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व्यवसाय की दुनिया में अब वंचितों की धमक

by
Oct 18, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Oct 2014 15:39:17

 

यह किसी को बताने की जरूरत नहीं है कि हमारे यहां कुछ खास वर्ग ही व्यापार की दुनिया पर मुख्य रूप से काबिज रहे हैं। पर अच्छी बात यह है कि अब समाज के ऐसे स्तरों से भी कारोबारी दरवाजों पर दस्तक हुई है जिनके बारे में पहले ऐसी कल्पना भी कठिन थी।
अगर वंचितों के मसीहा बाबा साहेब अम्बेदकर अब होते तो उन्हें निश्चित रूप से इस बात का संतोष होता कि सैकड़ों-हजारों वषार्ें से दबे-कुचले वंचित अब छोटी मोटी नौकरी करके ही खुश नहीं हैं। वे अब कारोबार की दुनिया में भी जगह बना रहे हैं। वे उद्यमी बन रहे हैं। उन्हें सफलता मिल रही है। उनके तमाम सपने हैं। उन्हें वे साकार कर रहे हैं। उन्हें लगता है कि देश में 1991 से शुरू हुए आर्थिक उदारीकरण ने उन्हें कारोबार की दुनिया में कदम बढ़ाने के अवसर दिए। अब उन्होंने फिक्की, एसोचैम और सीआईआई की तर्ज पर अपना संगठन बना लिया है- नाम रखा वंचित इंडियन चेंबर ऑफ कॉमर्स एंड इंडस्ट्री (डिक्की)।
बेशक, अगर वंचित उद्यमिता की तरफ धकेले भी गए तो इसकी वजह सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार के मौकों की कमी आना था। 1997 में,सार्वजनिक क्षेत्र में रोजगार 197 लाख थे, जो सबसे ज्यादा था और इसके बाद इसमें लगातार गिरावट आई और यह 2007 में 180 लाख पर आ गया। इसी के साथ आरक्षण का एक तरह से वास्तविक अंत भी हो गया। जबकि ऊंची जातियों में उद्यमिता जोखिम उठाने से जुड़ी हो सकती है, वंचितों में इसका उलटा लक्षण देखने को मिलता है- वह है अपने अस्तित्व के लिए जोखिम उठाना। ऐसे में जबकि रोजगार नहीं हैं, वंचित युवक खुद अपने बूते कुछ करने की ठानते हैं और तथा-कथित उद्यमी बन जाते हैं। वंचित उद्यमियों की कारोबार के संसार में सफलता का श्रेय आउटसोर्सिंग और सहायक उद्योगों को दिए गए प्रोत्साहन को दिया जा रहा है। इसमें उद्यमिता का एक विस्फोट हुआ, जिसमें वंचितों को भी जगह मिली।
एक राय यह भी है कि खुदरा बाजार में एफडीआई का 'भारत में वंचित उद्यमियों के उभरते वर्ग पर' सकारात्मक असर हो रहा है। इनकी दलीलों का मुख्य आधार यह है कि पारंपरिक, जातिबद्ध खुदरा क्षेत्र वंचित उद्यमियों के लिए अवसर मुहैया नहीं कराता है। एफडीआई आधुनिक और जाति निरपेक्ष है, इसलिए वंचित उद्यमियों के लिए फायदेमंद है।
डॉ़ चंद्रभान प्रसाद वंचित चिंतक हैं। उन्होंने अपने एक हालिया शोध में पाया कि आर्थिक उदारीकरण का दौर वंचितों के लिए और खास तौर से वंचित उद्यमियों के लिए फायदेमंद रहा। उसके बाद इन्हें (वंचित उद्यमियों को) तमाम क्षेत्रों में अपने लिए जगह बनाने का मौका मिला।
