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14 नवम्बर को जवाहरलाल नेहरू की 125 वीं जयंती पड़ रही है। स्वाधीन भारत के पहले प्रधानमंत्री बनने का गौरव पाने वाले नेता की स्मृति को जीवित रखना राष्ट्र का कर्तव्य बन जाता है। इस स्वस्थ परंपरा का पालन करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी नीत भारत सरकार ने नेहरू जयंती मनाने के लिए एक राष्ट्रीय समिति का गठन किया, जिसमें लगभग सभी राष्ट्रीय दलों के प्रतिनिधियों को स्थान दिया और इसी नाते एक दल की अध्यक्ष होने के नाते सोनिया का नाम भी उसमें रखा किंतु सोनिया ने उस राजकीय समिति की सदस्यता से त्यागपत्र देकर असहयोग की घोषणा कर दी। भारत सरकार के संस्कृति मंत्रालय ने नेहरू जयंती को गांधी जयंती से आरंभ हुए राष्ट्रीय स्वच्छता अभियान को आगे बढ़ाने का निमित्त बनाया। इस अवसर पर नेहरू जी की बौद्धिक सम्पदा को प्रकाश में लाने का भी कार्यक्रम बनाया और इन सब कार्यक्रमों के लिए 30 करोड़ रुपये की राशि भी आवंटित कर दी। किंतु नेहरू के वंशवाद पर पल रही इटली पुत्री सोनिया ने समिति से त्यागपत्र देकर अपनी वंशवादी राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश की।
सोनिया ने अपनी पार्टी की ओर से एक दिन पहले अर्थात 13 नवम्बर को ही नेहरू जयंती मनाने की घोषणा कर दी ताकि उसे राष्ट्रीय आयोजन से अलग दिखाया जा सके। इससे भी आगे बढ़कर सोनिया मंडली ने 17-18 नवम्बर को राजधानी दिल्ली में नेहरू जयंती के उपलक्ष्य में एक द्विदिवसीय अंतररष्ट्रीय सम्मेलन करने का कार्यक्रम भी बनाया। इस सम्मेलन के लिए 19 राष्ट्रों के 54 नेताओं को निमंत्रण पत्र भेजा गया किंतु भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी को निमंत्रित नहीं किया गया और इस तथ्य को जोर-शोर से प्रचारित किया गया। पी.वी.नरसिंहाराव के काल से सोनिया की राजनीति शैली का गहरा अध्ययन करने वाले पत्रकार जानते हैं कि वह पर्दे के पीछे बैठकर कितनी ओछी राजनीति चलाती हैं। नरसिंहाराव के प्रधानमंत्री बनने के बाद वह लगभग अज्ञातवास में चली गयीं और एक दो वंशवादी मानसिकता के मुखौटों के माध्यम से राजनीति की शतरंज में गोटियां चलती रहीं। एक दिन अनायास उन्होंने कांग्रेस के अध्यक्ष सीताराम केसरी को अध्यक्ष की कुर्सी से टांग खींचकर नीचे घसीट लिया और स्वयं कुर्सी पर बैठ गयीं। माकपा नेता हरकिशन सिंह सुरजीत की रणनीति से 2004 में सत्ता हाथ में आने पर उन्होंने नरसिंहाराव को पूरी तरह भुला दिया। उनका अंतिम संस्कार भी दिल्ली में नहीं होने पाया। 2014 तक दस साल सत्ता में रहने पर किसी पार्टी अधिवेशन में, नरसिंहाराव का चित्र या कटआउट नहीं लगा, सरकार के प्रत्येक मंत्रालय के विज्ञापनों में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के साथ सोनिया का चित्र अवश्य छपता रहा सोनिया ने एक बार नहीं कहा कि उनका चित्र क्यों छापा जाता है। इसके विपरीत नरेन्द्र मोदी ने अपनी व्यक्ति पूजा पर रोक लगाने का पूरा प्रयास किया है। उन्होंने अपने मंत्रियों को निर्देश दिया कि वे उनके चरणस्पर्श करने की परिपाटी का अनुसरण न करें। सोनिया राजनीति में छुआछूत बरतती हैं। उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल के विस्तार कार्यक्रम का जानबूझकर बहिष्कार किया। लोकसभा चुनावों में पार्टी की भारी हार के बाद भी उन्होंने और उनके पुत्र राहुल ने पार्टी का अध्यक्ष व उपाध्यक्ष पद नहीं छोड़ा, त्यागपत्र देने का दिखावा अवश्य किया।
