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तुफैल चतुर्वेदी
मैं स्वयं और अन्य बहुत से मानवतावादी खिन्न हैं कि हमारे मुस्लिम भाई खुश नहीं हैं। मैं इनके लिए मनुष्यता में प्रबल विश्वास रखने के नाते दु:खी हूँ और आंसुओं में डूबा हुआ हूँ। दु:ख हो तो ऐसा, वह तो मेरी आँखों के ग्लेंड्स खराब हैं अन्यथा: मेरे नगर में तो पक्का बाढ़ आ ही जाती। वो मिस्र में दुखी हैं, वह लीबिया में दुखी हैं। वह मोरक्को में दु:खी हैं। वह ईरान में दु:खी हैं। वह इराक में दुखी हैं। वह यमन में दु:खी हैं। वह अफगानिस्तान में दु:खी हैं। वह पाकिस्तान में दुखी हैं।
वह बंग्लादेश में दु:खी हैं। वह सीरिया में दु:खी हैं। वह हर मुस्लिम देश में दु:खी हैं़ बस दु:ख ही उनकी नियति हो गया है। सऊदी अरब, संयुक्त अरब अमीरात जैसे देशों के आंकड़े इस कारण उपलब्ध नहीं दे पा रहा हूँ कि वहां भयानक तानाशाही है। केवल पानी की लाइन की शिकायत करने सम्बंधित विभाग में 5 लोग चले जाएं तो देश में बेचैनी फैलाने की आशंका में गिरफ्तार कर लिए जाते हैं।
आइये इसका कारण ढूंढा जाये और देखा जाये कि वह कहां सुखी हैं। वह अस्ट्रेलिया में खुश हैं। वह इंग्लैंड में खुश हैं। वह फ्रांस में खुश हैं। वह भारत में खुश हैं। वह इटली में खुश हैं। वह जर्मनी में खुश हैं। वह स्वीडन में खुश हैं। वह अमरीका में खुश हैं। वह कनाडा में खुश हैं। वह हर उस देश में खुश हैं जो इस्लामी नहीं है। विचार कीजिये कि अपने दु:खी होने के लिए वह किसको आरोपित करते हैं? स्वयं को नहीं, अपने नेतृत्व को नहीं, अपने जीवन दर्शन को नहीं। वह उन देशों, जहां वह खुश हैं की व्यवस्थाओं, उनके प्रजातंत्र को आरोपित करते हैं और चाहते हैं कि इन सब देशों को अपनी व्यवस्था बदल लेनी चाहिए। वह इन देशों से चाहते हैं कि वो स्वयं को उन देशों जैसा बना लें जिन्हें ये छोड़कर आये हैं या जहां उन्होंने आश्रय लिया है। इसी अध्ययन को आगे बढ़ाते हुए ये देखना रोचक रहेगा कि विश्व के भिन्न-भिन्न समाज एक दूसरे के साथ रहते हुए किस तरह की प्रतिक्रिया करते हैं। हिन्दू, बौद्घों, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयायियों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं। बौद्घ हिन्दुओं, मुसलमानों, ईसाइयों, शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयायियों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं। ईसाई मुसलमानों, बौद्घों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयायियों, यहूदियों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं। यहूदी ईसाइयों, मुसलमानों, बौद्घों, हिन्दुओं, शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयाइयों, अनीश्वरवादियों के साथ सामान्य रूप से शांति से रहते हैं। इसी तरह शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयायियों, अनीश्वरवादियों को किसी के साथ शांतिपूर्ण जीवनयापन में कहीं कोई समस्या नहीं है।
आइये अब इस्लाम की स्थिति देखें़ मुसलमान बौद्घों, हिन्दुओं, ईसाइयों, यहूदियों, शिन्तो मतानुयायियों, कन्फ्यूशियस मतानुयायियों, अनीश्वरवादियों के साथ कहीं शांति से नहीं रहते। यहां तक कि अपने ही मजहब के तनिक भी भिन्नता रखने वाले किसी भी मुसलमान के साथ चैन से बैठने को तैयार नहीं हैं। अपने से तनिक भी अलग सोच रखने वाले मुसलमान एक दूसरे के लिए खबीस, मलऊन, काफिर, वाजिबुल-कत्ल माने, कहे और बरते जाते हैं। एक दूसरे की मस्जिदों में जाना हराम है। एक दूसरे के इमामों के पीछे नमाज पढ़ना कुफ्र है। एक-दूसरे से रोटी-बेटी के सम्बन्ध वर्जित हैं। सुन्नी शिया मुसलमानों को खटमल कहते हैं और उनके हाथ का पानी भी नहीं पीते। सुन्नी मानते हैं कि शिया उन्हें पानी थूक कर पिलाते हैं।
