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भारत में आज महिला खिलाडि़यों में स्टार महिला मुक्केबाज एम. सी. मैरी कॉम और तीरंदाज दीपिका का खूब नाम है। दोनों ने ही गरीबी देखी, सुविधाओं का अभाव और दिक्कतें झेलीं , पर अपनी मेहनत से एक खास मुकाम हासिल किया है। यहां हम मैरी कॉम और दीपिका से विशेष साक्षात्कार के प्रमुख अंश प्रकाशित कर रहे हैं – प्रस्तुति: प्रवीण सिन्हा
मैरी कॉम
'विरोध झेला पर जिद ने सफलता दिलाई'
सफलता पर मुझे शाबाशी मिलनी चाहिए थी, पर मुझे ताने सुनने को मिले। वह बेहद तनाव का दौर था। खैर, मैंने उसी समय ठान लिया कि देश की एक बड़ी खिलाड़ी बनूंगी।
दीपिका कुमारी दीपिका कुमारी
'अनुशासन और कड़ी मेहनत जरूरी'
मैं दुनिया की किसी भी तीरंदाज को हराने की क्षमता रखती हूं। मुझे कोरियाई या चीनी खिलाडि़यों से डर नहीं लगता। मैं सिर्फ अपने खेल पर ध्यान देती हूं।
आप मुक्केबाज कैसे बनीं ?
मैं मणिपुर के ऐसे ग्रामीण इलाके से हूं जहां खेल को लेकर कोई विशेष लगाव नहीं है। मेरा भाई इम्फाल में था जो एथलेटिक्स से जुड़ा हुआ था। मुझे उसने खेलने को प्रेरित किया तो मैं भी एथलेटिक्स से जुड़ गई। लेकिन मुझे मार-धाड़ वाले खेल पसंद थे, शायद इसी वजह से मैं मुक्केबाजी से जुड़ गई। घर की आर्थिक हालत बेहद खराब थी। मां शॉल बेचकर और पिताजी थोड़ी-बहुत खेतीबाड़ी करके घर चलाते थे इसलिए मैं घर से आर्थिक मदद नहीं मांग सकती थी। यही नहीं, उस समय देश में महिला मुक्केबाज ना के बराबर होती थीं, पर मैंने अपनी जिद की बदौलत राज्य स्तरीय मुक्केबाजी प्रतियोगिता जीत ली। इस सफलता पर मुझे शाबाशी मिलनी चाहिए थी, पर पिताजी ने जबरदस्त डांट पिलाई, समाज में मुझे तमाम ताने सुनने को मिले। कोई ऐसा शख्स नहीं था जो मेरा साथ दे। वह बेहद तनाव का दौर था। खैर, मैंने उसी समय ठान लिया कि देश की एक बड़ी खिलाड़ी बनूंगी। कठिन हालात और चुनौतियों से पार पाते हुए मुझे मुक्केबाजी में खुद को साबित करना था। फिर मैं, एस.ए.आई. सेंटर से जुड़ी और राष्ट्रीय व अंतरराष्ट्रीय स्तर के मुकाबले जीतते हुए एक मुकाम हासिल किया।
ल्ल आप मुक्केबाज न होतीं तो क्या होतीं?
यह बड़ा ही कठिन सवाल है। मैं अपनी जिद और मेहनत के बल पर मुक्केबाज न बनती तो शायद मेरे पास गरीबी में जिंदगी बिताने के अलावा कोई चारा नहीं होता।
ल्ल युवा खिलाडि़यों को आप क्या संदेश देंगी?
तमाम संघषोंर् के बाद मुझे परिवार से काफी मदद मिली। समाज ने भी बाद में हौसला बढ़ाया। परिवार के सहयोग के बूते तीन बच्चों की मां होने के बावजूद मेरी मेहनत व त्याग ने मुझे आज उस मुकाम पर पहुंचाया जिसकी तमन्ना हर खिलाड़ी को होती है। मैं आज देश के युवाओं से यही कहूंगी कि किसी भी काम को कड़ी मेहनत, समर्पण और पूरे ध्यान के साथ किया जाए तो मंजिल खुद-ब-खुद मिल जाती है। सफलता का कोई 'शॉर्टकट' नहीं होता।
किन परिस्थितियों में आप तीरंदाज बनीं?
दरअसल, मेरे घर के हालात ऐसे थे कि किसी खेल से हमारा कोई सरोकार नहीं था। मेरे परिवार या खानदान में कोई भी खिलाड़ी नहीं था। तीन भाई-बहनों में मैं पिताजी की बड़ी लाडली थी। स्कूल में कुछेक खेल होते थे जिसमें मुझे तीरंदाजी में सबसे ज्यादा मजा आता था। हालांकि उस समय मेरे पास न तो उपकरण थे और न ही कोचिंग की सुविधाएं। फिर भी मैंने किसी तरह तीरंदाजी जारी रखी और मुझे तीरंदाजी संघ से मदद भी मिलने लगी। कुछ समय में ही मुझे राष्ट्रीय स्तर पर खेलने का मौका मिल गया। 2009 में मैंने अमरीका में पहली बार सब-जूनियर स्तर का खिताब जीता और उसके बाद पीछे मुड़कर नहीं देखा।
अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुंचने के दौरान आपको किन चुनौतियों का सामना करना पड़ा?
चुनौतियां तो काफी सारी थीं, लेकिन छोटी उम्र में ही मैंने जो सफलताएं हासिल कीं उनसे मुझे राज्य सरकार, खेल संघ, एस.ए.आई. और टाटा तीरंदाजी अकादमी से काफी मदद मिली। मुझे कभी कोई दबाव महसूस नहीं हुआ, कम उम्र होने के बावजूद मैं सफलताएं हासिल करती गई। हुनर के उभरने के लिए उम्र की कोई सीमा नहीं होती। सिर्फ अनुशासन के साथ मेहनत और खेल पर ध्यान केंद्रित करने की जरूरत होती है। मैं भी वषोंर् से यही करती आई हूं। वर्ष 2011 में टाटा अकादमी के साथ जुड़ने के बाद मैं तकनीकी तौर पर बेहतर तीरंदाज बनी और वहां मुझे अपने में भरोसा जगा कि मैं दुनिया के किसी भी तीरंदाज को हराने की क्षमता रखती हूं। मुझे कोरियाई या चीनी खिलाडि़यों से डर नहीं लगता। मैं सिर्फ अपने खेल पर ध्यान देती हूं।
युवा खिलाडि़यों को आपका क्या संदेश है?
सफलता पाने के लिए मेहनत तो करनी ही पड़ेगी। पूरे अनुशासन के साथ कड़ी ट्रेनिंग और खेल पर ध्यान केंद्रित करने से ही कोई खिलाड़ी सफल हो सकता है। इसके बाद सफलता के अहम् में चूर न होकर एक अच्छा इंसान बनने की कोशिश करनी चाहिए तभी कोई खिलाड़ी महान खिलाड़ी का दर्जा हासिल कर सकता है। ल्ल
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