सहमति से समाधान का प्रयास
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सहमति से समाधान का प्रयास

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Oct 18, 2014, 12:00 am IST
in Archive
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दिंनाक: 18 Oct 2014 13:32:49

राजनाथ सिंह 'सूर्य'

कांची कामकोटि पीठ के शंकराचार्य स्वामी जयेन्द्र सरस्वती की लखनऊ में मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के अगुआ मौलाना खालिद रशीद फिरंगीमहली से भेंटवार्ता ने एक बार फिर से परस्पर सहमति से रामजन्मभूमि विवाद को हल किए जाने के औचित्य की ओर ध्यान आकृष्ट किया है। स्वामी जयेन्द्र सरस्वती ने मौलाना खालिद रशीद से बात करने की आवश्यकता संभवत: इसलिए समझी क्योंकि जिस इस्लामी शिक्षा संस्थान के वे प्रमुख हैं उसके एक पूर्व प्रमुख स्व़ मौलाना नदवी से कुछ वर्ष पूर्व इसी संदर्भ में उनकी बातचीत हो चुकी थी। यह विवाद इलाहाबाद उच्च न्यायालय की एक खंडपीठ के निर्णय के खिलाफ सवार्ेच्च न्यायालय में दी गई चुनौती से अटका हुआ है। खंडपीठ ने विवादित भू-भाग को जिस प्रकार तीन भागों में बांटने का फैसला दिया है उससे कोई पक्ष संतुष्ट नहीं है।
रामजन्मभूमि पर स्वामित्व का वाद लगभग आठ दशक पुराना हो चुका है। लेकिन उसके समाधान के लिए सऊदी अरब के एक इमाम से मंतव्य भी प्राप्त कर लिया था कि किसी अन्य की भूमि पर नमाज पढ़ना जायज नहीं है। रामजन्मभूमि पर जो ढांचा खड़ा था वह 1992 में ढह चुका है। तब से रामलला एक तंबू के नीचे विराजमान हैं। एक स्तर पर समझौते के प्रयास में यहां तक सहमति बन गई थी कि यदि यह साबित हो जाय कि विवादित ढांचा जहां खड़ा था, उसके नीचे मंदिर था, तो मुस्लिम समाज अपना दावा छोड़ देगा। उच्च न्यायालय के निर्देश और देख-रेख में भारत के पुरातत्व विभाग ने उत्खनन किया। उत्खनन के समय दोनों पक्षों के प्रतिनिधि, जो पुरातत्व मर्मज्ञ थे, भी उपस्थित रहते थे। खुदाई के बाद यह उद्घाटित हुआ कि जिस ढांचे को 'बाबरी मस्जिद' का नाम दिया गया था, वह एक मंदिर को ध्वस्त कर निर्मित किया गया है। मैं 'बाबरी मस्जिद' का ढांचा इसलिए कह रहा हूं क्योंकि ऊपरी गुंबद को छोड़कर उसका स्वरूप कहीं से भी मस्जिद का नहीं था। उसके चारों ओर परिक्रमा का मार्ग बना था, इतना ही नहीं तो जो खंभे खड़े थे, उन पर कमल और कुम्भ उत्कीर्ण थे, जो इस्लामी मत के अनुरूप नहीं हैं। रामजन्मभूमि पक्षकारों का यही दावा रहा है कि 'मस्जिद' का स्वरूप वहां विद्यमान मंदिर को ढहाकर खड़ा किया गया है। उत्खनन के परिणाम को स्वीकार करने से मस्जिद पक्षकारों ने इनकार कर दिया। तर्क यह दिया कि क्योंकि वह भूमि वक्फ बोर्ड के अधीन है इसलिए उस पर बोर्ड को कब्जा मिलना चाहिए।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद के विवाद से जिस प्रकार का विवाद बढ़ा उसके कारण समय-समय पर उसके समाधान के अनेकानेक प्रयास भी हुए। भारत विभाजन के बाद भी हिन्दू-मुसलमानों में वैर भाव के समाधान के तौर पर साठ के दशक में स्व. गुलजारीलाल नन्दा की मेरठ (वर्तमान में गाजियाबाद) जनपद के पिलखुआ नगर में आयोजित एक सभा में उत्तर प्रदेश के पूर्व स्वास्थ्य मंत्री दाऊ दयाल खन्ना ने सुझाव दिया था कि मुस्लिम समुदाय को चाहिए कि कृष्ण जन्मभूमि, मथुरा, रामजन्म भूमि, अयोध्या और काशी विश्वनाथ मंदिर, बनारस को वह हिन्दुओं को सौंप दे। जब रामजन्मभूमि मुक्ति समिति गठित हुई, जिसके अध्यक्ष गोरक्षपीठ के अभी-अभी ब्रह्मलीन हुए महंत अवैधनाथ थे, उसमें दाऊ दयाल खन्ना महामंत्री बने थे। खन्ना के सुझाव के बाद हलचलें शुरू हो गईं। समाधान की दिशा में भी और तनाव की दिशा में भी। 