ये सामान्य तथ्यात्मक विश्लेषण तो यहीं समाप्त हो जाता है मगर अपने पीछे चौदह सौ वषोंर् का हाहाकार, मजहब के नाम पर सताए गए, मारे गए, धर्मपरिवर्तन के लिए विवश किये गए करोड़ों लोगों का आर्तनाद, आगजनी, वैमनस्य, आहें, कराहें, आंसुओं की भयानक महागाथा छोड़ जाता है। इस्लाम विश्व में किस तरह फैला इस विषय पर किन्हीं 4-5 इस्लामी इतिहासकारों की किताब देख लीजिये। काफिरों के सरों की मीनारें, खौलते तेल में उबाले जाते लोग, आरे से चिरवाये जाते काफिर, जीवित ही खाल उतारकर नमक-नौसादर लगा कर तड़पते काफिर, गैर-मुस्लिमों के बच्चों, औरतों को गुलाम बनाकर बाजारों में बेचा जाना, काफिरों को मरने के बाद उनकी औरतों के साथ हत्यारों की जबरदस्ती शादियां, उनके मंदिर, चर्च, सिनेगग को ध्वस्त किया जाना़…इनके भयानक वर्णनों को पढ़कर आपके रोंगटे खड़े हो जायेंगे़
ये सब कुछ अतीत हो गया होता तो पछतावे के अतिरिक्त कुछ शेष न रहता़ भोर की सुन्दर किरणें, चहचहाते पंछी, अंगड़ाई ले कर उठती धरा आते दिन का स्वागत करती और जीवन आगे बढ़ता़ मगर विद्वानों! ये घृणा, वैमनस्य, हत्याकांड, हाहाकार, पैशाचिक व अभी भी उसी तरह चल रहे हैं और इनकी जननी सर्वभक्षी विचारधारा अभी भी मजहब के नाम पर पवित्र और अस्पर्शी है। कोई भी विचारधारा, वस्तु, व्यक्ति काल के परिप्रेक्ष्य में ही सही या गलत साबित होता है। इस्लाम की ताकत ही ये है कि वो न केवल जीवन के सवार्ेत्तम ढंग होने का मनमाना दावा करता है अपितु इस दावे को परखने भी नहीं देता। कोई परखना चाहे तो बहस की जगह उग्रता पर उतर आता है़ उसकी ताकत उसका अपनी उद्दंड और कालबाह्य विचारधारा पर पक्का विश्वास है़
9-11 के बाद अमरीका ने अफगानिस्तान में घुसकर तालिबान को ढेर कर दिया। उसके अड्डे समाप्त कर दिए। उसके नेता मार दिए मगर क्या इससे अमरीका और सभ्य विश्व सुरक्षित हो गया? आज भी अमरीका के रक्षा बजट का बहुत मोटा हिस्सा इस्लामी आतंकवाद से सुरक्षा की योजनाएं बनाने में खर्च हो रहा है।
अमरीका ने सीरिया और इराक में आई एस आई एस द्वारा स्थापित की गयी खिलाफत से निपटने के लिए सीमित बमबारी तो शुरू की है मगर पूरी प्रखरता के साथ स्वयं को युद्घ में झोंकने की जगह झरोखे में बैठकर मुजरा लेने की मुद्रा में है। यानी अमेरिका ने अपनी भूमिका केवल हवाई हमले करने और जमीनी युद्घ स्थानीय बलों, कुदोंर् के हवाले किये जाने की योजना बनाई है। यही चूक अमरीका ने अफगानिस्तान में की थी़ अब जिन लोगों को सशस्त्र करने की योजना है वह भी इसी कुफ्र और ईमान के दर्शन में विश्वास करने वाले लोग हैं।
वह भी काफिरों को वाजिबुल-कत्ल वध करने योग्य मानते हैं। इसकी क्या गारंटी है कि कल वह भी ऐसा नहीं करेंगे। ये बन्दर के हाथ से उस्तरा छीनकर भालू को उस्तरा थमाना हो सकता है और इतिहास बताता है कि हो सकता नहीं, होगा ही होगा। आज नहीं कल इस युद्घ के लिए सम्पूर्ण विश्व को आसमान से धरती पर उतरना होगा। आज तो युद्घ उनके क्षेत्रों में लड़ा जा रहा है। कल ये युद्घ अपनी धरती पर लड़ना पड़ेगा। इसलिए इन विश्वासियों को लगातार वैचारिक चुनौती देकर बदलाव के लिए तैयार करना और सशस्त्र संघर्ष से वैचारिक बदलाव के लिए बाध्य करना अनिवार्य है।
