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31 अक्तूबर, 1984 हमारे आधुनिक इतिहास की एक महत्वपूर्ण तिथि बन गई है क्योंकि इसी दिन देश की तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की उनके अपने निवास स्थान के भीतर उनके दो अंगरक्षकों ने बिना किसी तात्कालिक उत्तेजना के गोली मारकर हत्या कर दी थी। ये दोनों ही अंगरक्षक केशधारी सिख थे और उन्होंने यह माना कि उनका श्रीमती इंदिरा गांधी से कोई व्यक्तिगत वैमनस्य नहीं था, बल्कि 5 जून, 1984 को अमृतसर के स्वर्ण मंदिर में ऑपरेशन ब्लूस्टार के नाम से प्रसिद्ध सैनिक कार्रवाई से आहत सिख भावनाओं का बदला लेने के लिए ही उन्होंने इंदिरा गांधी की हत्या की थी। दिल्ली में उनकी हत्या की तीव्र प्रतिक्रिया हुई। सिख परिवारों और गुरुद्वारों पर हमले हुए और बड़ी संख्या में सिख बन्धु मारे गए। तब से वे प्रतिवर्ष इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना की बरसी मनाते हैं। वे उस दिन की घटनाओं की याद ताजा करते हैं और अनेक जांच आयोगों व न्यायालयी मुकदमों के बावजूद दोषियों को सजा न मिलने व सिख परिवारों को न्याय न मिलने की शिकायत करते हैं। 'इंडियन एक्सप्रेस' जैसे अखबार चार दिन से रोज पूरे-पूरे पन्ने की सामग्री छाप कर उस काले दिन की यादों और जख्मों को हरा करते हैं। इस वातावरण में मैं भी अपनी यादों के गलियारे में भटक गया हूं।
चरम पर उत्तेजना
संयोग से उस दिन मैं अपने एक चाचाजी के निधन के बाद उनकी तेरहवीं की रस्म में भाग लेने के लिए अपने एक दूसरे चाचाजी के पुत्र के साथ दिल्ली से अपने गृ़हस्थान कांठ (जिला-मुरादाबाद) गया हुआ था। वहीं हमें इंदिरा जी की हत्या का दु:खद समाचार मिला। पूरा कस्बा उदासी में डूब गया। झटपट एक शोक सभा का आयोजन किया गया जिसमें बोलने के लिए मुझे भी कहा गया। तेरहवीं और शोक सभा के कार्यक्रमों से निबटकर हम दोनों भाई पहली बस पकड़ कर दिल्ली के लिए रवाना हो गए। हमारी बस में दो सिख बंधु भी सवार थे। उनमें से एक अधेड़ उम्र का और एक नौजवान था। मुरादाबाद से दिल्ली जाने वाली बसें रास्ते में गजरौला में चाय-शाय के लिए रुकती थीं। आदत के अनुसार हमारी बस भी गजरौला में एक ढाबे के सामने खड़ी हो गई। हम दोनों भाई चाय के लिए नीचे उतरे और एक मेज पर बैठकर चाय की प्रतीक्षा करने लगे। हमारे दोनों सिख सहयात्री भी उतरे और संयोग से हमारी मेज पर ही आकर बैठ गए। चाय आई। परिचय पुराण शुरू हो गया। तब पता चला कि अधेड़ सिख सेना से सेवानिवृत्त हुआ था। वहां वह जनरल शमेग सिंह की रेजीमेंट में था। शमेग सिंह का नाम उन दिनों काफी चर्चित था। वे स्वर्ण मंदिर में जरनैल सिंह भिंडरावाला की ओर से खालिस्तानी सैनिक व्यूह रचना के मुख्य सेनानायक थे। हमारे अधेड़ सिख साथी की उनके प्रति श्रद्धा टपक रही थी। इंदिरा गांधी का नाम आते ही वह उत्तेजित हो गया। उसने इंदिरा के लिए अनेक अपशब्दों का प्रयोग किया। फिर जो उसने बताया उसे सुनकर हम भौंचक्के रह गए। उसने कहा कि अगर वह (इंदिरा गांधी) फौज को हमले का हुक्म न देती तो उस रात को हमारा पंजाब पर कब्जा हो गया होता क्योंकि हमारे 'मरजीवड़े' पूरे पंजाब में तैनात हो चुके थे। उसने हमारा पूरा खेल बिगाड़ दिया। पता नहीं उसकी बातों में कितना सच था, कितना नहीं, पर उसकी बातें सुन कर ही मुझे पहली बार ऑपरेशन ब्लूस्टार का महत्व समझ में आया। उस समय की अनेक घटनाएं और समाचार आंखों के सामने नाचने लगे। दो प्रमुख अकाली नेताओं-गुरचरण सिंह तोहड़ा और हरचंद सिंह लोंगोवाल को खालिस्तानियों द्वारा स्वर्ण मंदिर के भीतर कैद करने और उनके इंदिरा गांधी से उन्हें बचाने की पुकार करने के उन दिनों के समाचार स्मरण आने लगे।
45 हजार निरपराधी मारे गए
जब तक हम दिल्ली पहुंचे रात का अंधेरा हो चुका था। अगले दिन मैं दीनदयाल शोध संस्थान गया तो वहां वातावरण बहुत तनावपूर्ण था। संस्थान के समीप ही एक भवन में एक सिख परिवार रहता था। जब शहर में कत्लेआम मचा तो वह घबराकर संस्थान में आ गया। उसने नानाजी देशमुख से शरण मांगी। नानाजी ने तुरन्त उनके रहने-खाने की व्यवस्था की। वे इस पूरे घटनाचक्र से बहुत व्यथित थे। पिछले चार-पांच वर्ष से पंजाब में खालिस्तानी आतंकियों द्वारा शांतिप्रिय हिन्दुओं और सिखों की अकारण हत्या के समाचार आएदिन आते रहते थे। एक गणना के अनुसार खालिस्तानी आतंकवाद के फलस्वरूप लगभग 45 हजार निरपराध लोग मारे गए, जिनमें आधे के लगभग सिख बंधु ही थे। इन खालिस्तानी आतंकियों को खाड़कू या मरजीवड़े कहा जाता था। अकाली प्रचार तंत्र उनका महिमामंडन करता था। नानाजी के लगभग सभी प्रमुख अकाली नेताओं से मैत्रीपूर्ण सम्बंध थे। नानाजी उनसे इस विषय पर अपनी चिंता प्रगट करते। अकाली दल को इन घटनाओं की निंदा करने का आग्रह करते तो वे अपनी असमर्थता जताते। कहते कि यह पंथ का मामला है। इसमें यदि हमने अपनी टांग अड़ार्ड़ तो नेतृत्व की दौड़ में हम पिछड़ जाएंगे। उनके ऐसे उत्तरों ने नानाजी को सोचने के लिए विवश कर दिया। उन्होंने अपने विचारों को लेखबद्ध किया।
नानाजी के उस लेख को तैयार करने में मैं और स्व.शैलेन्द्र नाथ घोष उनके मुख्य सहायक थे। मैंने नानाजी के विचारों को हिन्दी में निबद्ध किया तो श्री घोष ने उसका अंग्रेजी अनुवाद तैयार किया। उस लेख को अंतिम रूप 8 नवम्बर, 1984 को प्राप्त हुआ। उस दिन श्री गुरुनानक पर्व था।