1949 में रामलला के प्रकट होने के बाद से विवादित ढांचे में पुजारियों के अलावा सभी को प्रवेश की अनुमति नहीं थी। मुसलमानों पर तो 1936 से ही वहां नमाज पढ़ने पर प्रतिबंध था। रामजन्मभूमि मुक्ति आंदोलन जब अधिक व्यापक होने लगा उसी समय फैजाबाद जिला सत्र न्यायाधीश की अदालत में फैजाबाद के जिलाधिकारी ने एक शपथपत्र दाखिल किया कि यदि परिसर में लगे ताले को खोल दिया जाय तो शांति व्यवस्था के लिए कोई खतरा नहीं होगा, जिसकी आशंका में अदालत के आदेश से ताला बंद था। अदालत ने तालाबंदी का आदेश वापस ले लिया। इसकी संभावना की कितनी अपेक्षा थी इसका अनुमान इस तथ्य से ही लगाया जा सकता है कि ताला खुलने का छायांकन करने के लिए दूरदर्शन की टीम वहां पहले से मौजूद थी, जो एकमात्र टीवी चैनल था। राजनीतिक और प्रशासनिक सूत्रों से तथ्यात्मक जानकारी मिली, उसके अनुसार श्रीमती इंदिरा गांधी, जो कोई न कोई भावनात्मक मुद्दा उभारकर चुनाव मैदान में उतरने की रणनीति अपनाती थीं-1985 के लोकसभा निर्वाचन में ताला खुलवाकर चुनावी लाभ उठाना चाहती थीं। 1984 में उनकी हत्या हो जाने के बाद राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में इसको अंजाम दिया गया। यही नहीं तो उन्हीं के प्रधानमंत्रित्वकाल में मंदिर का शिलान्यास भी हुआ। और नरसिंहराव के प्रधानमंत्रित्वकाल में 'बाबरी ढांचे' को मीर बाकी के गांव सहजनवां-जो अयोध्या से पांच-छह किलोमीटर दूर है और जहां उसकी कब्र भी है-स्थानांतरित करने का प्रस्ताव भी विचाराधीन हुआ। इंदिरा गांधी से लेकर श्री अटल बिहारी वाजपेयी तक, जितने भी प्रधानमंत्री हुए सभी ने जो प्रयास किए उनकी एक ही दिशा थी-राम के जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का निर्माण।
राजीव गांधी के प्रधानमंत्रित्वकाल में संसद में एक विधेयक पारित कर सभी पूजा स्थलों की 1947 के पूर्व की यथास्थिति बनाए रखने का कानून बना। लेकिन रामजन्मभूमि को छोड़कर, क्योंकि उसका वाद न्यायालय में लंबित था। 1992 में ढांचा गिरने के बाद जब तनाव में कमी आई तो फिर से सहमति से समाधान के प्रयास शुरू हुए। अनेक बार धर्माचायार्ें का मिलन हुआ। विकल्प और आशंकाओं का समाधान ढूंढने का प्रयास हुआ। लेकिन निजी कारणों से 1947 के पूर्व हिन्दू-मुस्लिम विचारों में सामंजस्य स्थापित नहीं हो सका-देश का विभाजन हो गया। वही राजनीति इस पर सहमति से समाधान में बाधक बनती रही।
आज हमें स्वामी जयेन्द्र सरस्वती के नए सिरे से शुरू किए गए प्रयास की सफलता की कामना करनी चाहिए। स्वामी जयेन्द्र सरस्वती के प्रयास की सफलता में मौलाना खालिद रशीद की भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण हो सकती है, क्योंकि इस वर्ष विजयादशमी के पर्व पर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरसंघचालक श्री मोहनराव भागवत के चीन निर्मित वस्तुओं के बहिष्कार का उन्होंने पुरजोर समर्थन किया है। ल्ल

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