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डॉ़ प्रमोदकुमार दूबे
प्रत्येक देश की प्रकृति के अनुसार वहां के समाज में आहार-विहार और उपभोग की प्रवृत्ति बनती है, जिससे अर्थ की निजी धारणा और आर्थिक संस्कृति प्रचलित होती है। भारत की अपनी आर्थिक संस्कृति है। इसकी एक बानगी है- 'मिल-बांटकर खाना'। यह सामान्य कथन नहीं है, वेद का आदेश है- 'केवलाधे भवति केवलादि' अर्थात् जो अकेले खाता है वह केवल पाप खाता है। ईशावास्य उपनिषद कहता है- जगत में जो कुछ है उन सब में ईश्वर का वास है, अन्य किसी का नहीं, इसपर गिद्ध की दृष्टि मत रखो, अपितु इसे त्याग की भावना से ग्रहण करो- 'तेन त्यक्तेन भुंजीथा मा गृद्ध: कस्यस्विद्धनम्'। आरंभ से ही प्रकृति को ईश्वर का आवास मानने के कारण भारत में प्रकृति संगी आर्थिक संस्कृति का विकास हुआ, यह धरणा धारण संमूर्त हुई, शास्त्रों ने इसकी उपास्य प्रतिमा बनाई, जिसे हम महालक्ष्मी के रूप में पूजते हैं। यह प्रतिमा जिस ध्यान मंत्र से रची गई है, उसमें गहरा ज्ञान-विज्ञान है। महालक्ष्मी की मूर्ति अथवा चित्रा के प्रत्येक अंग सुविचारित हैं। यह दृश्यभाषा है, शास्त्रीय तथ्यों को जनमानस से जोड़ने वाली इतनी बड़ी ज्ञान संपदा विश्व की किसी भी अन्य संस्कृति के पास नहीं है। मिथों पर आधारित ग्रीक कला हो या जातक कथाओं के भीत्ति चित्र, इनकी सराहना भव्यता के लिए की जा सकती है, परन्तु ये पौराणिक देवी-देवताओं की मूर्तियों और चित्रों की तरह मंत्रों या मंत्र और मुद्रा से निसृत नहीं हैं जिनका ध्यान किया जा सके। जबकि देवी-देवताओं की मूर्ति और चित्र अनुष्ठानिक हैं। ये हमारे समाज में इतने रचे-बसे हैं कि इन्हें बना-बेच कर सामान्य जन आर्थिक लाभ प्राप्त कर लेता है। इतनी सशक्त दृश्यभाषा के लिए आधुनिक शिक्षा में कोई स्थान नहीं है, उलटे इसे अन्धविश्वास बताकर मजाक उड़ाया जाता है। यह प्रवृत्ति आधुनिक युग के एकाधिकार और दंभ का हिस्सा है।
यह ऐतिहासिक सच है कि पराधीनता के थपेड़ों में भारतीय आर्थिक संस्कृति का दमन हुआ और प्रकृति विरोधी अर्थ चक्र का युग आया, परायी राजसत्ता ने सामाजिक विश्वास को छला, आदर्श को शोषण का उपकरण बनाया और दुराचार को ही प्रश्रय दिया। लोग मानने लगे कि कपट और भ्रष्टाचार से ही आर्थिक संपन्नता हासिल होती है। पिछली सदियों की लूट ने दुनिया को यही सिखलाया। इससे हमारे समाज में आत्मनिन्दा की प्रवृत्ति आ गई। भुखमरी से ग्रस्त मुगलकालीन भारतीय समाज में आई आत्मनिन्दा की प्रवृत्ति को गोस्वामी तुलसीदास ने रेखांकित किया है- 'गारी देत नीच हरिश्चन्दहू दधीचि को', लोग हरिश्चन्द्र और दधीच जैसे दानियों को गाली दे रहे थे, क्योंकि राजसत्ता किसी चरित्रवान को नहीं, बल्कि ऐसे जालिमों को ही बढ़ावा दे रही थी जो उसके शोषण-दमन को अंजाम दे सके- तुलसी ने बताया है कि बबुर बहेड़ा के बाग बनाए जा रहे हैं और उनकी बुराइयों को जनता से छिपाने के लिए कल्पवृक्ष सरीखे सज्जन लोगों का बाड़े की तरह उपयोग किया जा रहा हैं- 'बबुर बहेरे को बनाई बाग लाइयत रूंधिबे को सोई सुरतरु काटियत हैं' (कवितावली)। अंग्रेजों के काल में भी ऐसे ही लोगों को प्रश्रय मिला जो हुकूमत की लूट में सहायक हो सकें। पारंपरिक धारणाओं में लोगों का विश्वास उनकी निर्धनता का कारण बनता रहा। आजाद देश के शासन में भी पूरी राष्ट्रीय संस्कृति उपेक्षित हुई, पश्चिमी शिक्षा और पश्चिमी विकास का मॉडल अपनाया गया, शहरीकरण से गांव तबाह होते गए। आधुनिक शिक्षा ने हमें इस दशा में पहुंचा दिया कि हमारे लिए लक्ष्मी श्रद्धा और पूजा का विषय रह गई, अर्थशास्त्र के मनन का आधार नहीं।