इंदिरा जी की अनपेक्षित-असामयिक हत्या से एक शून्य उत्पन्न हो गया था। उस शून्य को भरने के लिए जल्दी-जल्दी में उनके पुत्र राजीव को, जिन्हें इंदिरा जी अपने उत्तराधिकारी के रूप में तैयार कर रही थीं और अपनी कांग्रेस पार्टी के महासचिव पद पर बैठा चुकी थीं, कार्यवाहक प्रधानमंत्री का दायित्व सौंपा गया। नानाजी वंशवादी राजनीति के विरुद्ध थे, किंतु उस असामान्य स्थिति में उन्होंने राजनीति से ऊपर उठकर अपने लेख के अंतिम पैराग्राफ में अनुभवहीन राजीव को समूचे राष्ट्र से समर्थन देने की अपील की। और उस लेख की प्रतियां सभी समाचार पत्रों को भेज दी गईं। किंतु जब तक वह लेख सम्पादकों की मेज पर पहुंचा तभी 13 नवम्बर को मध्यावधि चुनाव की घोषणा हो गई और पूरा वातावरण चुनाव राजनीति से ओतप्रोत हो गया।
मिला राजनीतिक रंग
इस वातावरण में महाराष्ट्र के कांग्रेसियों की निगाह नानाजी के लेख के अंतिम पैराग्राफ में राजीव को समर्थन देने की अपील पर चली गई और उन्होंने तुरंत पूरे लेख में से केवल उस वाक्य को उठाकर प्रचारित कर दिया। महाराष्ट्र के अनेक नगरों में पोस्टर लगे कि 'नानाजी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर' अर्थात् नानाजी की उस गैर राजनीतिक अपील को राजनीतिक रंग मिल गया। इससे भाजपा और उसके मित्रों में खलबली मच गई। नानाजी की छवि संघ और जनसंघ के एक शिखर नेता के रूप में जनमानस पर छायी हुई थी। उन्हें यह भी ध्यान नहीं रहा कि नानाजी ने 11 अक्तूबर, 1978 को लोकनायक जयप्रकाश नारायण की उपस्थिति में राजनीति से संन्यास लेने की सार्वजनिक घोषणा कर दी थी और इस घोषणा के अनुरूप उन्होंने 1980 में गठित भारतीय जनता पार्टी की सदस्यता लेने से इनकार कर दिया था। वस्तुत: 1984 में वे दलगत राजनीति से पूरी तरह अलिप्त थे। पर, उनकी पुरानी छवि उनका पीछा नहीं छोड़ रही थी इसलिए जार्ज फर्नांडीस जैसे अनेक बड़े नेताओं ने नानाजी को चिंता भरे पत्र लिखे। नाना जी स्पष्टीकरण देते-देते थक गए।
तभी भाजपा के कुछ नेता घबराए हुए सरसंघचालक बाला साहब देवरस को मिले कि वे नानाजी से खंडन जारी करवाएं। बाला साहब को नागपुर से दिल्ली होते हुए विमान से कहीं जाना थ् ाा। उन्होंने नानाजी को विमान तल पर बुलाया। नानाजी गए। हम लोग संस्थान में बैठे उनके लौटने की प्रतीक्षा कर रहे थे। क्या हुआ, जानने को उत्सुक थे। नानाजी बहुत परेशान लगे। उन्होंने बाला साहब को वास्तविकता बताने की कोशिश की। पर उनका कहना था कि इस समय भाजपा और संघ परिवार के हित में उन्हें एक संक्षिप्त खंडन जारी कर देना चाहिए। नानाजी ने उनके आदेश को माना। हम लोगों को कहा कि 'मैं संघ का स्वयंसेवक हूं और वे सरसंघचालक हैं। मैं उनके आदेश की अवमानना कैसे कर सकता हूं।' फलत: अगली प्रात: नानाजी ने एक वक्तव्य जारी कर दिया। किंतु यहीं 31 अक्तूबर के अध्याय की इतिश्री नहीं हो जाती। उन लोकसभा चुनावों में कांग्रेस को 404 सीटों पर विजय मिली जो अप्रत्याशित