अब बात करते हैं एक दूसरे अध्ययन की, जो दिल्ली की आजादपुर फल और सब्जी मंडी में वंचित आढ़तियों की तलाश से जुड़ा हुआ है। यह अध्ययन डिक्की के सदस्यों ने किया और जाहिर है कि उन्हें कोई वंचित आढ़ती नहीं मिला। वंचितों में राजनीतिक, सामाजिक और बौद्धिक नेतृत्व तो मौजूद है लेकिन व्यापारिक नेतृत्व का अभाव है। इस जरूरत को पूरा करने के लिए डिक्की स्थापित किया गया। अब तक इसके आंध्र प्रदेश, कर्नाटक,महाराष्ट्र चैप्टर खुल चुके हैं और पूरे देश में करीब 3000 सदस्य बन चुके हैं।
बेशक, कोई भी समाज जो कठिन दौर से गुजरता है, संघर्ष करता है- एक दिन तरक्की करता है। वे मारवाडि़यों का उदाहरण देते हैं जो राजस्थान-गुजरात की सूखी धरती और मरुस्थल में पैदा हुए। पारसियों को देखिए जो ईरान से आए, सिंधी जो सिंध से आए, इन सब ने विपरीत परिस्थितियों में संघर्ष किया और संपन्न बने। अब वंचितों का समय है, वंचित व्यापार में अपनी क्षमताओं से आगे बढ़ रहे हैं।
चंद्रभान प्रसाद ने स्वीकारा, हम भी बाबा साहब अम्बेडकर की तरह सूट पहनते हैं। अंग्रेजी बोलते हैं। हम आरक्षण के बल पर नहीं, अपने दम पर आगे बढ़ना चाहते हैं। महाराष्ट्र में वंचित उद्यमी वास्तव में तेजी के साथ आगे बढ़ रहे हैं। एक वंचित उद्यमी महाराष्ट्र की निर्माण क्षेत्र की एक कंपनी 'फार्च्यून कन्स्ट्रक्शन' के मालिक हैं। उनकी कंपनी का साल का कारोबार 60 करोड़ का है। देवानन्द लोंधे भी वंचित उद्यमी हैं। वे महाराष्ट्र के सांगली शहर के छोटे से गांव हिंगनगांव में दस्ताने बनाने का काम करते हैं। उनकी कंपनी की खासियत यह नहीं है कि वह दस्ताने बनाती है,बल्कि खासियत यह है कि उनकी कंपनी से बने सौ फीसद दस्ताने निर्यात होते हैं। महज चार साल पुरानी कंपनी का साल का कारोबार अस्सी लाख पर पहुंच गया है। वे चाहते तो अधिक उत्पादन वाली मशीनें लगाकर अपने कर्मचारियों की संख्या कम कर सकते थे लेकिन उनका मकसद सिर्फ व्यवसाय करना नहीं था। वे अपने गांव में जिनके पास रोजगार नहीं है,उनके लिए रोजगार पैदा करने की इच्छा लेकर अफगानिस्तान से अपने गांव लौटे थे। वे एक संस्था की तरफ से दो साल अफगानिस्तान रहे, उससे पहले लंबा समय उन्होंने चेन्नई के सुनामी पीडि़तों के बीच बिताया था। देवानन्द ने अपनी कंपनी में 150 महिलाओं के लिए रोजगार की व्यवस्था की।
महिलाओं को रोजगार देने के पीछे उनकी दूरदर्शिता भी नजर आती है। चूंकि पैसा महिला के हाथ में आएगा तो उससे पूरे परिवार का सही-सही विकास होगा। महाराष्ट्र में चीनी माफिया की कहानी देश प्रसिद्ध है। वहां चीनी मिल के कारोबार में नए लोगों के आने के रास्ते में बड़ी बाधाएं हैं। विपरीत हालातों में 20 वर्षों के लंबे प्रयास के बाद तीन वर्ष पहले स्वप्निल भिंगारदवे महाराष्ट्र के पहले वंचित चीनी मिल मालिक बने। उनके कुछ कारोबार पहले से भी चल रहे थे। चीनी मिल उसमें अब जाकर जुड़ा है। उनके सभी कारोबारों की संयुक्त वार्षिक परिलब्धि 90 करोड़ रुपए की है।
