्किल से 1940 में निष्कासित किया था (देखें, डा. गौरीनाथ रस्तोगी, मार्क्सवाद का उत्थान और पतन, पृ. 66)
इन्दिरा गांधी और कम्युनिस्ट
1965 में पाकिस्तान द्वारा भारत पर आक्रमण के समय कम्युनिस्टों की भूमिका शून्य रही परन्तु लालबहादुर शास्त्री की रहस्यमय ढंग से मृत्यु के उपरान्त कम्युनिस्ट पुन: सक्रिय हो गए। इन्दिरा को सत्ता में लाने तथा उन्हें कांग्रेस का नेतृत्व प्रदान कराने के लिए कम्युनिस्टों द्वारा प्रयत्न हुआ (इन्टरनेशनल एफेयर्स, मास्को, सितम्बर 1974 अंक) कांग्रेस को अन्दर से तोड़ने का अच्छा मौका था। सोवियत संघ के गुप्तचर विभाग के एक प्रमुख मित्रोखिन के अनुसार दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र में दरबारी संस्कृति पैदा हुई। कांग्रेस का एक दल पीएन धर के माध्यम से सोवियत संघ से संबंध बनाए हुए था। 1969 में कांग्रेस दो फाड़ हुई, मित्रोखिन के अनुसार इंदिरा गांधी के यहां नियमित रूप से नोटों के सूटकेस भेजे जाने लगे। इन्दिरा गांधी ने भी कम्युनिस्टों को बदले में भारत की बौद्धिक सत्ता सौंप दी। इतना ही नहीं कम्युनिस्ट ढंग का अधिनायकवाद भारत में स्थापित हुआ। 1,10,000 राष्ट्रभक्तों को जेल में बन्द कर दिया गया। इन्दिरा के काल में सोवियत संघ के प्रमुख ब्रेझनोव जब भारत आये उसे खुश करने के लिए पहले ही दिन प्रीवी पर्स संबंधी कानून बना।
सोनिया गांधी और कम्युनिस्ट
सोनिया गांधी ने कांग्रेस सरकार को स्थापित करने में भारतीय कम्युनिस्टों से मदद मांगी। कम्युनिस्ट नेता हरकिशन सिंह सुरजीत तथा ज्येाति बसु से सहायता मांगी। 2004 में मनमोहन सिंह को प्रधानमंत्री बनाने में कम्युनिस्टों की सहायता ली। कम्युनिस्ट अपनी धुन पर कांग्रेस को नचाते रहे। पर भारतीय कम्युनिस्टों को कभी भी भारत में सफलता नहीं मिली। भारत के उच्चतम न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायामूर्ति प्रफुल्लचन्द्र नटवरलाल भगवती का मत है, 'मैं समझता हूं कि हिन्दुस्थान में मार्क्सवादी आन्दोलन कभी सफल नहीं होगा। मार्क्सवादी मूल्य हमारे लिए परकीय हैं और इससे हम सर्वथा अनजान हैं। हमारे मूल्य आध्यात्मिक हैं। भारतीय आध्यात्मिकता ही वास्तविक समाजवाद है और मार्क्सवाद का विरोधी है।' (जस्टिस भगवती, हिन्दुस्तान में मार्क्सवाद आन्दोलन कभी सफल नहीं होगा पाञ्चजन्य, 28 फरवरी 1990 पृ. 63) सोचने की बात है कि क्या अब तक कांग्रेस अपने स्वार्थों के लिए कम्युनिस्टों का उपयोग करती रही है अथवा भारतीय कम्युनिस्ट कांग्रेस के माध्यम से अपने हित साधते रहे हैं? दोनों ही पार्टी हितों के लिए राष्ट्र हितों की सर्वदा बलि देते रही हैं। -डॉ. सतीश चन्द्र मित्तल
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