थी, इतना भारी समर्थन आशातीत था। ऐसा क्यों हुआ? चुनाव प्रचार के दिनों में एक दिन स्व. सीताराम गोयल संस्थान में आए। हम लोग नानाजी के कमरे में बैठे हुए थे कि अचानक सीताराम जी बोले कि इस बार भाजपा को दो सीट भी नहीं मिलेगी। हमने उनकी बात को पूरे अविश्वास के साथ हंसी में टाल दिया। किंतु जब चुनाव परिणाम निकले तो भाजपा के खाते में केवल दो सीटें आयीं। उसके कुछ दिन बाद सीताराम जी पुन: आए तब मैंने उनसे पूछा कि आपने कैसे जाना कि भाजपा को दो सीटें भी नहीं मिलेंगी। उन्होंने कहा कि भाई न तो मैंने कोई सर्वेक्षण कराया और न मैं चुनाव 'एक्सपर्ट' हूं। मैंने तो अपने मुहल्ले की हवा देखकर अनुमान लगाया। मैं जिस शक्तिनगर में रहता हूं वह हमेशा जनसंघ का गढ़ रहा है। चुनाव आते ही वहां हर घर पर जनसंघ या भाजपा के झंडे फहराने लगते हैं किंतु इस बार प्रत्येक घर पर कांग्रेस के झंडे फहरा रहे थे। इंदिरा गांधी की हत्या के कारण कांग्रेस के पक्ष में सहानुभूति की लहर दौड़ गई थी, यह केवल दिल्ली में ही नहीं तो पूरे भारत में थी। उसी के परिणामस्वरूप कांग्रेस को 404 सीटें मिल पायीं।
कारण-मीमांसा होनी चाहिए
यह बहुत महत्वपूर्ण कथन है। जो लोग 1 नवम्बर को दिल्ली की घटनाओं को केवल प्रायोजित मानते हैं उन्हें देशव्यापी मौन सहानुभूति की इस लहर की भी कारण-मीमांसा करनी चाहिए। जो कुछ हुआ वह कदापि नहीं होना चाहिए था। वह अत्यंत निंदनीय और दुर्भाग्यपूर्ण था किंतु उसे जन्म देने वाले पहले के घटनाचक्र की ओर से आंखें मूंद लेना उचित नहीं होगा। उन घटनाओं का दलीय राजनीति के लिए दुरुपयोग करना राष्ट्रीय एकता के हित में नहीं होगा। इस क्रम में अकाली नेताओं द्वारा दिल्ली में स्मारक बनाने की घोषणा बहुत ही दुर्भाग्यपूर्ण है। 'विनम्र' उपनाम से लिखने वाले एक वरिष्ठ पत्रकार का यह प्रश्न बिल्कुल उचित है कि 'अकाली नेताओं को जवाब देना होगा कि वे दिल्ली में जो स्मारक बना रहे हैं क्या इस स्मारक पर पंजाब में आतंकवादियों के हाथों मारे गए निर्दोष लोगों के नाम भी लिखे जाएंगे? या कम से कम एक पंक्ति में यह तो लिखा ही जा सकता है कि इतने निर्दोष लोग आतंकवादियों की गोलियों का शिकार हुए थे।' 'विनम्र' लिखते हैं कि 31 अक्तूबर की शाम पश्चिमी दिल्ली के कुछ सिख बहुल इलाकों में उनके निधन का जश्न मनाने के लिए बिजली की लडि़यां जलाई गईं। ऐसी अनेक घटनाएं अनेक प्रत्यक्षदर्शी बताते हैं। पर अब उन सब घटनाओं को भूल जाना ही राष्ट्रीय एकता के लिए आवश्यक है। जो नए पत्रकार आजकल उस समय की घटनाओं को चटखारे लेकर अखबारों में परोस रहे हैं वे किसका हित कर रहे हैं, यह उन्हें सोचना चाहिए। ल्ल (6 नवम्बर, 2014) -देवेन्द्र स्वरूप
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