उन्होंने 250 लोगों को रोजगार दिया है। महाराष्ट्र में इन युवा वंचित उद्यमियों के बढ़ते कदमों की थाप अभी धीमी है,लेकिन उनके हौसले बुलन्द हैं। 300 वंचित कारोबारियों से मिलकर बनी डिक्की का साल का संयुक्त कारोबार पांच हजार करोड़ का है। वैसे तो यह पहल अभी शैशवावस्था में है। अभी इस मुहिम के साथ देशभर के वंचित उद्यमियों का जुड़ना शेष है। हाल ही में जब डिक्की ने दलित उद्यमियों के लिए एक बड़े ट्रेड फेयर 'दलित डीप एक्सपो' का आयोजन पुणे में किया, उस आयोजन को देखने के लिए देशभर से व्यवसायी एकत्रित हुए। इस आयोजन में लगभग डेढ़ करोड़ रुपए की लागत आई। आयोजकों ने इस बात का विशेष ध्यान रखा कि आयोजन का आर्थिक बोझ व्यापार मेले में स्टाल लगाने वाले छोटे उद्यमियों पर न आए। उनके लिए स्टाल नि:शुल्क ही उपलब्ध कराये गये। जिन लोगों से शुल्क लिया भी गया, तो वह भी नाममात्र को ही था। यह आयोजन का जादू ही था, जिसकी वजह से कम विज्ञापन के बावजूद,इसमें पंजाब, हरियाणा, दिल्ली के लगभग सौ व्यवसायी शामिल हुए।
अब कहीं न कहीं लगता है कि आने वाले समय में जब जाति का चलन समाज के भीतर कमजोर होगा तब वंचितों का कारोबार के संसार में सफर और तेजी से आगे बढ़ेगा। यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि देश में फिक्की, एसोचैम, सीआईआई जैसी बड़ी-बड़ी कारपोरेट तरीके से काम करने तथा व्यवसायियों के हितों का ख्याल रखने वाली संस्थाएं पहले से मौजूद हैं। इनकी मौजूदगी में वंचितों के लिए क्या किया गया है? इनमें वंचितों की भागीदारी कितनी है और कहां है? वंचित वहां नहीं तो क्या हुआ, वंचित डिक्की में हैं, अब इन्हें नजरअंदाज करना आसान नहीं होगा।
इसमें कोई शक नहीं है कि पूंजीवादी भावना के कारण ही वंचितों का उत्थान हुआ है। पहले वंचित दो ही काम कर सकते थे, राजनीति या सरकारी नौकरी। अब वंचित नौजवान कारोबारी बनना चाहते हैं। उन्हें डिक्की के जरिये पूंजी और तकनीक मुहैया कराई जा रही है। सरकार ने नियम बना दिया है कि एसएमई से होने वाली 30 फीसद खरीद वंचित एसएमई से ही होनी चाहिए। टाटा मोटर्स में भी यही व्यवस्था की गई है। यह बेहतरीन मौका है। पिछले साल मुंबई में वंचित एक्सपो में रतन टाटा और आदि गोदरेज भी आए थे। टाटा ने बहुत शालीन तरीके से कहा कि वह वंचित उद्यमियों को सलाम करते हैं।
चंद्रभान प्रसाद कहते हैं कि कभी वंचितों के हाथ का छुआ न खाने वाले आज उनका बनाया पानी पी रहे हैं। नैनो, पल्सर, हीरो होंडा बनाने में हमारी भागीदारी है। भारत में करीब 20 करोड़ वंचित हैं। वंचित अध्येता डी श्याम बाबू के मुताबिक देश की आबादी में इनकी हिस्सेदारी छठे हिस्से के बराबर है, पर उनके पास देश की संपत्ति का सिर्फ एक फीसद हिस्सा है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति वित्त और विकास निगम जैसी सरकारी संस्थाओं के गठन के बावजूद वंचित कारोबारी समुदाय को पूंजी हासिल करने में हमेशा दिक्कतों का सामना करना पड़ा है।
कुल मिलाकर बात यह है कि अब वंचित सरकार से नौकरी की भीख नहीं मांग रहे। वे अपने लिए उद्यमिता की दुनिया में नई कथाएं लिखने के स्वप्न देखने के साथ उन्हें साकार करने में जुटे हुए हैं। ल्ल

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