वर्तमान पश्चिमी सभ्यता का दबदबा जिस औद्योगिक क्रांति के बाद शुरू हुआ उस समय को देखने पर ज्ञात होता है कि 1757 ई़ में जब अंग्रेजों को प्लासी युद्ध की जीत हाथ लगी, उन्होंने भारत की अपार संपत्ति लूटी और उसी सम्पत्ति की लागत से 1760 से 1820 ई़ तक औद्योगिक क्रांति की। इसके बाद अंगे्रजों ने 1822 ई़ से भारत की शिक्षा का सर्वेक्षण करवाकर उसके विध्वंस का अभियान चलाया, ताकि प्रतिभा और कौशल से सम्पति उत्पन करने वाली भारत की आर्थिक संस्कृति सदा के लिए नष्ट हो जाए। पाप की सम्पत्ति से अंग्रेजों में पापी अर्थबोध जागा और एडम स्मिथ ने 1776 में अपना अर्थशास्त्र बनाया, जिसका नाम है- 'वेल्थ ऑफ नेशन'। एडम स्मिथ पश्चिमी इकॉनामिक्स के पिता माने जाते हैं। इन्होंने ही मांग और आपूर्ति के सिद्धांत पर बाजारवाद का शिलान्यास रखा, जिसकी आज दशा यह है कि विज्ञापनों के जोर पर जीवन विरोधी वस्तुओं की मांग पैदा कर दी जाती है और अनर्थकारी उत्पादों का बाजार भाव बना दिया जाता है। सामाजिक विश्वास के छल और प्राकृतिक संसाधनों के बेहिसाब शोषण पर खड़ी आज की इकॉनामी असीमित भूख को बढ़ावा देती है, प्राकृतिक आपदाओं को बुलावा देती है और विश्व जीवन को सर्वनाश की ओर ठेलती जा रही है। अगर अंग्रेज भारत की सम्पत्ति लूट नहीं पाते, उनका 'नेशन' निर्धन होता, उनको इकॉनामिक्स पैदा नहीं होती और तब अनर्थकारी आधुनिक युग के बदले वह सार्थक युग ही विकसित होता जिसकी तलाश आज के समझदार कर रहे हैं।
कुछ लोग भारत की समृद्धि का सारा श्रेय वास्तविक तथ्य से मुंह फेर कर तत्कालीन मुस्लिम शासकों को देने का प्रयास करते हैं। सच तो यह है कि भारत अपनी आर्थिक संस्कृति अर्थात महालक्ष्मी की कृपा के कारण आरंभ से ही समृद्ध था जिसके चलते भारत पर लगातार आक्रमण होते थे। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदी ने लिखा है- 'मुसलमान बादशाहों ने धार्मिक बातों को ही प्रधानता दी, जो समय लड़ने भिड़ने से बचा उसे उन्होंने सुख भोगने में खर्च कर दिया। कभी उन्होंने इस बात पर विचार नहीं किया कि हमारे देश की सम्पत्ति का क्या हाल है? वह घट रही है या बढ़ रही है? यदि घट रही है तो किस तरह बढ़ाना चाहिए?' (सम्पत्तिशास्त्र, पृ़ 27)। जबकि भारतीय आर्थिक संस्कृति का नियम था कि राजा ब्रह्ममुहूर्त में जाग कर अर्थ का चिन्तन करे- 'षष्ठे तुर्यघोषेण प्रतिबुद्ध: शास्त्रामिति कर्तव्यतां च चिन्तयेत्'; कौ़ अर्थ़ 1़14़18। ऐसे नियमों से ही भारत समृद्धि के शिखर पर पहुंचा। वैदिक शिक्षा संस्थाओं और राजसत्ता के क्षीण हो जाने से भारत की आर्थिक संस्कृति पर पराधीनता की काली परतें चढ़ती चली गईं। लेकिन, व्यावसायिक क्षेत्रों और सामान्य जनजीवन में यह संस्कृति धार्मिक मान्यताओं के रूप में जीवित रही। आधुनिक शिक्षा के विप्लव के बाद भी जनमानस को अर्थ और अनर्थ का भेद ज्ञात है, लोग जानते हैं कि अधर्म से अर्जित धन से सुख प्राप्त नहीं होता, धर्म ही सुख का मूल है, धर्म का मूल अर्थ और आर्थिक उन्नति का आधर राज्य है- अर्थस्य मूलं राज्यम्।