समाचार पत्रों को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि अपनी पार्टी के सब निर्णय वह अकेले ही लेती हैं। अभी उनका एजेंडा उपयुक्त अवसर आते ही कूदकर मंच पर आना है। इसके लिए वह नेहरू वंश की विरासत पर अपना एकाधिकार बनाये रखना चाहती हैं। उसे भारतीय राजनीति के धूमकेतु के रूप में देखा जाना चाहिए।
उसकी पार्टी के अनेक वरिष्ठ नेताओं का सत्ता से वंचित होने के बाद उसकी व्यक्तिवादी और वंशवादी राजनीति से मोहभंग हो रहा है। पूर्व वित्तमंत्री चिदंबरम के पुत्र कार्तिक ने स्पष्ट शब्दों में आलाकमान की शब्दावली का विरोध किया है क्योंकि आलाकमान का अर्थ सोनिया राहुल की टुकड़ी तक सीमित रह गया है। पूर्व कानून मंत्री और पूर्व राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने राहुल गांधी को अक्षम करार दिया है। और तो और, वंशवादी चाटुकारिता के सरताज दिग्विजय सिंह ने भी राहुल को निकम्मा व निष्क्रिय बताया है। पर सोनिया की योजना में नेहरू पर अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन में राहुल का ही बीज भाषण होने वाला है और पार्टी को पुनरुज्जीवित करने के लिए राहुल ही जनसम्पर्क यात्रा करने वाले हैं।
सोनिया स्वयं राजमहिषी की तरह राजमहल में बैठकर किसी न किसी प्यादे को मीडिया के सामने पेश करती हैं। आजकल अजय माकन और आनंद शर्मा यह भूमिका निभा रहे हैं। 17-18 नवम्बर के अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन की रूपरेखा मीडिया को बताते हुए आनंद शर्मा ने चटखारे लेकर कहा कि 'हमने प्रधानमंत्री को आमंत्रित नहीं किया है, हमने उन सभी को आमंत्रित किया है जो वाकई लोकतंत्र और जवाहरलाल नेहरू के विचारों में भरोसा रखते हैं।' आनंद शर्मा ने यह भी कहा कि उन दिनों प्रधानमंत्री मोदी पर्यटन पर जा रहे हैं इसलिए भी उन्हें निमंत्रण देने का सवाल नहीं उठता।' अर्थात सोनिया के इस नये भोंपू की नजरों में देश के प्रधानमंत्री की विदेश यात्राएं मात्र पर्यटन हैं। तब संप्रग के दस साल के शासनकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को हमेशा देश से बाहर पर्यटन पर क्यों रखा गया? क्या इसलिए कि उन्हें देश से बाहर घुमाकर देश में शासन सूत्रों का संचालन सोनिया स्वयं कर सकें? उस अन्तरराष्ट्रीय सम्मेलन का विषय रखा गया है नेहरू की वैश्विक दृष्टि तथा उनकी विरासत : लोकतंत्र, समावेशी विकास और सशक्तीकरण?
क्या सोनिया का अपना आचरण इस भारी भरकम विषय के अनुरूप है? क्या उनकी दृष्टि में दिल्ली की जामा मस्जिद के इमाम पद को एक वंश की सम्पत्ति बनाने वाला बुखारी ही नेहरू के लोकतंत्र और समावेशी विकास का रहनुमा है? लोकसभा चुनाव के पूर्व क्या सोनिया ने इसी वैचारिक एकता के कारण इमाम बुखारी से गुप्त भेंट की थी। यदि वंशवादी चश्मे से देखें तो सोनिया और इमाम बुखारी की विचारधारा एक है। दोनों अपने-अपने वंश को आगे बढ़ाने के लिए बेकरार हैं। सोनिया तो अपने वंश के प्रति भी ईमानदार नहीं हैं। यदि होतीं तो क्या वह अपने नाम के आगे गांधी लगाकर इस देश के श्रद्धापुरुष महात्मा गांधी की यशोगाथा का अपहरण करतीं? क्यों नहीं वह खुलेआम घोषणा करतीं कि उनका प्रेम विवाह जिस राजीव से हुआ था वह फिरोज घैंडी और इंदिरा नेहरू की संतान थे। इस नाते उन्हें राजीव घैंडी कहा जाना चाहिए न कि राजीव गांधी। यह वंश अधिक से अधिक नेहरू घैंडी वंश कहलाने का अधिकारी है गांधी परिवार तो कदापि नहीं। पर इसके लिए हम सोनिया से अधिक मीडिया को अपराधी मानते हैं। जब हम अखबारों के पहले पन्ने पर गांधी परिवार शब्द प्रयोग देखते हैं तो हमें अपने सर्वज्ञानी मीडिया की बुद्धि पर तरस आता है। मीडिया का धर्म है झूठ के प्रचार को रोकना और सत्य को सामने लाना। क्या सचमुच भारतीय मीडिया को इस बात का ज्ञान नहीं है कि इंदिरा नेहरू से प्रेम विवाह करने वाले पारसी युवक फिरोज का कुलनाम घैंडी था, गांधी नहीं। वह घैंडी से गांधी कब कैसे हुआ। इसकी छानबीन करना मीडिया का काम है, नेहरू की पुत्री होने के कारण इंदिरा जी के वंश को अधिक से अधिक नेहरू घैंडी वंश कहा जा सकता है, पर मीडिया लगातार झूठ का प्रचार कर रहा है और पुण्यधर्मा गांधी जी की विरासत को गांधी विरोधी नेहरू के खाते में डाल रहा है।
