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स्वास्थ्य का अर्थ है अपने 'स्व' अर्थात् स्वभाव में स्थित हो जाना जो कि हमारा मूल स्वरूप है। और हमारा मूल स्वरूप है प्रसन्नता। इसमें शारीरिक, मानसिक, भावनात्मक स्वास्थ्य शामिल है यानी शरीर, मन और इंद्रियों का एकलय हो जाना। हम जिन बीमारियों से लड़ रहे हैं उनमें कल जो सबसे बड़ी चुनौती मानवता के सामने आने वाली है, वह कैंसर, एड्स, टीबी, हृदयाघात, डायबिटीज नहीं बल्कि अवसाद है। यह अवसाद कहां से आया, यह पूरी तौर पर हमारी अपेक्षाओं, बढ़ती इच्छाओं, हमारे कार्य और विश्राम में असंतुलन का परिणाम है। इसमें प्रकृति का कोई योगदान नहीं है। ऋषियों का तो आशीर्वाद है 'सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे सन्तु निरामया:', लेकिन इस आशीर्वाद को सत्य बनाना हमारे अपने हाथ में है।
चरक, सुश्रुत, पतंजलि और ऐसे कई अन्य भारतीय ऋषियों और वैज्ञानिकों ने हमें ऐसे सूत्र दिए जो समूचे विश्व को निरोग बनाने के लिए पर्याप्त हैं। आज का पश्चिमी सोच आधारित चिकित्सा विज्ञान जहां तक आज सोच भी नहीं सकता है, उसके बहुत आगे जाकर हमारे मनीषियों ने, जो अपार ज्ञान और वैज्ञानिक क्षमता सम्पन्न थे, 'निरोगी काया' को पहला सुख यूं ही नहीं बताया। यह हम सबका नैसर्गिक अधिकार है क्योंकि यह हमको मिला ही हुआ है। प्रकृति ने रोग मनुष्य को नहीं दिए। आयुष दिया है, मुस्कान दी है, प्रसन्नता दी है, सुख दिए हैं, सुंदर मन दिया है, इतने स्वास्थ्यवर्धक और स्वादिष्ट फल तथा सब्जियां व अन्य खाद्यान्न दिए हैं। लेकिन आज के आधुनिक चिकित्सा विज्ञान की पूरी आधारशिला रोगों पर खड़ी है। रोग हैं और उनका निदान है। कृत्रिम रसायन हैं जो उनसे मिलने वाले कष्टों को कुछ समय के लिए दूर करते हैं।
पाञ्चजन्य के इस विशेष आयोजन के पीछे हमारा उद्देश्य यही है कि संपूर्ण मानवता अपने तन तथा मन के स्वास्थ्य को लेकर सजग हो। यह सजगता ही हमें संपूर्ण आयुष यानी स्वस्थ तन, अच्छा मन और सकारात्मक सोच व प्रगति की ओर अग्रसर करेगी।
प्रस्तुति : अजय विद्युत
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