लक्ष्मी शब्द का अर्थ है- जो शक्ति उद्यमी पुरुष को अपना लक्ष्य बनाती है-'लक्ष्यति उद्योगिनम्' (लक्षि़+मुट़्+ई = लक्ष्मी), किसी अकर्मण्य को लक्ष्य नहीं बनाती। शब्दार्थ से ज्ञात होता है कि लक्ष्मी सार्थक एवं सोद्देश्य प्रयत्न की शक्ति है। यह लक्ष्य से संबन्धित शब्द है, लक्ष्य से लख, लाख, लक्खी और अंग्रेजी के लक, लक्की शब्द व्युत्पन होते हैं। बिना लक्ष्य के लक्ष्मी की आशा नहीं की जा सकती। चूंकि पुराने समय में सर्वाधिक व्यापार समुद्र मार्ग से होता था, लक्ष्मी को समुद्र से उत्पन्न माना गया, इसके अतिरिक्त लक्ष्मी क्षीर सागर की भी कन्या हैं। प्राण सिन्धु में खिले हुए दिक्काल के कमल पर लक्ष्मी विराजमान हैं। इस स्वरूप और यान-मुद्रा के अनुसार भारत में पारंपरिक राजकीय मुद्रा का संख्याक्रम निर्धारित हुआ था। उसमें चार पैसे का एक आना और सोलह आने का एक रुपया अर्थात सोलह दल के कमल बन जाने के बाद एक, दस, सौ, हजार, लाख की दशमलव पद्धति पर लक्ष्मी का कायिक स्वरूप स्थापित था। कमल पूर्ण विकसित मानस का द्योतक है। यदि मानस सही नहीं है तो लक्ष्मी स्थिर नहीं रह सकती, वैचारिक अधिष्ठान भ्रष्ट है तो लक्ष्य भी भ्रष्ट होगा। आज की मुद्रा का संख्याक्रम वैदिक रीति के अनुसार चार, आठ, सोलह, बत्तीस, चौसठ के चतुष्वर्गीय संख्याक्रम के बाद दशसंख्यक क्रम में नहीं है, वह सीधे एक से दस में चल रहा है। यह दशमलव पद्धति भी वैदिक संख्याक्रम है। लेकिन, मुद्रा निर्माण में इसका उपयोग चतुष्वर्गीय संख्याक्रम अर्थात् वेदी के निर्माण के बाद होता है। दस आह्वान क्रम है, इसमें गति है और सोलह स्थापन क्रम है, यह स्थापन है, इसमें स्थिति है। गति और स्थिति दोनों महालक्ष्मी के स्वरूप में होनी चाहिए।
संवत्सर चक्र अर्थात् वर्ष की सबसे घनी अमावस्या की रात को दीवाली मनाई जाती है। इसी दिन मध्यरात्रि में महालक्ष्मी की पूजा होती है शरद ऋतु की इस अमावस्या के पन्द्रहवें दिन संवत्सर चक्र की सबसे मनोहर रात कार्तिक पूर्णिमा आती है। इस रात के चन्द्रमा में सोलहों कलाएं उदित होती हैं। प्रमुखत: बंगाल में आश्विन अमावस्या के पन्द्रहवें दिन आने वाली शरद पूर्णिमा को भी महालक्ष्मी की पूजा प्रचलित है। मन ही तो चन्द्रमा है- 'चन्द्रमा मनसोजात:'।
यही पूर्ण उदित प्रफुल्ल मन महालक्ष्मी का आसन है, वेदी है, सोलह दलों का कमल है, जिसे प्रवृति के भीतर देख दोषियों ने हमारी आर्थिक संस्कृति को स्थापित किया है, यही हमारी राजमुद्रा के संख्याक्रम में भी स्थापित हुआ और जनमन में भी। हमें आधुनिक युग की अंधेर नगरी के अनर्थतंत्र से उत्पन्न दरिद्रता को हटाना होगा और माता महालक्ष्मी को परम वैभव की प्राप्ति के लिए स्थापित करना होगा। हमारी आर्थिक संस्कृति ही विश्व का कल्याण कर सकती है।
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