हम नेहरू को गांधी विरोधी यों ही नहीं कह रहे हैं। यदि सोनिया पार्टी अपने अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन का विषय नेहरू की वैश्विक दृष्टि और विरासत को बना रही है तो गांधी दृष्टि और विरासत की कसौटी पर नेहरू का मूल्यांकन किया जाना चाहिए। 1928 से लेकर 1948 तक गांधी-नेहरू पत्राचार का अध्ययन करने पर स्पष्ट हो जाता है कि नेहरू को न गांधी का जीवन दर्शन स्वीकार्य था, न उनका सभ्यता चित्र और न ही उनके सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक कार्यक्रम।
नेहरू इस बात को भली प्रकार जानते थे पर गांधी जी का प्रत्यक्ष विरोध करने की हिम्मत नहीं जुटा पाते थे क्योंकि वे समझते थे कि गांधी जी से टकराव लेकर वे कहीं के नहीं रहेंगे। वे गांधी जी का सत्ताप्राप्ति की सीढ़ी के रूप में इस्तेमाल करना चाहते थे और वही उन्होंने किया भी।
यह भारतीय इतिहास की एक अनसुलझी गुत्थी है कि गांधी जी ने नेहरू से अपनी मतभिन्नता की जानकारी होने पर भी उन्हें ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी क्यों बनाया? क्या नेहरू जी की सत्ताकांक्षा में से उपजी चापलूसी भरी भाषा के कारण गांधी जी को यह भ्रम पैदा हो गया था, जिसे उन्होंने व्यक्त भी किया कि आज जवाहरलाल भले ही मुझसे भिन्न भाषा बोलता हो पर एक दिन वह मेरी ही भाषा बोलेगा पर ऐसा कभी नहीं हुआ।
1959 में बंच आफ ओल्ड लैटर्स (पुरानी चिट्ठियों का गुच्छा) प्रकाशित कर नेहरू ने पूरी दुनिया को बता दिया कि गांधी जी के विचारों को उन्होंने कभी स्वीकार नहीं किया। नेहरू जी ने सच्चे गांधीवादियों को कभी आगे नहीं बढ़ने दिया। समाजवादी नेता मधु लिमये ने चार खंडों में 1550 पृष्ठों के विशालकाय ग्रंथ 'महात्मा गांधी एंड जवाहरलाल नेहरू' की भूमिका में लिखा है कि 'पचास साल से मुझे यह प्रश्न परेशान करता रहा है कि गांधी जी ने राजगोपालाचारी, डा.राजेन्द्र प्रसाद, वल्लभ भाई पटेल, सुभाष चन्द्र बोस एवं मौलाना अब्दुल कलाम आजाद जैसे सुयोग्य नेताओं के होते जवाहरलाल नेहरू को ही अपना राजनीतिक उत्तराधिकारी क्यों चुना जबकि नेहरू से उनके वैचारिक मतभेद सर्वज्ञात थे।'
मधु लिमये का मानना है कि यदि गांधी जी भारतीय राजनीति में नहीं आते और जवाहरलाल को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने जानबूझकर सतत् प्रयास नहीं किया होता तो नेहरू अपनी महत्वपूर्ण स्थिति को कदापि प्राप्त नहीं कर पाते। मेरा यह ग्रंथ इसी प्रश्न का उत्तर खोजने की तड़प में से निकला है। गांधी जी के कारण ही नेहरू को 1929, 1936, 1937 और 1946 में कांग्रेस अध्यक्ष बनने का अवसर मिला व प्रधानमंत्री बन पाये अन्यथा सरदार पटेल उसके वास्तविक अधिकारी थे। प्रधानमंत्री बनने के बाद नेहरू ने सरदार पटेल की छवि को खराब करने का भरसक प्रयास किया। 1964 में नेहरू जी की मृत्यु तक दिल्ली में उनकी जयंती नहीं मनायी गयी। 1964 में ही पहली बार मनायी जा सकी। सोनिया और उसके चमचों को आभारी होना चाहिए कि नई सरकार यदि पटेल जयंती मना रही है तो वह नेहरू जयंती भी मना रही है।
– देवेन्द्र स्वरूप
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