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पाञ्चजन्य के पन्नों से
वर्ष: 9 अंक: 16
21 नवम्बर,1955
उत्तर प्रदेश में ही नहीं तो देश के कोने-कोने में निषाद-समाज निवास करता है। इस निषाद समाज के मुख्यत: दो कार्य हैं 1. नदियों, झीलों, तालाबों आदि में नावें चलाना तथा 2. नदी, तालाबों में मछलियों का शिकार करना।
निषादों द्वारा राष्ट्र की सेवा
आज से ही नहीं तो युगयुगान्त से इस समाज ने भारतीय जनता की अनन्त सेवा की है। जिस समय देश के आवागमन के साधन अत्यल्प थे तथा आज के समान वैज्ञानिक रीति से सम्पन्न नहीं थे उस समय भी इस समाज ने राष्ट्र की सेनाओं को, व्यापारियों को अन्य व्यापारिक सामग्री को एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुंचाने में बड़ी सहायता की। इस बात को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता कि उस काल में अन्य परिवहन साधनों की अपेक्षा जल-यातायात साधनों का महत्व भी अधिक था क्योंकि उनकी गति तीव्र रहती थी तथा लूट-खसोट की संभावना कम। उन नाविकों की स्मृति भी नहीं भुलाई जा सकती जिन्होंने इस देश के पोतों को विदेशों की सीमाओं से लगाया और इस कार्य में उन्हें स्वजीवन की चिंता का मोह भी त्यागना पड़ा। जरा कल्पना तो करें जब सागर की उत्ताल तरंगें उठकर-बैठकर मानव हृदय को कम्पित कर रही हैं। उस समय भी नाविक अपनी छोटी सी डेंगी लिए हम चले पदेश का गान गाते हुए जीवन मृत्यु से संघर्ष कर रहा होगा। ध्यान रहे उस समय न बड़े-बड़े जहाज थे न स्टीमर थे और न पनडुब्बियां ही। तो क्या उस नाविक की, उस नाविक की जाति की, उस नाविक के वंशधरों की कभी उपेक्षा की जा सकती है? और यदि की जा सकती है तो क्या वह उपयुक्त है? जिस निषादराज ने भगवान राम को सरयू के इस पार से उस पार पहुंचाया उसके वंशधरों को क्या रोटी के टुकड़े-टुकड़े के लिए मोहताज बनाना न्याय और व्यवस्था समझा जा सकता है? एक ही उत्तर है सब प्रश्नों का, नहीं? किन्तु दुर्भाग्य, हमारी वर्तमान राष्ट्रीय सरकार कुछ ऐसे ही कदम उठा रही है जिनसे निषाद जनों की जीविका के साधन समाप्त होते जा रहे हैं।
सरकार नदियों के घाटों का ठेका कुछ पूंजीपतियों को उठा देती है। परिणाम यह होता है कि ठेकेदार अनापशनाप रुपया निषादों से वसूल करते हैं। श्रम कोई करता है और श्रम का लाभ दूसरे किसी को प्राप्त होता है। क्या यह उचित है? जिस देश से तथा प्रदेश से जमींदारियों का उन्मूलन हो गया हो, उस देश में इस प्रकार की ठेकेदारी जिसे जमींदारी का ही दूसरा रूप कहा जा सकता है- चलता रहना उचित समझा जा सकता है? कदापि नहीं। आवश्यकता इस बात की है कि मोटर आदि की भांति निषादों को भी सरकार सीधे नाव चलाने के परमिट प्रदान करे और उसके बदले में आवश्यक कर वसूल करे। इससे होगा यह कि सरकार को भी हानि नहीं होगी, राजस्व पूरा प्राप्त होता रहेगा तथा निषादों का भी शोषण न हो सकेगा।
सब समस्याओं का हल संगठित राष्ट्र-जीवन
बिहार में जनता तथा स्वयंसेवकों के बीच श्रीगुरुजी का भाषण
दिनांक 30 अक्तूबर से 8 नवम्बर तक श्रीगुरुजी का बिहार में भ्रमण हुआ। इस अवधि में तीन स्थानों पर संघ कार्यकर्ताओं के शिविरों का आयोजन किया गया। प्रथम गया, मुंगेर में, दूसरा दरभंगा में तथा तीसरा पटना में। इन तीनों शिविरों में लगभग ग्यारह सौ कार्यकर्ताओं ने भाग लिया। सभी शिविरों में संघ-कार्य का लक्ष्य, उसकी पूर्ति के लिए चलने वाला प्रयास और परिश्रमपूर्वक संघ-कार्य बढ़ाने का आदेश दिया।
राष्ट्रोन्नति का उपाय-संगठन
