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विलयम शेक्सपीयर ने महान कथानक रचे हैं। विशाल भारद्वाज की पहचान ऐसे फिल्मकार के तौर पर है जो शेक्सपीयर को अपने तरीके से ठीक से बेच लेते हैं। साहित्यिक तौर पर मुरीद कितने हैं कहा नहीं जा सकता। हां, फेंटा ठीक-ठाक लगा लेते हैं। इसीलिए ह्यऑथेलोह्ण का लेगो जब घुटे हुए सिर के साथ गालियां बकते हुए लंगड़ा त्यागी के अवतार में ओम्कारा में उतरता है तो जोरदार तालियां मिलती हैं। हैमलेट में जब हैदर का झाग उठता है तो हॉल में सपनीली-खरखरी आवाज गूंजती है -हैदर, मेरे भाई से इंतकाम लेना…जिन आंखों ने तेरी मां पर फरेब डाले थेह्ण …भरपूर कमाई होती है। साहित्य और सिनेमा की देसी गड्ड-मड्ड में स्वदेशी सरोकारों का क्या होगा इससे संभवत: फिल्मकार को कोई फर्क नहीं पड़ता। साहित्यिक कृति में मनमाने तथ्यों को मिलाने और अलगाववादियों के मानवाधिकारों की पैरवी करती हैदर, वीबी पिक्चर्स की ताजा फिल्म है। सच का गला घोट, झूठ के प्रति संवेदनाएं जगाने की ऐसी कोशिश जिस पर जनता का ऐतराज बनता है। फिल्म की आलोचनाएं हो रही हैं। कश्मीरी हिन्दू प्रदर्शन कर रहे हैं। पोस्टर जलाए जा रहे हैं। प्रशासन को ज्ञापन दिए जा रहे हैं। कश्मीर के असली पीडि़तों के पास इस आक्रोश अभिव्यक्ति का तार्किक आधार है। जिनके घर-मंदिर तबाह कर दिए गए, जिनकी महिलाओं ने शर्मनाक यातनाएं झेलीं, जिनके निहत्थे लोग भून दिए गए, उन लाखों कश्मीरी हिन्दुओं को एक पंक्ति में समेट उन्मादी इस्लाम की तस्लीम बजाती फिल्म को आप क्या कहेंगे?घाटी के पंडितों की पीड़ा को परदे पर दबा जाने वाले विशाल भारद्वाज कहते हैं, ह्यमैं भारतीय हूं। देशभक्त भी हूं। मैं अपने देश से प्यार करता हूं इसलिए ऐसा कोई काम नहीं करना चाहता जो देश विरोधी हो। लेकिन जो चीज मानव विरोधी हो मैं उस पर राय जरूर दूंगा।ह्ण
जाहिर है, कठमुल्लों के आतंक पर जुबान ना खोलने वाले और हिन्दू प्रतीकों का तमाशाई चित्रण करने के बावजूद जब फिल्म निर्माता मानवीय गरिमा और अधिकारों की बात करे तो जनता उसकी घेराबंदी करेगी ही। विशाल घिरे हुए हैं। इस्लामी उन्माद एक वैश्विक सचाई है। महिलाओं को बेचने वाले, बच्चों को जिबह करने वाले, पत्रकारों के गले रेतने का जैसा काम इराक-सीरिया में दिख रहा है कमोबेश वैसी ही यातनाएं झेलते हुए कश्मीरी हिन्दुओं ने वह घाटी छोड़ी है जिस पर आज कट्टरपंथी कुंडली मारे बैठे हैं। कट्टरवाद पर चुप्पी और आतंक की पैरोकारी की वजह से विशाल भारद्वाज को जनता ने घेरा है।
शेक्सपीयर की हैमलेट और बशरत पीर की ह्यकर्फ्यूड नाइटह्ण को फेंटने से पहले विशाल भारद्वाज ने यदि राज्य के राज्यपाल रहे जनरल एस. के. सिन्हा और जगमोहन के अनुभव भी पढ़ लिए होते तो घाटी के घडि़यालों की सच्ची तस्वीर उकेरने में कामयाबी मिल सकती थी। मगर शायद उनकी ऐसी इच्छा ही नहीं थी। सपने में कौंधे अब्बा का बदला लेने को अकुलाते हैदर का पागलपन समझ में आता यदि शेक्सपीयर की तरह बात सपने तक ही रही होती। लेकिन रूहदार का किरदार, जिसका मूल कृति में कहीं नामोनिशान नहीं मिलता, रचकर निर्माता ने आतंकियों का पैरोकार खड़ा किया है। सेना की बर्बरता की कहानी में सचाई के रंग भरने की कोशिश की है।
बहरहाल, शेक्सपीयर के नायकों की एक साझी खासियत है। हर त्रासदी में नायक अपने पतन का जिम्मेदार खुद है। हैदर की समीक्षा इस नजर से क्यों नहीं हुई इसका मुझे आश्चर्य है। घाटी के हर ह्यहैदरह्ण को अपनी इस हालत के जिम्मेदार नेताओं और एकपक्षीय चित्रण करने वाले फिल्मकारों को किनारे कर स्थिति की समीक्षा करनी होगी। कट्टरवाद को बुहारे बिना घाटी सूनी है। लाखों विस्थापितों को दोबारा जगह दिए बिना घाटी सूनी है।
अपने भाइयों को फिर से बुलाने को-ह्यचले भी आओ कि गुलशन का कारोबार चले,ह्ण अगर ऐसी सामूहिक आवाज घाटी से नहीं उठती तो हैमलेट की आड़ में ह्यविशालह्ण झूठ बोले ही जाते रहेंगे।
खाकी के खिलाफ सुलगती ह्यमाचिसह्ण(1996) से ह्यबीड़ी जलइलेह्ण(ओम्कारा 2006) तक के दशक में फिल्मी हथौड़े से राष्ट्रीय सरोकारों पर हमले की धमक साफ सुनाई देती है। साहित्य और मानवीयता को आधार बताती और खास फिल्मी जुगलबंदियों को माध्यम रखकर विस्तार पाती एक पूरी सिनेमाई शृंखला नजर आती है। हैैदर इसी शृंखला की एक कड़ी है।
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