आईएसआई एस संसार का सबसे धनी आतंकवादी संगठन है। इसे सीरिया के खिलाफ प्रारंभिक ट्रेनिंग भी अमरीका ने दी है। इसके पास अरबों-खरबों डालर हैं। हथियार भी आधुनिकतम अमरीकी हैं। इसके पोषण में सऊदी अरब और संयुक्त अरब अमीरात द्वारा दिया जा रहा बेहिसाब धन भी है। ये देश भी इतना धन इसीलिए लगा रहे हैं चूँकि इन देशों को भी कुफ्र और ईमान के दर्शन पर अटूट विश्वास है।
सभ्य विश्व को इस समस्या के मूल तक जाना होगा। इसके लिए आतंकवादियों के प्रेरणा स्रोतों की चतुर-मूर्ख सेकुलरों और पंचमांगियों की अपनी व्याख्या नहीं वरन् उनकी व्याख्या देखनी होगी। कुफ्र के खिलाफ जिहाद और दारुल-हरब का दारुल-इस्लाम में परिवर्तन का दर्शन इन हत्याकांडों की जड़ है। इस मूल विषय, इसकी व्याख्या और इसके लिए की जा रही कार्यवाहियां वैचारिक उपक्रम को कार्य रूप में परिणत करने के उपकरण हैं। इनको विचारधारा के स्तर पर ही निपटना पड़ेगा। बातचीत की मेज पर बैठाने के लिए प्रभावी बल-प्रयोग की आवश्यकता निश्चित रूप से है और रहेगी मगर ये विचारधारा का संघर्ष है। ये कोई राजनैतिक या क्षेत्रीय लड़ाई नहीं है।
ये घात लगाये दबे पैर बढे आ रहे हत्यारे नहीं हैं। ये अपने वैचारिक कलुष, अपनी मानसिक कुरूपता को नगाड़े बजाकर उद्घाटित करते, प्रचारित करते बर्बर लोगों के समूह हैं। जब तक इनके दिमाग में जड़ें जमाये इस विचारधारा के बीज नष्ट नहीं कर दिए जायेंगे, तब तक संसार में शांति नहीं आ सकेगी। इसके लिए अनिवार्य रूप से इस विचार प्रणाली को प्रत्येक मनुष्य के समान अधिकार, स्त्रियों के बराबरी के अधिकार यानी सभ्यता के आधारभूत नियमों को मानना होगा। इन मूलभूत मान्यताओं का विरोध करने वाले समूहों को लगातार वैचारिक चुनौती देते रहनी होगी। न सुनने, मानने वालों का प्रभावशाली दमन करना होगा।
इसके लिए इस्लाम पर शोध संस्थान, शोधपरक विचार-पत्र, जर्नल, शोधपरक टेलीविजन चैनल, चिंतन प्रणाली में बदलाव के तरीके की प्रभावशाली योजनाएं बनानी होंगी। इस तरह के शोध संस्थान आज भी अमरीका में चल रहे हैं, नए खुल रहे हैं मगर वह सब अरब के पेट्रो डॉलर से हो रहा है।
ये संस्थान शुद्घ शोध करने की जगह इस्लाम की स्थानीय परिस्थिति के अनुरूप तात्कालिक व्याख्या करते हैं और परिस्थितियों के अपने पक्ष में हो जाने यानी जनसंख्या के मुस्लिम हो जाने का इंतजार करते हैं। ये तकनीक इस्लाम यूरोप में इस्तेमाल कर रहा है। भारत में सफलतापूर्वक प्रयोग कर चुका है और हमारा आधे से अधिक भाग हड़प चुका है, शेष की योजना बनाने में लगा है।
जब मुसलमानों में से ही लोग सवाल उठाने लगेंगे और समाज पर दबाव बनाने के उपकरण मुल्ला समूह के शिकंजे से मुसलमान समाज आजाद हो जायेगा, तभी संसार शांति से बैठ सकेगा। कभी इसी संसार में मानव बलि में विश्वास करने वाले लोग थे मगर अब उनका अस्तित्व समाप्तप्राय है।
मानव सभ्यता ने ऐसी सारी विचार-योजनाओं को त्यागा है, न मानने वालों को त्यागने पर बाध्य किया है, तभी सभ्यता का विकास हुआ है। सभ्य विश्व का नेतृत्व अब फिर इसकी योजना बनाने के लिए तत्संकल्प होना चाहिए। कई 9-11 नहीं झेलने हैं तो स्वयं भी सन्नद्घ होइए और ऐसी हर विचारधारा को दबाइए। मनुष्यता के पक्ष में सोचने को बाध्य कीजिये, बदलने पर बाध्य कीजिए।
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