स्थान-स्थान पर आमंत्रित सज्जनों को आयोजित सार्वजनिक सभाओं में श्रीगुरुजी ने संघ-कार्य के संबंध में विचार व्यक्त करते हुए कहा- 'संघ ने अपने सामने एक ही लक्ष्य रखा है और वह है हिन्दू समाज का चिरंतन, अभेद्य संगठन। हिन्दू समाज के संगठन की इसलिए आवश्यकता है कि भारत राष्ट्र विश्व में एक बार गर्व से मस्तक उन्नत करके खड़ा हो सके। प्राचीन काल से हिन्दू संस्कृति की पवित्र धारा अखण्ड रूप में प्रवाहित होती गई है। किन्तु गत एक हजार वर्षों से राष्ट्र जीवन में विच्छिन्नता उत्पन्न होने के कारण उसमें गतिरोध उत्पन्न हो गया है। हम सामर्थ्यहीन बन गए हैं। हम पर आपत्ति और विपत्ति के पहाड़ टूट रहे हैं। आज हम स्वतंत्र हो चुके हैं किन्तु सुसंगठित राष्ट्र-जीवन के अभाव में आज भी हमको सम्मान और स्वाभिमानहीन जीवन व्यतीत करना पड़ रहा है। स्वाभिमान और सम्मान से जीवन व्यतीत करने के लिए हमें बलशाली होना पड़ेगा। 'जीवो जीवस्य जीवनम्' के सिद्धांत के अनुसार दुर्बल सदैव सबल के भक्ष्य बनते रहे हैं। अत: यदि हम चाहते हैं कि हम किसी दूसरे के भक्ष्य न बनें तो हमें बलवान बनना पड़ेगा।
असंगठन ही सब समस्याओं के मूल में
स्वयं को हिदू कहने में लज्जा करने वाले लोगों की ओर संकेत करते हुए श्रीगुरुजी ने कहा- 'वास्तव में हिन्दू 'समाज की दुर्बलता का अनुभव होते ही प्रत्येक हिन्दू को संगठन कार्य के लिए आगे बढ़ना चाहिए परन्तु कितने दुर्भाग्य की बात है कि इस हिन्दू भूमि में अनेक हिन्दू स्वयं को हिन्दू कहने में लज्जा का अनुभव करते हैं। जब स्थिति यह है तो संगठन के लिए अग्रसर होने की बात तो बहुत दूर की है, किन्तु यह बात नितांत सत्य है कि समाज जीवन में दृष्टिगोचर होने वाली समस्त समस्याओं के मूल में असंगठन ही काम कर रहा है।
'वर्तमान में दिखने वाली हिन्दू समाज की दुरवस्था चिरंतन नहीं है। वास्तव में तो हिन्दू समाज के पास उत्कृष्ट गुणों से सम्पन्न वह श्रेष्ठ संस्कृति है जो सम्पूर्ण विश्व को मानवता का सच्चा पाठ पढ़ा सकती है। हमें गर्व होना चाहिए कि हमने ऐसे श्रेष्ठ समाज में जन्म ग्रहण किया है जिसमें समय-समय पर अनेक महापुरुषों ने अवतरित होकर संसार को आदर्श मार्ग का ज्ञान कराया है। स्वामी विवेकानन्द, रामतीर्थ को हुए अभी अधिक दिन व्यतीत नहीं हुए हैं। उन्होंने अपनी अपूर्व प्रतिभा से समस्त विश्व को चमत्कृत कर दिया। हम ऐसे श्रेष्ठ हिन्दू समाज में जन्म लेकर भी स्वयं को हिन्दू कहने से क्यों सकुचाते हैं? हम इस समाज-संगठन से क्यों मुंह मोड़ते हैं? इन प्रश्नों का उत्तर पाने के लिए हमें इतिहास के पृष्ठ पलटने होंगे।'
आपसी फूट का परिणाम
हजार वर्ष के भारतीय इतिहास का सिंहावलोकन करते हुए श्री गुरुजी ने कहा, 'गत एक सहस्र वर्षों तक हम जिस प्रकार परकीय आक्रांताओं के शिकार बनते रहे उसका कारण धनाभाव, बलहीनता या सैन्यबल का अभाव नहीं था, वरन् उसका एकमात्र कारण आपसी मतभेद तथा चैतन्ययुक्त राष्ट्र भावना का अभाव था। आपसी फूट बड़े बड़ों को पददलित कर देती है। परकीय लोगों ने हमारी फूट का लाभ उठाया। बल में हमसे न्यून होते हुए भी हमको परतंत्र बनाया। हमारी वैयक्तिक स्वार्थ वृत्ति का लाभ उठाकर उन्होंने हम पर अपना राज्य जमाया। हमारे राष्ट्र जीवन में विस्मृति उत्पन्न करने के लिए उन्होंने मठ-मंदिर तोड़े, घर-बार जलाए, माताओं-बहनों का सतीत्व नष्ट किया। यहां तक कि हमारे प्रत्येक मानबिन्दु पर आघात किया। इससे हिन्दू समाज की भावनाएं पुन: जगीं। तलवार का उत्तर तलवार से दिया गया। दक्षिण तथा पश्चिमोत्तर में हिन्दू साम्राज्य की स्थापना हुई। किन्तु बाद में आने वाले परकीय अधिक चतुर थे। उन्होंने हमारे हृदय में स्वजीवन के प्रति घृणा का भाव उत्पन्न किया, तथाकथित पढ़े-लिखों को सामान्य जनता से ऊंचा उठाकर हिन्दू रीति नीति को तुच्छ प्रदर्शित करने का प्रयास किया भारत को यूरोप की भांति एक ऐसा महाद्वीप बताया जो कि विभिन्न खण्डों में विभाजित है तथा जिसके एक खण्ड की संस्कृति तथा दूसरे खण्ड की संस्कृति में कोई साम्य नहीं। इस प्रचार का परिणाम यह हुआ कि पढ़े-लिखे लोग भी भारत को एक राष्ट्र ने मानकर एक महाद्वीप ही मानने लगे। वे यह भी कहने लगे कि अगर अंग्रेज इस देश से चले जाएंगे तो भारतीय आपस में एक दूसरे से डटकर लड़ेंगे। अर्थात राष्ट्र में शांति के दूत अंग्रेज।'
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